स्त्री विमर्श की दृष्टि से रघुवीर सहाय की कविता का अध्ययन: दिनेश कुमार यादव
साहित्य
को समाज का दर्पण कहा जाता है। साहित्य एक-दूसरे के दुःख में दुःखी होना और एक-दूसरे
के सुख में सुखी होना सिखाता है। वह संपूर्ण मनुष्य का कल्याण हो यह मूल मंत्र
लोगों को देता है। लेकिन जब यहाँ आदी दुनिया को वंचित रखा जाए ऐसे में संपूर्ण
साहित्य की कल्पना की ही नहीं जा सकती। जब आदी आबादी अर्थात स्त्री को यह बोध हुआ
तो इस विषमतापूर्ण स्थिति पर प्रश्न चिन्ह लगाना आरंभ कर दिया। पितृसत्ता किस
तरह अपने हितों की रक्षा हेतु स्त्रियों का शोषण किया है। स्त्री विमर्श इन सब
परिस्थितियों को भली-भाँति अनुभव किया है। लेखक राकेश कुमार के शब्दों में अगर
कहा जाए तो “पैतृक सत्ता ने ही
दुनिया की आदी आबादी को अपना उपनिवेश बनाया है। तथा उन्हें आत्महीन, सत्वहीन,
वाणीहीन भी किया है। स्त्री विमर्श ने सदियों से चली आ रही सत्वहीनता खामोशी को
तोड़ा है तथा अपनी चुप्पी को गहरे मानवी अर्थ दिए हैं। हाशिए की दुनिया को तोड़ा
है। यही स्त्री विमर्श की भूमिका है।”[1] पुरूष सत्ता
साहित्य को मानव मूल्यों की रक्षा की बात कहकर लोगों को संतुष्ट रखा था पर यह कैसे
हो सकता है कि कुछ ही लोगों की रक्षा हो और संपूर्ण मनुष्य की बात कहीं जाए। इस
विसंगति का जब स्त्री को एहसास हुआ तब इसके खिलाफ प्रतिरोध करना आरंभ कर दिया।
क्योंकि यह मानव मूल्य नहीं बल्कि केवल पुरूष मूल्य ही है। मानव स्त्री और पुरूष
दोनों मिलाकर होता है। परंतु पुरूषों ने इसे मानव मूल्य कहकर खुद की रक्षा की है। इस संदर्भ में लेखक राकेश कुमार का यह कथन अपेक्षित है। पहलीवार स्त्री विमर्श
में ही इस वास्तविकता का रहस्य उद्घाटन हुआ है।
हमारे मानव मूल्य न रहकर पितृसत्तात्मक मूल्य हैं। क्योंकि उसके
चरित्र पितृक यानी स्त्री विरोध है। जरा इस बात पर नजर दौड़ा लेना चाहिए कि इस
तरह स्थितियाँ समाज में आई कैसे? दरअसल जब सभ्यता का विकास हुआ तो लोगों ने कार्य
को सुचारू रूप से चलाने के लिए अलग-अलग कामों का निर्धारण किया। पुरूषों ने श्रम
का कार्य संभाला और बाकी काम स्त्रियों को दिया गया। श्रम करने वाला पुरूष
धीरे-धीरे इतना परिश्रम किया कि वह शक्तिशाली ही नहीं बल्कि भक्षक भी बन गया। हर
क्षेत्र में उसने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। स्त्रियों को दासी की भाँति
हुक्म और हिदायत देने लगा। रुसाल्डो का यह कथन बहुत महत्त्वपूर्ण है कि “स्त्रियों और
पुरूषों के बीच श्रम का विभाजन और उनकी भूमिका को लेकर जो अंतर पैदा हुआ है, उससे
पुरूषों का वर्चस्व स्थापित हुआ है इस प्रकार स्त्री की स्थिति दोय्यम दर्जे की हो
गयी। स्त्री का स्तर निम्न हो गया तथा पुरूषों का उच्च स्तर हो गया। इसीलिए
कानून, दर्शन, धर्म, ज्ञान, राजनीति, संस्कृति सभी पर पुरूष आसीन हो गया।”[2]
इस दोय्यम दर्जे को भला कौन बर्दाश्त कर पाएगा? जब समाज में
स्त्री और पुरूष की भूमिका बराबर है फिर उन्हें क्यों नजर अंदाज किया जाता है? इस पैतृक समाज ने
