भारतीय समाज मूल रुप से महिला विरोधी रहा है: ललिता कुमारमंगलम
महिलाओं को मीडिया द्वारा न्याय दिलाने की मुहिम
पर मंथन
दिल्ली: दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई
कॉलेज द्वारा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से दो दिवसीय (14 - 15
नवम्बर, 2017) राष्ट्रीय संगोष्ठी की का आयोजन किया गया।
संगोष्ठी का विषय था- मीडिया, महिला और न्याय। संगोष्ठी में
देश भर से आये मीडिया विशेषज्ञ और कानूनविदों ने हिस्सा लिया। दो दिन तक चलने वाली
इस संगोष्ठी का उद्घाटन राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष ललिता कुमारमंगलम
ने किया और मुख्य अतिथि के रुप में मध्य प्रदेश और दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व
न्यायाधीश श्री एस एन अग्रवाल शामिल हुए। अपने उद्घाटन वक्तव्य में सुश्री
कुमारमंगलम ने कहा कि भारतीय समाज मूल रुप से महिला विरोधी रहा है। यहां महिलाओं
को पुरुषों के मुकाबले दो गुनी मेहनत करने के बावजूद वो दर्जा नहीं मिल पाता जिसकी
वह हकदार है। भारतीय संविधान ने महिलाओं की मुक्ति के लिए कई अनुच्छेद बनाये हैं
लेकिन प्रचलित सामाजिक कानून संवैधानिक प्रावधानों की राह के रोड़े बन जाते हैं।
हालांकि भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति सुधर रही है लेकिन इसकी गति बहुत धीमी
है। मुख्य अतिथि जस्टिश अग्रवाल ने कहा कि केवल कानून बनाने से स्थिति सुधरने वाली
नहीं है सुधार समाज के स्तर पर हो तभी स्थिति बदलेगी। बहुत सारे अपराधों के लिए
कानून बने हैं, उनके लिए सख्त सजा का भी प्रावधान है लेकिन
अपराधों के आंकड़े लगातार बढ़ ही रहे हैं। हालांकि जस्टिस अग्रवाल ने माना कि भारतीय
न्याय व्यवस्था का माहौल महिलाओं के अनुकूल नहीं है। संगोष्ठी के बीज वक्ता भारतीय
जनसंचार संस्थान के डायरेक्टर जनरल श्री के जी सुरेश ने मीडिया द्वारा महिलाओं को
न्याय दिलाने की मुहिम के बारे में बताया। श्री सुरेश ने कहा कि मीडिया में
महिलाओं का चित्रण उपभोग की वस्तु के रुप में हो रहा है। मीडिया की भाषा और उसके
विज्ञापन मूल रुप से स्त्री विरोधी हैं। सीमेंट का विज्ञापन हो या कार का विज्ञापन
हो हर जगह स्त्री की देह केंद्र में आ जाती है। दर्शकों को इन स्त्री विरोधी कार्यक्रमों
और विज्ञापनों का विरोध करना चाहिये।
विशिष्ठ अतिथि के रूप में इग्नू पत्रकारिता
विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर शम्भूनाथ सिंह ने कहा कि मीडिया संस्थानों में महिलाओं
की बहुत बड़ी कमी है शायद इसलिए भी वह महिलाओं को न्याय नहीं दिला पा रहा है।
प्रोफेसर सिंह ने कहा कि सारे मामले को अर्थव्यवस्था नियंत्रित कर रही है। इसलिए
मीडिया का भी मूल उद्देश्य अब मुनाफा कमाना है। इसलिए वह वही कार्यक्रम दिखा पढ़ा
रहा है जिनसे टीआरपी बढ़ रही है। अब आम जनता को भी एक नियम बनाना होगा कि वह महिला
विरोधी कार्यक्रमों और विज्ञापनों बहिष्कार करेंगे।
संगोष्ठी का प्रथम सत्र
भूमंडलीकरण, महिला और मीडिया पर केन्द्रित रहा। मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर कुमुद
शर्मा ने कहा कि भूमंडलीकरण ने मीडिया में महिलाओं को स्पेस दिलाया है वरना 1992 में जब दिल्ली में 'महिला पत्रकार क्लब' की शुरुआत हुई थी तब केवल 18 महिला पत्रकार ही पहली
बैठक में शामिल हो पाई थी। हम महिलाओं के पास आज भी हिन्दुस्तान समूह की संपादक
