POLITICS

[POLITICS][list]

SOCIETY

[समाज][bleft]

LITARETURE

[साहित्‍य][twocolumns]

CINEMA

[सिनेमा][grids]

विश्‍वविद्यालयों में शोध के नाम पर केवल संग्रह होता है: अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ पत्रकार अनिल चमड़िया से पत्रकार अमलेश प्रसाद की बातचीत


भारत में मीडिया-शोध की परंपरा विकसित क्‍यों नहीं हो पायी?
उत्‍तर: मीडिया शोध पर ज्‍यादा जोर इसलिए नहीं दिया गया, क्‍योंकि हमारे यहां शोध-संस्‍कृति का ही अभाव है। शोध की एक जो संस्‍कृति होती है उसकी शुरूआत और फिर विकास पर ध्‍यान नहीं दिया गया। हमारे समाज की यह एक बड़ी समस्‍या है उस पर हमें गौर करना चाहिए। जो ज्ञान है उसको हमारे समाज में माना गया है कि यह कहीं और से प्राप्‍त होता है। अलौकिक शक्‍तियां हैं उनसे ज्ञान मिलता है। फिर दूसरा ज्ञान को ये माना जाता है कि यह कुछ खास तरह के लोगों का ही क्षेत्र है। हमारी जो मानसिकता है उसकी ही अपनी सीमाएं हैं।वह ज्ञान के विस्‍तार में बाधा डालती हैं। ज्ञान का विस्‍तार तभी होगा जब समाज की तमाम सभी जन शक्‍तियों की उसमें भागीदारी होगी। ज्ञान क्‍या है? यदि ज्ञान को देखना चाहें और महसूस करना चाहें तो उसको किस रूप में देखेंगे? जैसे मान लिजिए आपने अपने जीवन में कुछ अनुभव किया और उस अनुभव से एक सूत्र तैयार किया।जीवन की कुछ और गहराइयों में उतर जाएंगे। एक दूसरा आदमी भी अनुभव कर रहा है और जो सूत्रबद्ध कर रहा है उसको स्‍थान मिले। दूसरा यह कि  जो समुचा अनुभव किया गया और जो सूत्रबद्ध किया गया उसको संग्रहीत किया जाए। फिर उसका अध्‍ययन किया जाए। एक प्रक्रिया है ज्ञान की। इस प्रक्रिया से ज्ञान अपनी ऊंचाई पर पहुंचता है। यह एक सतत प्रक्रिया है। ऐसा नहीं है कि एक बार जो चीज हमने खोज ली है, जो चीज हमने जान लिया है तो वह आखिरी है। हमारे यहां आखिरी का कंसेप्‍ट है कि जो हमने देख लिया है, महसूस कर लिया है या जो हमने लिपिबद्ध कर लिया है वो बस आखिरी है। इसलिए हमारे यहां शोध संस्‍कृति का अभाव है। हम ज्‍यादा से ज्‍यादा क्‍या करते हैं। जिसको हम आधुनिक कहते हैं उसका आयात कर लेते हैं। हम इस बात पर जोर नहीं देते कि हमें इसकी जरूरत है। हमें इसका निर्माण करना चहिए।यह पूरे शोध की समस्‍या से जुड़ा हुआ मसला है।

