सामाजिक गलियारों से गुजरता हिन्दी सिनेमा: अमित
भारतीय सिनेमा का सफर समय-समय पर परिवर्तित होता रहा है। यह परिवर्तन भाषा, कथावस्तु और प्रस्तुति (या शैली) पर साफतौर पर नजर आता है। हिंदी सिनेमा में इस परिवर्तन के मुख्य कारण पर गौर किया जाये तो यह परिवर्तन बदलती हुई भारतीय राजनीति, सामाजिक परिदृश्य और निरंतर बदलती हुई तकनीकी है। इसका उदाहरण दादा साहब फाल्के द्वारा पहली हिंदी मूक फिल्म ”राजा हरिश्चन्द्र“ है। जो चलचित्र के रुप में अंकित हुई। इसके बाद तकनीकी परिवर्तन हुआ और 1931 में भारत की प्रथम बोलती फिल्म ”आलमआरा“ बनी। तत्पश्चात एक-एक करके नये परिवर्तन भारतीय हिंदी सिनेमा में आये जिसने अनेक अच्छी फिल्में भारतीय समाज को दी।
अगर हम सिनेमा की बात करें तो सिनेमा फ्रांस की देन है। स्थिर छाया-चित्र कैमरे ( ेजपसस चीवजवहतंची बंउमतंद्ध के अविष्कार के बाद हुआ। धीरे-धीरे यह पूरे विश्व में विस्तार पाने लगा। ” अथक प्रयासों से सिनेमा का विस्तार विश्व के कई देशों में होने लगा। यूरोप और अमेरिकी देशों से होता हुआ, उन्हीं दिनों सिनेमा भारत भी पहुंचा जहां 7 जुलाई, 1896 के दिन, तात्कालिक बम्बई शहर के वाॅटसन होटल में इसका अद्भुत प्रभाव आमन्त्रित दर्शकों ने महसूस किया।“1 जहां तक भारतीय सिनेमा पर विचार करें तो सिनेमा को हम कला से जोड़कर देख सकते हैं। कला मनुष्य की सृजनात्मक सोच एवं उसकी चेतना के विकास से परस्पर सीधे जुड़ती है। कला के किसी भी अंग या विधा का जन्म अनायास या यूं कहें कि अचानक नहीं हो जाता। यह एक सूक्ष्म प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे विकास की ओर बढ़ता है। ”सिनेमा कला का आधुनिकतम रुप है। सिनेमा कला का वह सशक्त माध्यम है जो अपने दर्शकों को किसी खास विषय-वस्तु पर आधारित कथा को दिखाता है, बताता है और मनोरंजन करते हुए दर्शकों के हृदयों में गहरे उतर जाने की अभूतपूर्व क्षमता रखता है। सिनेमा, कहानी कहने का एक प्रभावशाली माध्यम है। अन्य कई कलाओं की तरह सिनेमा भी देश काल, सामाजिक संरचना और व्यक्ति की समस्याओं से सीधा जुड़ा रहता है।“2
हिंदी सिनेमा के अंतर्गत समाज की छोटी-बड़ी सभी समस्याओं को केन्द्र में लिया जाता है। इसकी पटकथा मुख्यतः समाज से जुड़ी समस्याओं पर ही केन्द्रित रहती है। समाज में व्याप्त कुरीतियों, बुराईयों, धार्मिक और जातिगत भेद-भावों, राजनीति इत्यादि से जुड़ी सिनेमा हमारे समाज में देखने को मिलती हैं।
हिंदी सिनेमा ने समाज की जिस समस्या पर ध्यान केन्द्रित किया। वह नारी स्वतंत्रता, समाज में नारी की स्थिति। हिंदी सिनेमा में शुरुआती दौर से ही नारी के शोषण पर केन्द्रित फिल्में बनीं। कुछ मील का पत्थर बनी तो कुछ कंर्टोवर्सी का शिकार हुई। पुरानी फिल्मों को छोड़कर अगर हम नब्बे की दशक की फिल्मों की बात करें तो “बैंडेटक्वीन” एक निम्न जाति महिला की कहानी है, जिसमें बचपन से लेकर