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कविताएं: तुम्हारे सपने, देश और दरबारी कवि -सुमित कुमार चौधरी

तुम्हारे सपने

जब भी तुम्हारी आँखों में
झांककर देखता हूँ
तो नज़र आते हैं
वो तमाम सपने
समाज के लिए
देश के लिए
देश के उस पार के लिए
इसीलिए सोचता हूँ
तुम्हारी आँखों में
न देखूँ झांककर
बसा रहने दूँ
उन सपनों को
जहाँ मैं बसना चाहता हूँ
क्योंकि उन सपनों का
साकार होना ही
मेरा साकार होना है
मेरे समाज का साकार होना है
होना है साकार मेरे देश का
इसीलिए मैं नहीं बसना चाहता हूँ
तुम्हारी आँखों में
क्योंकि देखा है मैंने
हजारों आँखों में बसना
हज़ारों सपने टूटना
टूट कर न जुड़ना
और मिले हुए मौके को
बस कर आँखों में
चुरा लेना
सब सपनों को
और ढ़केल देना
उसी दम घोटू जीवन में
जहाँ से निकल कर
आई थी तुम
सपना साकार करने के लिए
समाज का, देश का
देश के पार का
इसीलिए जब भी मैं
तुम्हारी आँखों में झांककर देखता हूँ
तो नज़र आ जाते हैं
तुम्हारे वो तमाम सपने...

Photo: Sumit Chaudhary


देश

देश से बाहर जब भी जाता हूँ
तो अजीब-सा होता है मन
याद आने लगतें हैं
वो मिट्टी से पुती हुई 
दीवारों की सोंधी महक
खेतों का हरा मटर
पीलापन लिए हुए सरसों के फूल
और दुधहा गेहूँ की बाल
स्मृतियाँ याद दिलाती हैं
बाबा के बोल
मत तोड़ों अभी
दाना नहीं पड़ा है मटर में
दुधहा है गेहूँ की बाल
अचानक याद आ जाता है
बिना कँटीली तारों से घिरा हुआ देश
और देश पार के वे लोग
जिनका स्वभाव है अपने जैसा ही 
अपनी ही तरह है जिंदगी
देश के आर-पार
सूरज की लालिमा समान है
चाँद का उजास समान है
ऊँच-नीच का भेद समान है
स्त्रियों की लुटती हुई आबरू सामान है
बाबा जैसे व्यक्तियों की 
कमर लफी हुई समान है
समान हैं वो हज़ारों मतभेद
जो देश के इस पार है
फिर भी देश से बाहर जब भी जाता हूँ
तो अजीब सा होता है मन 
और सोचता हूँ 
न जाऊ देश के बाहर
बसा रहूं देश में ही
सोंधी महक के सहारे
दुधहा गेहूँ की बाल के सहारे
बाबा की स्मृतियों के सहारे
लेकिन जब भी सोचता हूँ ऐसा
तो याद आ जाता है 
बाबा की वो लफी हुई कमर
जवानी से बुढ़ापे तक
मालिक के बोझ से
इसीलिए देश से बाहर
चला जाता हूँ
ताकि आने वाली पीढ़ीयों की कमर न लफे
चाहे देश की हो
या देश के उस पार की

दरबारी कवि

कविता में कवियाना
जनता की बात दबाना
सरकार को बनाना
और पुरस्कार में लग जाना
यही होता है कवियाना
कवियाए थे कभी 
दरबारी सभा में बैठकर
जनता की हलाली करके
मोतियों की माला के ख़ातिर
और रच दिया था
नक-शिख वर्णन का महाग्रंथ
राज दरबारों में शिकुड़े हुए 
महाराजाओं के लिए
जो समझते थे
अपने शौर्य का प्रतीक 
शौर्य का प्रतीक था 
उनका दरबारों में लिपट जाना
देश को शक्तिशाली बनाना
और जीत जाने के बाद
अपनी पगड़ी को 
उनके सिर मढ़ देना
अपना शौर्य समझ कर
और जनता की रखवाली
हरमों में करवाना
यही था महाराजाओं का शौर्य
जिसमें था उनका गौर्य
जिसको कवि ने कावियाया
कविता में मान बढ़ाया
और कविता में
काविया-काविया कर
देश को भटकाया
जिसकी लंबी फेहरिस्त 
आज भी बनी है तान
यही है दरबारी संस्कृति की पहचान
गान सुनाने का
पुरस्कार के लिए गुनगुनाने का
महिमा-मंडित करके
महाकवि बन जाने का
ऐसा सपना
सफल हुआ है इतिहास में
जिसकी पहचान है आस में
तभी जुट गए हैं सभी
जनपथ के निवास में
कवियानें के लिए
जनता को भटकाने के लिए
उनकी तान में ध्यान मिलाने के लिए
और पुरुस्कार पाने के लिए।

-सुमित कुमार चौधरी
ग्राम-भुसौला अदाई
जिला-सिद्धार्थ नगर, 
उत्तर प्रदेश
शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
झेलम छात्रावास रूम न.236
मो. 9654829861
email: sumitchaudhary825@gmail.com
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