भूमंडलीकरण के बाद अब मीडिया-शोध की क्‍या स्‍थिति है?
उत्‍तर:भूमंडलीकरण एक व्‍यवस्‍था का निर्माण करना है। वो अपने अनुकुल एक व्‍यवस्‍था बनाती है। यानी कि खास तरह की चीजें आएंगी, खास गीत आएंगे, खास तरह का खानपान होगा, खास बोली वाणी होगी, खास तरह के सोच की पद्धति होगी। ठीक उसी तरह से मीडिया जो है वो एक उसका हिस्‍सा है। उसमें जो मीडिया शोध होगा, भूमंडलीकरण अपनी जरूरतों के हिसाब से उस तरह के शोध की प्रवृति को, उसके अध्‍ययन को बढावा देगा जो उसके लिए मददगार होगा। चूंकि मीडिया एक तरह से भूमंडलीकरण को नीचे तक ले जाने के लिए एक सबसे बड़ा जरिया है। चूंकि सब लोगों को व्‍यक्‍ति के रूप में बदला जा रहा है। सामूहिकता और सामाजिक बोध खत्म किया  जा रहा है। जब आप व्‍यक्‍ति के रूप में बदल गये जो संवाद का माध्यम बनेगा तो वह कोई रेडियो होगा, तो कोई टेलिविजन होगा, कोई अखबार होगा, कोई मोबाइल का एप्‍लिकेशन होगा। इस तरह के कोई न कोई माध्‍यम ही होगा। जो व्‍यवस्‍था से आपको संवाद करते हुए जोड़े और अपनी जरूरतों के अनुसार आपको ढालते रहे या कोशिश उसी के जरिए होगी। मीडिया का शोध होता है भारत में भी, वह भूमंडलीकरण के हितों में ज्‍यादा होता है।समाज के मनुष्‍य के रूप में उसके अनुकूल या उसके हित में, उसके हिसाब से शोध वही लोग करते हैं या करना चाहते हैं जिनको मनुष्‍यता की ज्‍यादा चिंता होगी। सामाजिक ढांचे की ज्‍यादा चिंता होगी। मनुष्‍य के साथ रिश्‍ते की ज्‍यादा चिंता होगी। मनुष्‍य मनुष्‍य रहे इसकी ज्‍यादा चिंता होगी। वे लोग अपने तरीके से कर रहे हैं। वे लोग ही करेंगे। क्‍योंकि मीडिया का आक्रमण दिखाई दे रहा है मनुष्‍य के दिन भर के गतिविधिवों पर। शोध की एक अहमियत बढ़ रही है। शोध की जरूरत बढ़ रही है। अब सवाल है कि उसकी जो दिशा होगी, क्‍या होगीॽयह महत्‍वपूर्ण बात है। और मुझे लगता है कि जो जैसे समाज को बनाना चाहता है उस हिसाब से वो सोचता है। 

Add caption
मीडिया शोध की मुख्‍य समस्‍याएं क्‍या हैं?
उत्‍तर: कोई भी शोध क्‍या होगा। जैसे कहा जाता है कि आवश्‍यकता आविष्‍कार की जननी है। आप आवश्‍यकता महसूस करें और आपकी व्‍यक्‍तिगत आवश्‍यकता जो है, वह सामाजिक आवश्‍यकता में बदल गया। इसका मतलब यह हुआ कि आपका सरोकार जितना गहरा होगा, आप उतना ज्‍यादा गहराई में और उतनी ज्‍यादा गंभीरता से आप किसी खोज को अंजाम देने की कोशिश करेंगे। मीडिया में भी यही बात है। आपका सरोकार कितना गहरा है। मैंने जो आपको शुरू में कहा ,यहां तो एक तरह से चिंतन करने का एक अभाव है। इस दिशा में वह जाने के लिए प्रेरित ही नहीं करता। आपके जो प्रेरणा के स्रोत हैं यदि वहीं पर दिक्‍कत है तो जाहिर सी बात है कि आप कैसे आगे बढ़ेंगे। भारत में जो शोध की दिक्‍कत है। वह यही है। मेरे समझ में तो यही है। इसीलिए आम तौर पर जो काम होना चाहिए। वह नहीं हो पाया।