जवानी तक और घर से लेकर राजनीति तक का धिनौना रुप हमारे सामने आता है। “लज्जा” जैसी फिल्म उच्च जाति एवं निम्न जाति दोनों में ही स्त्री शोषण के अनेकों क्रूर रुप हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। “नो वन किल जैसिका” जैसी फिल्में नौकरी पेशा महिलाँ कहीं सुरक्षित नहीं है, इसका द्योतक है। स्त्रियों पर अत्याचार की घटनाएँ लगातार हमारे समाज में बढ़ रही है। दहेज न देने पर बहु को जिंदा जलाना, औरतों और बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं, सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के साथ होने वाले दुव्र्यवहार, यह स्पष्ट करते हैं कि वह समाज में कितनी असुरक्षित है। “जातिवाद, साम्प्रदायिकता, धार्मिक तत्ववाद, भाषायी वैमनस्य, अंध क्षेत्रीयतावाद और पिछड़ी जातियों के प्रति विद्वेष कभी-कभी भयावह रुप में विस्फोटित होती है और उसका शिकार निर्दोष औरतों को होना पड़ता है।”3 ऐसा नहीं की मात्र शोषण दिखाना ही सिनेमा का काम है अपितु नारी को सशक्त बनाना भी इनका उद्देश्य है। हिंदी सिनेमा में बार-बार फिल्म शुरु होने से पहले एक बात लिखी दिखाई जाती है कि इस फिल्म की घटना काल्पनिक है इसका असली जिंदगी से कोई संबंध नहीं है और यदि कोई समानता दिख जाये तो ये मात्र संयोग होगा। इसका सशक्त उदाहरण है “भूमिका” फिल्म की उषा (स्मिता पाटिल) और “जुबैदा” की नायिका “करिश्मा कपूर“। इन दोनों का संबंध सचमुच के पात्रों से हैं। ”वे कल्पित स्त्रिया नहीं हैं। हांड़-माँस की सोचने-समझने-लड़ने वाली स्त्रियाँ हैं। उषा ने हंसा वाडकर नाम की अभिनेत्री की आत्मकथा से जन्म लिया तो ’जुबैदा’ कहानीकार खालिद मोहम्मद की अपनी माँ की कहानी से प्रेरित है।”4 इसी तरह फिल्म ’वाॅटर’ में विधवा विवाह या पुर्नविवाह की समस्या को केन्द्र में रखा गया है। वह समाज की कल्पित कथाएँ न होकर हमारे समाज की सच्चाई को इंगित करता है।
हिंदी सिनेमा ने समाज में चली आ रही सामंती व्यवस्था की भी धज्जियां हमेशा उड़ायी है। इसके साथ ही अच्छे सामन्तों का समाज में योगदान भी दर्शाया है। फिल्में सामंती इतिहास को कलात्मक रुप से हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। “पूंजीवाद के उदय के साथ-साथ सामंतवाद का अन्त निश्चित है और उसकी मृत्यु के कारण स्वयं उसके अस्तित्व में निहित है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पूंजीपति वर्ग की बढ़ती शक्ति व्यापक पैमाने पर होने वाले उद्योगीकरण में व्यक्त हुई है। लेकिन विकास की यह प्रक्रिया सभी के लिए समान रुप में सुखद नहीं थी।”5