मृणाल पांडेय को छोड़कर मीडिया के क्षेत्र में गर्व करने वाला दूसरा नाम नहीं है।अब
भूमंडलीकरण ने मीडिया का क्षेत्र काफी बढ़ा
दिया है और उसमें महिलाओं के लिए भी पर्याप्त स्पेस है। लक्ष्मीबाई कॉलेज की
प्राचार्य डॉ प्रत्यूष वत्सला ने भी धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कहा कि भूमंडलीकरण की
प्रक्रिया के कारण महिलाएं बड़ी संख्या में घर की चौखट लांघकर बाहर निकल रही हैं।
भूमंडलीकरण ने महिलाओं को घर की चौखट लांघने के लिए एक तरफ तो प्रोत्साहित किया है
तो दूसरी तरफ उन्हें कमोडिटी भी बना दिया है। जैसे-जैसे महिलाएं घर से बाहर निकल
रही हैं और वे हर क्षेत्र में पुरुषों से प्रतिस्पर्धा कर रही हैं वैसे-वैसे हमारे
पुरुषवादी समाज के उनपर अपराध भी बढ़ रहे हैं। दूसरी तरफ कई सर्वे में भयानक आंकड़े
भी सामने आए कि महिलाओं पर अपराध करने वाले उनके अपनों की संख्या ही अधिक है। कुल
मिलाकर महिलाओं पर शारीरिक और मानसिक अपराध की संख्या भी लगातार बढ़ रही है।
संगोष्ठी के दूसरे सत्र
में मीडिया के सरोकार विषय पर बोलते हुए एनडीटीवी के पूर्व पत्रकार डॉ. स्वदेश
सिंह ने कहा कि वर्तमान मीडिया वैश्वीकरण की कोख से पैदा हुई है। वर्तमान मीडिया
ने आज़ादी के आंदोलन से प्राप्त मूल्यों को त्याग दिया है। आज की मीडिया ने मिशन को
त्यागकर मुनाफा को अपना लिया है इसलिए इसके सरोकार छूट गए हैं। डॉ. सिंह ने मीडिया
संस्थानों में महिलाओं की हिस्सेदारी पर देश और विदेश में हुए कई सर्वे से प्राप्त
आंकड़ों को रखा और कहा कि चूंकि न्यूज़ रूम में लैंगिक विविधता का अभाव है इसलिए
खबरों के मामले में भी मीडिया महिलाओं के लिए बहुत अधिक संवेदनशील नहीं है। हम मीडिया
क्रांति के दौर में जी रहे हैं इसलिए मीडिया से हमारी अपेक्षाएं भी आज कई गुना बढ़
गयी हैं। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता
विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अरुण कुमार भगत ने कहा कि महिलाओं पर अपराध के कई
मामलों में यह भी देखा गया है कि जिन
मामलों को मीडिया में जगह मिली उन मामलों में न्याय की आस भी जगी। उदाहरण के रुप
में दिल्ली का निर्भया कांड को लिया जा सकता है। ऐसे कई मामलों में यदि मीडिया ने
संजीदगी नहीं दिखाई होती तो शायद ही पीड़ित महिलाओं को न्याय मिल पाता। महिलाओं पर
अपराध की प्रकृति,
कारण और न्याय प्रक्रिया में मीडिया की भूमिका पर अध्ययन कर
संगोष्ठी की रिपोर्ट को भारत सरकार को भेजना चाहिए।
संगोष्ठी के दूसरे दिन का
प्रथम सत्र मीडिया में महिला विषय पर केन्द्रित था। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ
पत्रकार और जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रोफेसर गोविन्द सिंह ने की व वक्ता
के रूप में प्रसिद्ध साहित्यकार गीताश्री और बीबीसी की सरोज सिंह शामिल हुई। सत्र
की शुरुआत करते हुए सरोज सिंह ने मीडिया संस्थानों में महिलाओं की स्थिति पर अपने
अनुभव साझा किए। उन्होंने कहा कि मीडिया में महिलाओं का करियर बहुत कम दिनों का
होता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो और भी कम दिनों का उनका करियर होता है।
मीडिया संस्थानों को विवाहित महिलाएं नहीं चाहिए और बाल-बच्चेदार तो एकदम नहीं
चाहिए। उम्र बढ़ने के साथ ही महिलाओं को मीडिया संस्थानों की नौकरी छोड़ने के लिए
