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कविताएं: दलित नारी का सौन्दर्य, गेहूँ और कान की बाली तथा गरीबी जाति की -बाल गंगाधर ‘बाग़ी’

गरीबी जाति की


क्यों साहस को सियासत मार देती है
गरीबी जाति की कपड़े उतार लेती है
अकसर लोग रहते हैं भूखा व नंगा
जब इंसानियत को जाति बाँट देती है।

कितनी सभाओं में बेइज्जती सहता हूँ
बेबसी चेहरे की रौनक बिगाड़ देती है
बुलंद सीना मेरा खाई जैसे धँसता है
जातिय ऐंठ जबकुर्सी से गिरा देती है।

हमारे मुँह से निवाले, उस वक्त गिर जाते हैं
जब मेरे जीने कीरोटी नीलाम होती है
हमें नीच बन केहर वक्त रहना पड़ता है
क्योंकि लाठियाँ सवर्णों कीपगड़ी उतार लेती हैं।

हालात बदलने सेपानी का रंग बदला गया
पर जातिय गंदगी हमेंनाले में डाल देती है
बागी’ अगर जहर पीता, तो एक बार मरता
मगर नीचता की पीड़ा, हर रोज मार देती है।


दलित नारी का सौन्दर्य


झील-सा निर्मल तेरा चितवन, फूलों जैसी काया है
मलय समीर तेरा चंचल मनक्यों हसिया हाथ में आया है
सुमन की रंगत फूलों के संगतेरे रंग पसीने हैं
लट छितराए बिखरी भौंहे, नैनों के रंग पीले हैं।

सुर्ख लबों का रंग है सूखावीरां रेगिस्तानॊं-सी
ढूँढ रही विधवा-सी वहदुनिया रंग बहारों की
चातक जैसा धैर्य है उसका, अभिलाषा की वर्षा का
मिल जाए दो वक्त की रोटी, घर कपडा मेरे बच्चों का।

मेरे आँसू हिमालय की निकलतीनदियों जैसे हैं
मेरे अहसास भी जलती चिताओं जैसे हैं रोशन
यही है सिलसिला बद से मेरी बदहाल हालत की
ढलती शाम की मानिन्दबुझती शमाँ-सी रौशन।

गेंहू धान सरसो की डांठ काटती हूँ
भूँखें पेट बच्चों संग रात काटती हूँ
धूप ठंडी वर्षा की ध्यान छोड़ के
कभी बुन के सपनों के तार काटती हूँ।     

क्यों और अब तक हिसाब लोगे?
कब मुझे इसका जवाब दोगे?
बेबस कर लूटी इज्ज्त का
कब तक उजड़ा शबाब दोगे?

जब खो जाती पहचान यहाँ
अपनी धरती पर छाँव यहाँ
क्या मैं छुआछूत की जननी हूँ
ये दुनिया मुझे बताओ यहाँ।  

हर रोम है जलता सुलग-सुलग
जब लोग निहारें गाँव शहर
न मिले इज्जत मर्यादा से
मनुस्मृति की कटुता गाथा से!

दिन रात खटूँ मशीनों-सी
पेट पीठ की बन छाया
अपशब्द अभद्र व्यवहारों की
अपमानित जाति मेरी काया! 

रह-रह कर बादल सपनों का
नयनों की घटा बन जाता है
कभी तन्हाई, संग अपनो के
कभी ज्वाला में ढल जाता है!


गेहूँ और कान की बाली


गेंहूँ की बाली खेतों में, मन की डाली में डोल रहें
धूप छाँव के कंधों पे, हर रहस्य हैं अपना खोल रहें
बालाओं के कानों बाली, नज़रें कितनी हैं टटोल रहें
घर की बाली से खेतों तक, सवर्णों के मन डोल रहें।

पैदा घर की दहलीजों में, कितने काँटों के बींधों से
वो जवां हुई नज़रों में तड़प, कितने भौरों के सीने में
चलती है वह मटक जहाँ, दरिया जिसपे मनमानी है
बेकस कश्ती भौरों में तड़पती, उसकी यही कहानी है।

खाए हों थपेड़े मौसम के, बीज से बाली बनने तक
कितने ओझल दिन रैन हुए, बीज से रोटी बनने तक
कितनी दोपहर में नग्न खड़ी, सुनहरी, लाली के जैसे
क्यों? दूर हुई खलियानों से, घर जाती हुई सवर्णों के।

दोनों बाली की दशा एक, न घर मेरे रह पाती हैं
अपनी हाथों से निकल, लाचार हमें कर जाती हैं
दोनों पे मेहनत खर्च मेरे, कई ख्वाब बुन जाती हैं
अनन्त प्रश्न सवर्णों के, घर जा करके बन जाती है।
-बाल गंगाधरबाग़ी
शोधार्थी जे.एन.यू. नई दिल्ली
मो. 09718976402






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