सामंती व्यवस्था से शोषित वर्ग में नारी और निम्न वर्ग आते हैं। स्त्री और निम्न वर्ग की दशा हमारे समाज में बहुत सोचनीय है और ऐसी समस्या को केन्द्र में हिंदी सिनेमा ने शुरुआत से ही रखा हुआ है। “भारतीय समाज का सामंती ढांचा संश्लिष्ट जातिवादी संगठन पर आधारित है और जिसे तोड़ने में वह असफल रहा है। कुलीनता और रक्त की श्रेष्ठता का भाव उसका सहज परिणाम है। इसीलिए फिल्में भले ही सीधे-सीधे जातिगत आधारों का उपयोग न करती हों लेकिन लोगों की जातिगत धारणाओं को पुष्ट करने में मदद पहुंचाती है।”6 मगर अब सामंत वर्ग द्वारा शोषित नारी व निम्न वर्ग फिल्मों के माध्यम से अपनी आवाज हर व्यक्ति, समूह व विश्व स्तर पर उठा रहे हैं। 2013 में आयी फिल्म ’विक्की बहल वर्सेस वूमेन’ में साफतौर पर यह दर्शाया गया हैै कि स्त्री चाहें कितनी भी भावुक हो पर वक्त पड़ने पर वह अपनी भावनाओं का दमन कर प्रतिशोध, और अपने हक के लिए किसी से भी, कैसे भी टकरा सकती है।
हिंदी सिनेमा ने राजनीति के अंदर व्याप्त बुराईयों का भी पर्दाफाश किया है। चाहे वो 80 के दशक में आई फिल्म ’आंधी’ हो या फिर ’राजनीति’, ’सरकार’, ’बाॅम्बे’, ’आरक्षण’ और ’भूतनाथ रिटर्न’ आदि ऐसी अनंत फिल्में हैं जो दूषित राजनीति को प्रदर्शित करती हैं। यह फिल्में नेताओं द्वारा जनता का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप से शोषण की घटनाओं व तरीकों को पेश करती हैं। हिंदी सिनेमा में राजनीति हमेशा से ही उसके मूल में मुख्य मुद्दा बनकर रही है। हमारा समाज इस राजनीति उठा-पटक से कभी भी पृथक नहीं रहा। समाज में होने वाली हर राजनीतिक घटना कहीं न कहीं फिल्मों के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचती है। चाहे वो घोटाले हो, भ्रष्टाचार हो, आम जन का शोषण हो या फिर जनता को नजर अंदाज करना। इतना ही नहीं राजनीति में चलने वाले बाहुबल व महिलाओं को भोग्या समझ कर शोषण करना हो। इन सभी को हमारी फिल्में बखूबी पर्दे पर उतारती हैं।
आज का हिंदी सिनेमा समाज की बड़ी समस्याओं को न उठाकर उसकी छोटी-छोटी समस्याओं को विषयवस्तु बना रहा है। फिलहाल में आई अभिषेक बच्चन द्वारा अभिनीत फिल्म ’रावण’ में नक्सलियों की परेशानियों को दर्शाया गया है कि कोई व्यक्ति ऐसे ही बिना वजह खाकी वर्दी या राजनेताओं से चिढ़ नहीं जाता। उनसे प्रतिशोध लेने की आग उनके सीने में यूं ही नहीं भड़कती बल्कि यह राजनीति, न्यायव्यवस्था उन पर अत्याचार करती ह,ै जिसके फलस्वरुप वह बागी बन जाते है। वह भी अच्छी जिंदगी चाहते हैं। मगर ऐसा नहीं हो पाता। वहीं दूसरी ओर फिल्म की नायिका को सीता की भांति अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है। वर्तमान में भी पुरुषवादी समाज में कोई परिवर्तन नहीं आया है यह इस बात का द्योतक है कि समाज में कभी भी नारी की स्थितियों व सोच को लेकर परिवर्तन न तो हुआ है और न ही होने की कोई सकारात्मक सोच दिखाई दे रही है। महिला या तो प्रताड़ित है या फिर शोषित और जो इन दोनों में सें कुछ नहीं वह अपने हक के लिए लड़ती है, तो वह समाज की नज़रों में गलत है।