बाध्य कर दिया जाता है। गीताश्री ने कहा कि भूमंडलीकरण ने मीडिया संस्थानों को
महिलाओं के लिए अपने दरवाजे खोलने के लिए बाध्य किया। लेकिन पुरूषवादी मानसिकता के
कारण मीडिया संस्थानों ने अपने दरवाजे इस तरह से खोले जैसे किसी अजनबी के दरवाजा
खटखटाने पर लोग अमूमन खोलते हैं। दरवाजा थोड़ा सा खुला और हम जैसी महिलाएं धक्के
देकर अन्दर प्रवेश कर गयीं। लेकिन अंदर का माहौल भी महिला विरोधी ही पाया। आमतौर
पर महिलाओं को 'सॉफ्ट स्टोरी' करने के लिए दिया जाता है। आज भी
राजनीतिक पत्रकार के रूप में नाम लेने के लिए हमारे पास एक आध महिलाओं के ही नाम
हैं। भूमंडलीकरण ने मीडिया संस्थानों में महिलाओं की जगह बढ़ाई है लेकिन पुरुषवादी
मानसिकता से नियंत्रित होने के कारण वे अपना स्वाभाविक विकास नहीं कर पा रही हैं।
संगोष्ठी का चौथा सत्र 'महिला,
मीडिया और न्याय' विषय पर केंद्रित रहा। इस
सत्र में आजतक के पूर्व समाचार संपादक कमर वहीद नकवी और सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता
ऐश्वर्या भाटी ने अपने विचार रखे। सत्र को लक्ष्मीबाई कॉलेज के असिस्टेन्ट
प्रोफेसर डॉ. अरुण कुमार ने मोडरेट किया। ऐश्वर्या भाटी ने भारतीय न्याय व्यवस्था
की उन कमजोरियों को उजागर किया जिनके कारण महिलाओं को न्याय नहीं मिल पाता।
उन्होंने यह भी बताया की सुप्रीम कोर्ट के अंदर का माहौल भी महिलाओं के अनुकूल
नहीं है। कभी-कभी वरिष्ठ न्यायाधीश भी महिला वकील से पुरुषवादी सोच के साथ मिलते
हैं। उन्होंने आगे बताया कि महिलाओं पर अपराध की जब कोई घटना मीडिया में सुर्खियां पा जाता है तो सुप्रीम
कोर्ट भी दबाव में आ जाता है। इधर के वर्षों में घटित कई घटनाओं का हम जिक्र कर
सकते हैं जिन्हें मीडिया ने उछाला और परिणामतः न्यायालय ने स्वतः संज्ञान में लेकर
कार्रवाई की आज अपराधी सजा काट रहे हैं। आसाराम, मनु शर्मा,
राम-रहीम जैसे लोग मीडिया के कारण ही जेल में हैं।
क़मर वहीद नकवी ने
अपने वक्तव्य में भूमंडलीकरण के दौर की मीडिया की बारीकियों को समझाया। उन्होंने
कहा कि सारा खेल टीआरपी का है। मीडिया वही दिखाता है जो हम देखना चाहते है। किसी
कार्यक्रम को जीतने अधिक लोग देखेंगे उसकी टीआरपी उतनी अधिक बढ़ेगी, उसको उतने ही अधिक विज्ञापन मिलेंगे और उसका मुनाफा उतना ही अधिक बढ़ेगा।
आम जनता चूंकि सनसनी फैलाने वाले कार्यक्रमों को अधिक देखती है इसलिए मीडिया उसी
तरह की कार्यक्रमों का प्रसारण अधिक करता है। उन्होंने अभिनेता गोविंदा के परिवार
की सड़क दुर्घटना का उदाहरण देते हुए बताया
कि उस दिन शाम तक सारे चैनल इसी घटना को बार-बार दिखा रहे थे। शाम को मैंने ऊबकर
दूसरी खबर चलाने का आदेश दे दिया लेकिन अन्य चैनल यही खबर दिखाते रहे। अगले सप्ताह
जब टीआरपी के आंकड़े आये तो हमारा चैनल नम्बर दो पर आ गया और गोविंदा के परिवार की
दुर्घटना की खबर रात तक चलाने वाला चैनल टीआरपी के मामले में नम्बर एक पर आ गया।
बाद में संपादकीय बोर्ड की बैठक हुई जिसमें यह निर्णय लिया गया कि जब तक सभी बने
रहें हमें भी बने रहना चाहिए। संगोष्ठी में भारत के कई विश्वविद्यालयों के
प्राध्यापकों ने शोध-पत्र भी प्रस्तुत किये।धन्यवाद ज्ञापन संगोष्ठी की संयोजक
प्रमिला ने दिया।
-डॉ. अरुण कुमार
असिस्टेन्ट प्रोफेसर
लक्ष्मीबाई कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय।
8178055172
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