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कविता : मैं भी छपना चाहता हूँ -सुमित कुमार चौधरी

मैं भी छपना चाहता हूँ

मैं भी छपना चाहता हूँ
उस अमिट छाप की तरह
जो पुराकाल से छपे चले आ रहे हैं
शिलाखण्डों पर, ताम्रपत्रों पर और धर्मग्रंथो में।

मैं छपना चाहता हूँ
तुम्हारे उस कठोर हृदय में
जहाँ इंसानियत नाम की बू तक नहीं भनक्ति 
और बस जाती है क्षोभ और घृणा 
मट मैली हो जाती है वह पर्त
जहाँ मैं छपना चाहता हूँ।

तुम्हारे उस कठोर हृदय में
बड़े-बड़े धर्मग्रन्थ छप चुके हैं
बड़े-बड़े दंगे छप चुके हैं
बड़े-बड़े कवि छप चुके हैं
छप चुकी हैं बड़ी-बड़ी सरकारें
और हजारों नामों में से एक नाम
राजा-रानी और प्रेमी-प्रेमिका का भी है
लेकिन मैं क्यों नहीं?
मैं भी छपना चाहता हूँ
इन्हीं लोगों की तरह
जिससे मेरा भी इतिहास रहे। 


क्या मैंने धर्मग्रंथो का नाम लेकर
दंगों का नाम लेकर 
सरकारोँ का नाम लेकर
तुम्हारे हृदय को मरोड़ दिया है?
या फिर
मैंने किसी नरभक्षी की तरह
रुख अख़्तियार किया है
जिसको देख कर
तुम्हारे आंखों की पलके
हृदय का फाटक बंद हो जाता है 
और मैं नतमस्तक हो जाता हूँ मैं
बिना छपे ही
जीत जाता हूँ मैं
न छपने की विजय को लेकर
क्योंकि मैं छप चुका हूँ
तुम्हारे सीने में धड़कते हुए सांसो की तरह
मैं छप चुका हूँ 
तुम्हारे कठोर हृदय मेँ
दिन और रात की तरह।

-सुमित कुमार चौधरी
शोधार्थी
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
नई दिल्ली-110067
मोबाइल.9654829861
Sumitchaudhary825@gmail.com
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