हिंदी सिनेमा में जाति को लेकर बहुत फिल्में बनीं जिसमें जाति के नाम पर समाज में हो रहे शोषण को दिखाया गया है। जाति प्रथा हमारे भारतीय समाज के लिए अभिशाप है। जातिवादी विद्वेष और ऊंच-नींच की भावना हमारे समाज में गहरे तक जड़ जमाये हुए है। वर्ण व्यवस्था के कारण हमारा हिंदू समाज का जो वर्ग, समाज के संसाधनों से वंचित वर्गो को मामूली-सी भागीदारी देने को भी तैयार नहीं हैं। जाति व्यवस्था हमारे समाज में इतनी गहरे पैंठ बनाये है कि उसमें साम्यता लाने का शायद ही कोई साधन हमारे पास है। हाल ही में आयी ’क्षुद्र’ फिल्म में ’दलित वर्ग’ की दुःखती रग को प्राचीन समय से उठाया और हमारे सामने इस वर्ग पर हुए शोषण, सामाजिक बहिष्कार और उनकी सामाजिक स्थिति पर अनेकों सवाल खड़े करते हैं कि क्या समाज में उनके लिए कोई जगह जिसमें वह खुद को सुरक्षित समझें। उनकी स्थिति भी बहुत सोचनीय है। “दलितों की बस्तियां जला देना, निम्न जाति की औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार, उच्च जाति के मोहल्लों से बारात निकालने का साहस करने पर उन्हें सामूहिक रुप से दंडित करना, उच्च जाति की लड़की से प्रेम करने पर खुले आम फांसी देना, यह इक्कीसवीं सदी की ओर जाते भारत का यथार्थ है।“7 हिंदी सिनेमा में इसकी मात्र झलक भर दिखती है। अगर जाति प्रथा के प्रति दृष्टिकोण अवश्य नजर आता है।
हिंदी सिनेमा में प्रेम जैसे जातिगत समस्या को समय-समय पर उठाया गया है। चाहे ’बाॅबी’ हो ’जूली’ हो या अन्य कोई भी फिल्म सब समाज में व्याप्त प्रेम की भावना को दिखाती है। “हिंदी फिल्मों में प्रेम कथा अवश्य होती है। कई बार वह फिल्म की मूल थीम होता है तो कई बार महत्वपूर्ण प्रसंग जो कथा को आगे बढ़ाने में मददगार होता है। प्रेम कहानी में रोचकता के लिए यह जरुरी है कि नायक-नायिका के मिलन में कोई अड़चन पैदा हो। इसके लिए संघर्ष की स्थितियाँ पैदा की जाती हैं। खलनायक-खलनायिका, पारिवारिक विद्वेष भाग्य का दुष्चक्र जैसे फिल्मी फार्मूलों के अलावा धर्म, धन, भाषा जैसे प्रसंगों का इस्तेमाल किया जाता है।”8 हाल ही में फिल्म ’टू स्टे्टस’ में भी प्रेम प्रसंग को दर्शाया है जिसमें भाषा, वर्ण, रंगभेद और दो राज्यों को लेकर भेदभाव दिखाया है। जिसमें संघर्ष के उपरान्त जीत प्रेम की ही होती है। प्रेम के लिए सूफी के प्रसिद्ध कवि जायसी ने अपनी कृति पद्मावत में कहां है कि-“मानुष प्रेम भयौ बैकुण्ठी।” की प्रेम बैकुण्ठ के समान है। हिंदी सिनेमा ने हिन्दी-मुस्लिम एकता की भावना को भी बार-बार प्रेश्रय देने का सफल प्रयास किया है। ’वीर-जारा’ फिल्म में शाहरुख व प्रीति जिंटा के माध्यम से दर्शाया गया है कि प्रेम सीमाएं नहीं जानता। वह नहीं जानता कि भारत और पाकिस्तान की सीमा क्या है। वह तो जानता है कि प्रेम की ना कोई सीमा है ना रेखा। इसी प्रकार फिल्म ’इश्कजादे’ में प्रेम और दूषित राजनीति को दिखाया गया है कि इनके चलते कैसे दो लोग अपने बहुमूल्य जीवन से हाथ धो बैठते हैं। ’गदर’ फिल्म में प्रेम की पराकाष्ठा और अपने देशप्रेम को दिखाने का सफल प्रयास किया गया है।