मीडिया शोध के प्रति सरकार का रूख कैसा है?
उत्‍तर: वैसा ही है। बिल्‍कुल वैसा ही है। सरकार का मतलब क्‍या होता हैॽसरकार का मतलब होता है जो पार्टियां सरकार चलाने जाती हैं। उनका केवल और केवल पार्टी का हित सामने आता है। सरकार के सामने असुविधाएं न हो। इसके लिए वे ज्‍यादा परेशान रहते हैं। वे बड़े सरोकार के लिए शोध को बढ़ावा दे, यह सरकार की सोच में भी नहीं है। जब समाज में नहीं है तो सरकार में कहां से आएगा? जो लोग समाज में अपना वर्चस्‍व रखते हैं वही तो सरकार में जा रहे हैं। तो जाहिर सी बात है कि यह जो व्‍यवस्‍था है, उसके ही वे हिस्‍से हैं। उसी तरह से व्‍यवहार करते है। बहुत ही बुरा हाल है सरकार में। जिस तरह से कोई कंपनी अपने सामग्री के लिए काम कर रही है उसको बढ़ावा देने के लिए, उसी तरह से सरकार काम कर रही है। एक बड़ा दायरा जो होता है, सामाजिक दायरा उसका तो बिल्‍कुल अभाव है। सरकार में भी उसी तरह का दिखता है जिस तरह समाज में है।

अब कई शोध पत्रिकाएं निकलने लगी हैं। उनका स्‍तर कैसा है?
उत्‍तर: देखिए भारत में सच मानिए तो कोई शोध पत्रिका नहीं निकल रही है। शोध का जो मानक है, उसके हिसाब से तो, कोई निकलती हो। लेकिन बहुत के बारे में मेरे पास जानकारी नहीं है। कुछ के बारे में मुझे जानकारी मिलती रहती है। लेकिन जो मीडिया में हैं शोध की पत्रिकाएं लगभग नहीं है। कोशिश की जा रही है। कोशिश यह होनी चाहिए कि वास्‍तव में एक जन्नोमुखी शोध की पत्रिका मीडिया में विकसित हो। अब इसमें जितने लोग प्रयास कर रहे हैं उनको कितनी काययाबी मिलती है? समाज की स्‍वीकार्यता चाहिए। पूरा समाज तो स्‍वीकार नहीं करता है।अब चेतना का जो स्‍तर है हमारे यहां उसमें अभी थोड़ा सा वक्‍त लगेगा। लेकिन हो सकता है कि बन जाए। एक समूह तैयार हो गया समाज में तो समूह को एक संस्‍कृति के रूप में विकसित करने में फिर वह मुश्‍किल नहीं आएगी। समूह जो है वह संस्‍कृति का रूप ले लेगी।

मीडिया संस्‍थानों/विश्‍वविद्यालयों में कितना मौलिक शोध हो रहा है?
उत्‍तर: नहीं हो रहा है। बिल्‍कुल नहीं हो रहा है। मीडिया कहां से करेगा मौलिक शोध। बहुत ही जड़ किस्‍म के शोध हो रहे हैं। एक ही तरह के शोध सैकड़ों की संख्‍या में मिल जाएंगे। सोच में ही नहीं है। शोध का मायने ही बदला हुआ यहां दिमाग में। किसी व्‍यक्‍ति के बारे में जानकारी इक्‍कट्ठी कर लेना अब उसको हम शोध कहते हैं। एक ही व्‍यक्‍ति पर जो जानकारी इक्‍कट्ठे कर रहे हैं उसी को पचास तरीके से पेश कर दीजिए। उसको आप शोध कह रहे हैं। शोध कहीं दिखाई नहीं देता। शोधार्थी उसमें कहीं नहीं दिखता। संग्रहकर्ता शोधकर्ता नहीं हो सकता। अब हमारे यहां संग्रहकर्ता ही शोधकर्ता है। इससे भयानक बात और क्‍या हो सकती है? इससे बुरी बात क्‍या हो सकती है? संग्रहकर्ता को स्‍थापित कर रखा है समाज में। और वास्‍तविक जो शोध करने वाले लोग हैं, उनको रोक रखा है, विश्‍वविद्यालयों में जो जड़ किस्‍म के लोग बैठे हुए हैं। मैं समझता हूं कि विश्‍वविद्यालयों में कोई शोध नही हो रहा है। वास्‍तविक जो शोध है, वह तो बिल्‍कुल नहीं हो रहा है, जिसकी जरूरत ज्‍यादा है।

