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कविताएं : नाविक का दुःख, पतझड़ और बंधुआ मजदूर -राजेश कुमार ‘माँझी’

पतझड़   
पेड़ों पर पतझड़ का मौसम, इस तरह से आया
कि टूटे पेड़ के पीले पत्ते, रह गई काली बेबस काया।

हृदय रूपी पेड़ के पत्ते, टूटकर ऐसे बिखर गए
कि हर राही थोड़ा-बहुत, घायल उनको कर गए।

उन्होंने प्रतिरोध में, कुछ नहीं कहा
अपनी पीड़ा को मौन रहकर, मन ही मन सहा।

हो गए पंछी उदास, इस पतझड़ के आने पर
लग लए कंठ पर ताले उनके, अब मधुगीत गाने पर।

अपना ही कलरव सुनने को, ये स्वप्न-संजोयी तरस गए
गगन पर उड़ने वाले अब, धूल में जाकर बरस गए।

रही नहीं प्रतीक्षा अब उनको, आखेटक के तीर की
अब बात कहॅंू मैं क्या उनके, इस असहनीय पीर की।

हे प्रभु कृपा करो, देवता वसंत के दया
इन मरणासन्नों को जीने का, दिखलाओ रास्ता तुम नया।

पुनर्जीवन की इच्छा, तुम आकर इनमें भर दो
सुप्त धमनियों में संचार, रक्त का आकर कर दो।

वृक्ष को उपहार स्वरूप, तुम हरियाली का दान दो
इक पंछी को नवजीवन में, गीत गाने का वरदान दो।


 बंधुआ मजदूर 

दिनभर ईंट पाथते हैं
गधे की पीठ पर
फिर ये कच्ची ईंट लादते हैं
गधे ये ईंट लेकर
आवे तक जाते हैं
उतारने में ईंट देर हुई तो
मालिक बौखलाते हैं।

वे मालिक हैं
ये मजदूर हैं
मालिक मोटर से आते हैं
मोटर से जाते हैं
और ये यहीं बेचारे
दिनभर धूल चाटते हैं।

ग्यारह नम्बर की सवारी करते हैं
मालिक से बहुत डरते हैं
ईंट पाथते-पकाते
ये भी खुद पकते हैं।

भोजन भी मिले न ढंग से
बंधुआ मजदूर हैं
क्या करें ये बेचारे
बहुत मजबूर हैं।

ज्यादातर हैं आदिवासी
रहते हैं कच्चे घरों में
जो चिमनी के पास ही
बने हुए होते हैं।

बावजूद इसके
पाथते हैं ईंट
हमारे लिए
हमारे घरों के लिए
बड़े ही परिश्रम से।

पर इनके मकान कच्चे हैं
इनके भी तो बच्चे हैं
सुख-सुविधा से कोसों दूर
पढ़ाई क्या
ईंट पाथना सीखते हैं
और इस तरह तैयार होता है
एक और बंधुआ मजदूर।


नाविक का दुःख 

रोज ले जाता है
लोगों को
इस पार से उस पार
अपनी नाव में
क्योंकि
यही उसका काम है
नाविक है, वह एक नाविक।

कुछ देते हैं पैसा उसे
कुछ करते हैं मनमानी
कुछ कहते हैं आते वक्त लेना
कुछ कहते हैं देंगे बाद में ।

बाद में ही देना था तो
क्यों चढ़ते हैं नाव में
चले जाते तैरकर
तो कितना अच्छा होता।

नदी गहरी है
कहीं डूब न जाएॅं
इसी डर से वे लोग सब
चढ़ते हैं रोज नाव में।

डूबने नहीं देता है नाविक
बिन पैसे के उन लोगों को
पार लगा ही देता है।

पर जाते-जाते वे लोग उसे
कुछ हद तक
डुबो ही जाते हैं।
-राजेश कुमार माँझी
हिंदी अधिकारी
जामिया मिलिया इस्‍लामिया





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