हिंदी सिनेमा ने पारिवारिक विघटन की समस्या पर भी अनेक केन्द्रित फिल्में बनायी हैं कुछ साल पहले बनी ’बागवान’ इसका सफल उदाहरण हैं जिसमें एक पिता की व्यथा को निर्देशक ने बहुत खुबी से प्रस्तुत किया है। विवाह, अनमेल विवाह इत्यादि पर भी साहित्य आधारित फिल्में भी खुब बनी है। परन्तु आज के युवक दांम्पत्य जीवन में बंधने से कतराते हैं। ’शुद्ध देसी रोमांस’ भी कुछ इसी प्रकार की हिंदी फिल्म है। जिसमें सुशांत सिंह राजपूत और परिणिति चोपडा एक-दुसरे से प्रेम तो करते हैं मगर विवाह जैसे सामाजिक बंधन से परहेज करते हैं। यह हमारे समाज का परिवर्तित रुप ही है, जिसने विवाह जैसी संस्था को दो लोगों परिवारों का केन्द्र बना रखा है। नारी और पुरुष के बदलते संबंध समाज में एक गैप पैदा कर रहे हैं। मगर यह ध्यान देने की बात है कि दो लोगों का साथ में रहना या ना रहना उन दोनों पर निर्भर करता है ना कि जबरदस्ती ऐसा कराया जाना चाहिए।
हिंदी सिनेमा ने शिक्षा की समस्या को भी उठाया है कि किस प्रकार हमारे समाज में शिक्षा स्तर घट रहा है और उसमें बच्चे को जिस विषय में रुचि है उसे उसी में आगे बढ़ाया जाये तो वह अच्छा नागरिक होने के साथ ही अपने मन का विषय चुनकर सफल हो सकता है। इसका उदाहरण आमिर की फिल्म ’तारे जमीन पर’ में कला से संबंधित शिक्षा को दिखाया है। जिस बच्चे को पढ़ने व लिखने में अक्षरों को पहचानने में समस्या होती है। वहीं वह बच्चा कला को इतनी बारीकी से देखता है और समझता है। यहाँ अध्यापक का बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिखाया गया है। वह बालक क्रियात्मक व सृजनात्मक, संवेणात्मक है। शिक्षा एवं शिक्षा संस्थान को लेकर बनी फिल्म ’थ्री इडियट’ में शिक्षा की उन खामियों को दर्शाया गया है। जहाँ मानसिक दबाव के चलते विद्यार्थी आत्महत्या करने से भी नहीं कतराते। उन्हें जीवन में पढ़ाई प्रारंभ रखने से आसान मौत को गले लगाना लगता है। आज शिक्षण संस्थानों में छात्रों के ऊपर पढ़ाई का अतिरिक्त बोझ डालकर मानव का मशीनीकरण किया जा रहा है।
हिंदी सिनेमा समाज में खेल को भी बढ़ावा देने का कार्य करता है और खेल मंत्रालय, खेल समितियाँ इत्यादि की खामियाँ भी सिनेमा के माध्यम से हमारे सामने रखता है। इसके उदाहरण शाहरुख की फिल्म ’चक दे इंडिया’ बाक्सिंग पर बनी मैरीकाॅम की जीवनी पर आधारित फिल्म ’मैरिकाॅम’ है। जिसने खिलाड़ियों को एक नयी दिशा के साथ ही खेल जगत में होने वाली समस्याओं से भी रुबरु कराया है।