मीडिया में जाति विषय पर शोध-परिणाम समाज और सरकार के सामने आने के बाद मीडिया में क्‍या कोई बदलाव आया?
उत्‍तर: मीडिया में हमलोगों ने एक सर्वेक्षण किया था। सर्वेक्षण यह किया था कि मीडिया में जो काम करनेवाले लोग हैं। वे समाज के किस पृष्‍ठभूमि से आते हैं। हमारा समाज जाति आधारित समाज है।जातियों में बंटा हुआ समाज है। धर्मों में बंटा हुआ समाज है। इसमें हमलोगों ने जाति के आधार पर, धर्म के आधार पर और लिंग के आधार पर सर्वेक्षण किया। वे लोग जो काम करनेवाले हैं, वे किस-किस पृष्‍ठभूमि से आए हैं। इस तरह के सर्वेक्षण का एक मकसद यह होता है कि समाज का एक ढांचा जो समाज को बहुत प्रभावित करता है, समाज को जिस तरह से संचालित कर रहा है, उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि देखी जानी चाहिए। उसमें इन विविधताओं की वास्‍तविकता को सामने लाने में यह सर्वेक्षण सफल रहा। उसको लोगों ने सुना-समझा। ऐसे सर्वेक्षणों के जो दबाव होते हैं वह इसी रूप में होते हैं। यदि मीडिया में बदलाव की बात करेंगे तो बहुत कोई फर्क नहीं आया है। जो ढांचा दो ढाई हजार साल से चल रहा है,  वह एक सर्वेक्षण से नहीं हिल जाएगा ।तो हम यह समझते हैं कि कोई बहुत बदलाव नहीं आया। लेकिन एक बात जरूर है कि जिस तरह से इससे संदेश गया है, लोग जो सवाल खड़े करने लगे हैं उसका एक दबाव बन रहा है। जब दबाव बन रहा है तो अपना चेहरा दिखाने के लिए कि हम वह नहीं हैं, जो कि हमें यह बताया जा रहा है। उसको अब छिपाने की एक कवायद चल रही है। कई-कई जगह पर दिखाई दे रही हैं।

आपके शोध से कई नामी-गिरामी पत्रकारों का असली चेहरा सामने आया है। उनकी क्‍या प्रतिक्रिया होती है?
उत्‍तर: प्रतिक्रिया तो बहुत खराब थी। पहले तो यह कि सर्वेक्षण कर रहे थे तो कोई सहयोग करने को तैयार नहीं था। बहुत सारे लोगों ने नहीं किया। बहुत लोगों ने गालियां दीं। बहुत लोग आज भी नफरत की निगाह से देखते हैं। घृणा करते हैं। नाम सुनते हैं लगता है कि उनके कान में किसी ने तेल डाल दिया है। दिक्‍कतें होती हैं, दिक्‍कतें हुई। लेकिन समाज के लोगों के लिए काम करना होता है। वे लोग इस तरह की प्रतिक्रियाओं की परवाह नहीं करते हैं। समाज का जब जड़ ढांचा टूटता है तो वह बहुत तीखी प्रतिक्रिया करता है। उस तीखी प्रतिक्रिया को झेलने के लिए तैयार रहना पड़ता है। समाज तभी बन रहा है। समाज को बनाने किे लिए आपको ऐसी चीजों को झेलना पड़ता है।

