कविता : चीखें (ओ होती हैं मेरी बहनें) -सुमित कुमार चौधरी
"चीखें"
आओ चलें
उस हवेली की ओर
जिनकी दीवारों से बाहर
आवाजें निकलती नहीं
गुम हो जाती हैं
ओ चीखें
छटपटा-छटपटा कर
तोड़ देती हैं दम
ओ होती हैं मेरी बहनें
उस हवेली के भीतर से
अक्सर आती हैं दो चीखें
दोनों चीखें होती हैं अपनी
फिर भी दोनों चीखों में
होता है फर्क
एक में छटपटाहट होती है
और
दूसरे में होती है घुटन
एक तुरंत दम तोड़ देती है
और
दूसरी घुटती रहती है जिंदगी भर
उस हवेली के भीतर
जिनकी दीवारों पर
शेरों का मुंड लटकता है।
-सुमित कुमार चौधरी
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली-110067
मो.9654829861
email : sumitchaudhary825@gmail.com
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