कविताएं: दौलत के दांत, जी.बी.रोड, उजास और अँधेरा तथा चलता जा रहा हूँ -सुमित कुमार चौधरी
दौलत के दांत
आज के इस दौर में
दौलत के दांतों से
नाखूनों के ख़ंजर से
और गुब्बारे के दिल से
मिलते हैं रिश्ते बड़ी मुश्किल से
नया हो गया है
रिश्तों का बुत
और ढ़ह गई है जाति की खाई
ले लिया है उसका स्थान
उपजाति ने
उपदौलत ने
उपधर्म ने
और लिया है स्थान उपदेश ने
क्योंकि बदलते हुए भूगोल का सपना
बदल नहीं सकता
सूरज का उगना टल नहीं सकता
हवाओं का बहना रुक नहीं सकता
रुक सकता है केवल और केवल
रिश्तों का बुत, रिश्तों का बुत
आज के इस दौर में
आज के इस दौर में।
आज के इस दौर में
दौलत के दांतों से
नाखूनों के ख़ंजर से
और गुब्बारे के दिल से
मिलते हैं रिश्ते बड़ी मुश्किल से
नया हो गया है
रिश्तों का बुत
और ढ़ह गई है जाति की खाई
ले लिया है उसका स्थान
उपजाति ने
उपदौलत ने
उपधर्म ने
और लिया है स्थान उपदेश ने
क्योंकि बदलते हुए भूगोल का सपना
बदल नहीं सकता
सूरज का उगना टल नहीं सकता
हवाओं का बहना रुक नहीं सकता
रुक सकता है केवल और केवल
रिश्तों का बुत, रिश्तों का बुत
आज के इस दौर में
आज के इस दौर में।
जी.बी.रोड
आज मैं जी.बी.रोड होना चाहती हूँ
इलाहबाद, महाराष्ट्र
और बंगाल होना चाहती हूँ
एशिया की सबसे बड़ी
बाज़ार होना चाहती हूँ
आज मैं तुम्हारी सरकार होना चाहती हूँ
जिससे हर कोई मंत्री
पाँच मिनट में बदल दे अपनी एंट्री
आज मैं संसद होना चाहती हूँ
समुद्र मंथन होना चाहती हूँ
मैं तुम्हारे किए की
हर वो बीज होना चाहती हूँ
जो फिर से कहे
आज भी मैं जी.बी.रोड होना चाहती हूँ।
आज मैं जी.बी.रोड होना चाहती हूँ
इलाहबाद, महाराष्ट्र
और बंगाल होना चाहती हूँ
एशिया की सबसे बड़ी
बाज़ार होना चाहती हूँ
आज मैं तुम्हारी सरकार होना चाहती हूँ
जिससे हर कोई मंत्री
पाँच मिनट में बदल दे अपनी एंट्री
आज मैं संसद होना चाहती हूँ
समुद्र मंथन होना चाहती हूँ
मैं तुम्हारे किए की
हर वो बीज होना चाहती हूँ
जो फिर से कहे
आज भी मैं जी.बी.रोड होना चाहती हूँ।
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उजास और अँधेरा
जब भी मैं
घर से निकलता हूँ अकेला
मेरे साथ रहता है
दिन का उजास
और
रात का अँधेरा
उसी के साथ फाँद जाता हूँ
करोंड़ों मील की दूरी
रात के अँधेरे में
और
दिन के उजास में
सोचता हूँ
दिन और रात के फासले को मिला दूँ
जिससे उजास का हर वो लम्हा
मुंह बाए खड़ी रहे
और
बोले, तुम्हारे फासले मिट गए हैं
मिट गई है
वह असभ्य संस्कृति
जो तुम्हारे साथ-साथ चलने से इतराती थी
लेकिन ऐसा कहाँ है?
आज भी तो हैं
वही फासले
संस्कृति के नाम पर
धर्म के नाम पर
जाति के नाम पर
पूँजी के नाम पर
इसीलिए जब भी मैं
घर से निकलता हूँ अकेला
मेरे साथ रहता है
दिन का उजास
और
रात का अँधेरा।
जब भी मैं
घर से निकलता हूँ अकेला
मेरे साथ रहता है
दिन का उजास
और
रात का अँधेरा
उसी के साथ फाँद जाता हूँ
करोंड़ों मील की दूरी
रात के अँधेरे में
और
दिन के उजास में
सोचता हूँ
दिन और रात के फासले को मिला दूँ
जिससे उजास का हर वो लम्हा
मुंह बाए खड़ी रहे
और
बोले, तुम्हारे फासले मिट गए हैं
मिट गई है
वह असभ्य संस्कृति
जो तुम्हारे साथ-साथ चलने से इतराती थी
लेकिन ऐसा कहाँ है?
आज भी तो हैं
वही फासले
संस्कृति के नाम पर
धर्म के नाम पर
जाति के नाम पर
पूँजी के नाम पर
इसीलिए जब भी मैं
घर से निकलता हूँ अकेला
मेरे साथ रहता है
दिन का उजास
और
रात का अँधेरा।
चलता जा रहा हूँ
इन हरे भरे पेड़ों के बीच
हूँ मैं अकेला
नहीं है कोई रहबर
जो ले सके हाल
हो गया हूँ मैं ठूठ-सा
पड़ गए हैं पोपले
जो चटक रहे हैं
अपनी सीमाओं को फाँद कर
धूल-धूसरित होने के लिए
लेकिन मैं जनता हूँ
मुझे रन्द कर लगा देंगे
झोपड़ियों में टेक की तरह
फिर भी लोग कहेंगे
इसका कोई मोल नहीं है
हमारे जीवन में
तब भी मैं खुश रहूँगा
अपनी साध लेकर
और टेक देता रहूँगा
उन हरे-भरे पेड़ों के बीच
जहाँ सब राग अलाप रहे हैं
स्वयं की, स्वयं के होने की
और मैं अकेला ही
चलता जा रहा हूँ
इन हरे-भरे पेड़ों के बीच
इन हरे-भरे पेड़ों के बीच।
इन हरे भरे पेड़ों के बीच
हूँ मैं अकेला
नहीं है कोई रहबर
जो ले सके हाल
हो गया हूँ मैं ठूठ-सा
पड़ गए हैं पोपले
जो चटक रहे हैं
अपनी सीमाओं को फाँद कर
धूल-धूसरित होने के लिए
लेकिन मैं जनता हूँ
मुझे रन्द कर लगा देंगे
झोपड़ियों में टेक की तरह
फिर भी लोग कहेंगे
इसका कोई मोल नहीं है
हमारे जीवन में
तब भी मैं खुश रहूँगा
अपनी साध लेकर
और टेक देता रहूँगा
उन हरे-भरे पेड़ों के बीच
जहाँ सब राग अलाप रहे हैं
स्वयं की, स्वयं के होने की
और मैं अकेला ही
चलता जा रहा हूँ
इन हरे-भरे पेड़ों के बीच
इन हरे-भरे पेड़ों के बीच।
ग्राम-भुसौला अदाई
जिला-सिद्धार्थ नगर
उत्तर प्रदेश
शोधार्थी- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
झेलम छात्रावास रूम न.236
मो. 9654829861
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