मीडिया स्‍टडीज ग्रुप के शोध-कार्य का उद्देश्‍य क्‍या है?
उत्‍तर: मैंने और मेरे कुछ साथियों ने जब मीडिया स्‍टडीज ग्रूप को बनाया तो उसका उद्देश्‍य यही है कि इसका एक खास क्षेत्र में जो अभी जीवन को सबसे ज्‍यादा प्रभावित कर रहा है मीडिया, इसमें हम कुछ अध्‍ययन, कुछ सर्वेक्षण और कुछ शोध तो करें। समाज को मीडिया का जो वास्‍तविकता है, सम्‍प्रेषण की एक नई संस्‍कृति विकसित हो सके। इस तरह की हम कोशिश करना चाहते हैं और उसको कर रहे हैं। हमलोग चाहते हैं कि हम एक नया सिद्धांत पेश करें। सम्‍प्रेषण की एक नई संस्‍कृति विकसित हो सके। कितना कर पाएंगे। यह कहना मुश्‍किल है। समाज की जो व्‍यवस्‍था है वह हमारी सोच के विपरीत है। हमलोग जिन लोगों को ध्‍यान में रखकर काम कर रहे हैं, जिनकी स्‍थिति को ध्‍यान में रखकर हम यह सब काम कर रहे हैं, वही लोग अभी यह स्‍वीकार करने की स्‍थति में नहीं हैं। हम तो मान कर चल रहे हैं कि हम तो इतिहास के लिए काम कर रहे हैं। आज के लिए काम नहीं कर रहे हैं।इसीलिए हमलोग हत्‍तोसाहित नहीं होते हैं। हमलोगों को दिक्‍कत नहीं होती हैं, हमलोगों को परेशानी नहीं होती है। क्‍योंकि हमलोगों ने पहले ही मान लिया है कि हम इतिहास के लिए काम कर रहे हैं। हम वर्तमान के लिए काम नहीं कर रहे हैं।

इतने कम संसाधन में आप कैसे शोध-कार्य संपन्‍न करते हैं?
उत्‍तर: कोई संसाधन नहीं। अपना सरोकार है। अपना लक्ष्‍य एक तय कर रखा है। चूंकि जब आप वर्त्‍तमान के लिए काम करते हैं तो आप वर्तमान से अपेक्षा करते हैं। लेकिन हमलोग इतिहस के लिए काम कर रहे हैं तो जाहिर सी बात है कि वर्तमान में लोग आपको कम से कम मिलेंगे। जितना भी मिलता है हमलोग साधनों के अभाव में अपना काम नहीं रोकते हैं। हमलोगों ने अपने आपको ही साधन बना लिया है। जब अपने आपको एक साधन बना लिया, तो साधन की कमी क्‍या होगी।

भारत में मीडिया शोध को कैसे विकसित किया जा सकता है?
उत्‍तर: मीडिया के प्रति एक भक्‍ति भाव वाला माइंडसेट बना हुआ है। सबके प्रति भक्‍ति-भाव होता है हमारा। जब भक्‍ति भाव से आप नहीं निकलेंगे तब तक शोध के बारे में आप सोचेंगे कैसे। भक्‍ति वाले माइंडसेट पाठकों को भी निकालना होगा। दर्शकों को भी निकालना होगा। पत्रकारों को भी निकलना होगा। इसमें जो काम करने वाले लोग हैं। उनको भी निकालना पड़ेगा। ठहराव यहीं है दिमाग में। मानसिकता में।

मीडिया स्‍टडीज ग्रुप की भविष्‍य की क्‍या योजनाएं हैं?

मीडिया स्‍टडीज ग्रूप की तो बहुत सारी योजनाएं हैं। रोज हमलोग योजनाएं बनाते हैं। हमलोगों को लगता है कि यह भी जरूरी काम है। यह भी करना चाहिए, वह भी करना चाहिए। लेकिन हमने वही कहा कि हमारा एक छोटा-सा समूह है। इसमें हमलोग ने कुछ कुछ काम तय किया है। अब जैसे मान लिजिए हम दो जनरल ( पत्रिकाएं) निकालते हैं। इसके अलावा भी हमलोगों ने कुछ किताबें भी छापी हैं। लेकिन कुछ हमलोग की योजनाएं है कि बड़े समूह में बड़े दारये में काम करने की जो सोच है उसको हमलोग तोड़ें। छोटे-छोटे दायरे में असंख्‍य काम करें। हमारा समाज इतना विस्तृत है कि कोई भी एक बड़े काम में , देश और यह समाज समाहित नहीं हो सकते। तो हम असंख्‍य काम करना चाहते हैं। जिसमें सारा समाज आ जाए। हमलोग एक बड़ी योजना में लगे हुए हैं। देखिए, यह कितना कारगर हो पाता है। 
Post A Comment
  • Blogger Comment using Blogger
  • Facebook Comment using Facebook
  • Disqus Comment using Disqus

No comments :