कविताएं - दलितवाद, एमएच 370 और बुद्धिजीवी: श्रद्धा यादव
1. दलितवाद
ब्राह्मणवाद की तरह
कुकुरमुत्ता-सा पनपने लगा है
दलितवाद
जहाँ निरंकुशता है जाति की
पहले बताओ जाति
फिर संवेदनाओं की बात होगी
जो न होगे तुम दलित
तो बांधो विचारों की पोटली
और खोजो कोई और खेत
जहाँ बीजो, पनपाओ
विचारों के बीज
तुम दलितों के लिए
अछूत
दलित और गैर-दलित की
साहित्यिक दुनिया में
दलितवाद की शक्ल में
इस नवब्राह्मणवाद की पैदाइश
चेताती है बार-बार
बुद्ध के शरणागत दलितों
संकीर्ण मत बनो
पनपों, फलो फूलो और फ़ैल जाओ
सभी नस्लों की नसों में
अमृत बनकर
विष पी कर
फूल खिलानेवाले हाथ
गालियों पर भी
मुस्कुरानेवाले होंठ
वज्र से भी कठोर
है जिन का शरीर
फूल से भी कोमल है
जिन का मन
सवर्णो की तरह नहीं
उनसे श्रेष्ठ हो तुम
घृणा पर बसे उनके साम्राज्य को
तोड़कर
बनाओ एक नया समाज
जिसमें कुकुरमुत्ता और गुलाब को मिले
एकसमान सम्मान।
गुमशुदा है आसमाँ में
या जमींदोज हो गया
या समा गया है चुपचाप
सागर की अतल गहराइयों में
आदमी अपनी ही खोज को
खोज रहा है यहाँ वहां
पूरे संसार में
कहीं नहीं मिला अब तक नामोनिशां
कितने अरमानों ने भरी थी उड़ान
आखिरी उस दिन
अगले पल से अनजान
हँसी ठिठोली में
बीत रहा था सफर
क्या जाने क्या हुआ
क्या घटा क्या बढ़ा
वह गुम कहाँ हुआ
अब तक नहीं आई खबर
चिंता नहीं टीन की छत
और फर्श की
चिंता है असंख्य
टिमटिमाती जिंदगियों की
जो रोज आती जाती हैं
वायु की गति से
जान हथेली पर लिए
घूमता है हर शख्स
सड़क पर, हवा में, पानी पर
साइकिल से लेकर हवाई जहाज तक
हर मानव अपनी ही खोज की गति पर सवार
जोखिम में डालता है
प्रतिपल अपने प्राण।
3. बुद्धिजीवी
सोचने को कुछ भी सोच सकते हैं
हवा पहाड़ पानी कोई बाधा नहीं
शीत घाम से परे पंछी-सी सोच
कभी इस फुनगी पर तो कभी उस पार
भटकती भटकाती बीहड़ों में रास्ता बनाती
कितनी हलकी लगती है सोचने में सोच
पर जब वही सोच थोड़ा सिमट जाती है
घर की ढ़हती दीवार और अपनों पर टिक जाती है
रोटी दाल की चिंता धीरे-धीरे गहराती है
प्रेम प्यार और कोमल कल्पनाएं विलीन हो जाती हैं
तब वही फूलसी हलकी सोच भारी हो जाती है
यह भारी सोच और भारी होती जाती है
जब पडोसी कान या घर बनता है
रिश्तेदार के घर जश्न मनता है
अपना बच्चा खुरचन के लिए तरसता है
तब मेरी सोच मुझे विद्रोही ब ना डालती है
चोरी डाके के सारे पाठ पढ़ा डालती है
तब मैं बाबू बनकर घूसखोरी करता हूँ
बनिया बनकर जमाखोरी करता हूँ
डाकू बनकर डकैती करता हूँ
नेता बनकर देश लूटता हूँ
सोच मुझे सब कुछ बना डालती है
कुछ नहीं बनाती तो अच्छा आदमी नहीं बनाती
इस अच्छे आदमी को जब
मैं सड़क पर रिक्शा खींचते देखता हूँ
पीठ पर बोझ उठाते देखता हूँ
तो आत्मग्लानि में शराब का ग्लास गटक जाता हूँ
तब जाके मैं सारी चिंताओं को गटक
अपनी सोच को हल्का बनाते हुए
वज़नी बातों का दम्भ भरनेवाला
बुद्धिजीवी कहलाता हूँ।
राजभाषा विभाग
गृहमंत्रालय, भारत सरकार
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