हिंदी सिनेमा ने समाज को बहुत कुछ दिया है तो समाज की अनेक बुराईयों को दूर करने का निरंतर प्रयास और सुझाव भी प्रस्तुत किया है। जहाँ एक और आज का हिंदी सिनेमा सामाजिक मुद्दों को उठाता है, तो वहीं कुछ ऐसी फिल्में भी प्रस्तुत करता है। जिसका न कोई सिर है न पैर। जहाँ तक नारी परिधानों की बात है तो गलत उनके पहनने में नहीं हमारी दृष्टि में है, वो तो समाज में व्याप्त वस्तुतः दृष्टिकोण को बदलना चाहते हैं। आज हिंदी सिनेमा प्रत्येक व्यक्ति से किसी न किसी प्रकार से जुड़ा हुआ है। सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जो समाज का सजीव चित्रण हमारे सामने प्रस्तुत करता है। यह समाज के एक पक्ष को नहीं अपितु समाज के प्रत्येक पक्ष को छूता है और उजागर करता है। इसमें एक पक्ष हमारा ग्रामीण समाज है, जो रोजगार के लिए शहरों की तरफ अपना रुख कर रहे हैं। इसका बहुत सुंदर चित्रण हमारे हिंदी सिनेमा में हुआ है। यह कहने में बिल्कुल परहेज नहीं है कि सच में “भारत की आत्मा गांवों में बसती है।” इसलिए हिंदी सिनेमा ने गाँवों की छोटी-छोटी समस्याओं को प्रस्तुत किया है। अंततः यह कहना उचित होगा कि हिंदी सिनेमा और समाज एक-दूसरे के पूरक है। समय के साथ कदम मिलाकर बढ़ना ही प्रगति है। आज का जीवन कल का साहित्य है, और यही कल का साहित्य हमारा हिंदी सिनेमा है। हिंदी सिनेमा में यथार्थ की समस्याओं से जुड़े प्रश्न उनका निवारण और अंत सब कुछ तीन घण्टे की एक फिल्म में हम देख लेते हैं। मगर मात्र मनोरंजन समझ कर हम इसे भूल भी जाते हैं। हिंदी सिनेमा समाज की वर्तमान स्थिति व ज्वलंत समस्याओं पर भी फिल्मांकन कर रहा है। मगर यह तभी सफल होगा जब लोग फिल्मों की सकारात्मक बातों को ग्रहण करें और नकारात्मक विचारों की और आकृष्ट न हों। निर्देशक, निर्माता और इनकी पूरी संस्था को भी यह सोचना होगा कि हम समाज को क्या दे रहे हैं। कहीं हमारे द्वारा प्रदर्शित फिल्म समाज पर गलत प्रभाव तो नहीं डाल रही हैं अगर ऐसा है तो बहुत सतर्कता के साथ हिंदी सिनेमा जगत को आगे बढ़ना चाहिए।
संदर्भ
1‐सिन्हा प्रसून, भारतीय सिनेमा‐‐‐‐एक अनंत यात्रा-पेज 18, श्री नटराज प्रकाशन,दिल्ली
2‐वही, पृ- 15
3‐पारख जवरीमल्ल, लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ, पृ-142
4‐ भारद्वाज विनोद, सिनेमा कल, आज, कल, पेज 432, वाण्ी प्रकाशन, दिल्ली
5‐पारख जवरीमल्ल, लोकप्रिय सिनेमा और सामाजिक यथार्थ,पृ-48, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्राइवेट लिमिटेड, दरियागंज, 2001
6‐वही पृ-115
7‐वही पृ-112
8‐वही पृ-115
सहायक ग्रंथ
1. भारद्वाज विनोद, नया सिनेमा, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्र‐सं‐ 1985
2. मिश्र गिरिश, बाजार और समाज, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, प्र‐सं‐ 2009
3. रजा डा‐ राही मासूम, सिनेमा और संस्कृति, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्र‐सं‐ 2001
4. प्रो‐ प्रसाद कमला, फिल्म का सौंदर्यशास्त्र और भारतीय सिनेमा, शिल्पायन प्रकाशन,
दिल्ली, प्र‐सं‐ 2010
-अमित
शोधार्थी
हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली।
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