आदी दुनिया को वंचित रखकर समाज को विषमतापूर्ण बनाया है। इस स्थिति का खुलासा करते
हुए पहली बार सीमोंद बौआर यह कहते हुए साहित्य
में प्रवेश करती हैं कि “स्त्रियाँ पैदा नहीं होती बना दी जात है।”[3]
जिस साहित्य को लोग पूर्ण कहते थे, वह बिल्कुल भी पूर्ण नहीं था।
क्योंकि साहित्य में आदी दुनिया की बात नहीं कहीं जाती थी। उन लोगों को कोई
अहमियत नहीं दी जाती थी। जिसमें केवल आदी दुनिया का प्रवेश है उसे कैसे पूर्ण कहा
जा सकता है। लेखक राकेश कुमार का यह कथन इस संदर्भ में अक्षरशः सत्य है- “आज तक का समुचा
साहित्य इसलिए अधूरा है, क्योंकि उसमें दुनिया को आदी आबादी की मुक्ति से जुड़े
हुए प्रश्न नहीं है।”[4]
सीमोंद बौआर ने कहा कि “समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय
है। कहीं पर भी स्त्री अपने अस्तित्व के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकती है। अपनी पुस्तक स्त्री की उपेक्षिता में उन्होंने
कहा कि यह आदी दुनिया की गुलामी का प्रश्न है। जिसमें अमीर, गरीब सभी जाति और वह
हर देश की महिला जकड़ी हुई हैं। कोई भी स्त्री मुक्त नहीं है।”[5]
बदलते हुए परिदृश्य में भी जब ज्ञान-विज्ञान का विकास हुआ लोग
आधुनिक कहे जाने लगे। जिसमें समानता, स्वतंत्रता के बाद कहीं जाने लगी। उस युग
में भी स्त्रियों की स्थिति दोय्यम दर्जे की ही दिखाई है। चिंता का विषय है।
सीमोंद बौआर इस स्थिति पर खेद प्रकट करते हुए कहती हैं “आज के बदलते हुए युग में
भी कहीं भी औरत को पुरूष के बराबर महत्त्व नहीं मिल रहा। यदि कानून औरत को बराबरी
का अधिकार दे भी दे तो सामाजिक, नैतिकता और लोक व्यवहार उनके आड़े आते हैं।”[6]
जब साहित्य पर पुरूष का ही वर्चस्व रहा, तब जाहिर सी बात है कि वह
चीजों को अपने अनुसार ही जाँचा-परखा हैं। इस उत्तर आधुनिकता में उन तमाम परंपरागत
चीजों पर प्रश्न उठाये जाने लगे, जिसमें केवल पुरूषों का ही वर्चस्व हावी है।
क्योंकि अब वे लोग भी पुरूषों के बराबर आने के लिए संघर्ष कर रही हैं जिन्हें कभी अवसर नहीं मिला था। इसलिए यह कैसे
हो सकता है कि पुरूषों ने जो लिख दिया, उसे आँख मूंदकर स्वीकार करें? अब तो बिना
जाँचे-परखे साहित्य को स्वीकार नहीं किया जा रहा है। पुरूषों द्वारा लिखित
साहित्य पर शक करते हुए सीमोंद बौआर कहती है “अब तक औरत के बारे में
पुरूषों ने जो कुछ भी लिखा उस पूरे पर शक किया जाना चाहिए। क्योंकि लिखनेवाला
न्यायधीश और अपराधी दोनों हैं। हर जगह और हर समय में पुरूषों ने अपनी संतुष्टि यह
कहकर प्रदर्शित किया है कि वह जगत का सर्जक है। साहित्य में औरत के विरोध बार-बार
दोषारोपण हुआ है। उससे हम सब परिचित हैं।”[7]
जो साहित्य केवल पुरूषों द्वारा ही लिखा जाता था स्त्री विमर्श के
कारण अब स्त्रियाँ भी अपनी व्यथा के माध्यम से तमाम समस्याएँ जन-जन तक पहुँचा रही
है। हालाँकि इससे बहुत लोगों को कष्ट भी हो रहा है। क्योंकि उन्हें लगता है कि
स्त्रियाँ साहित्य का दुष्प्रचार कर रही हैं। क्योंकि केवल अपनी आत्मकथा लिखकर
प्रचार कर रही हैं। लेकिन यह केवल उनकी आत्मकथा नहीं, बल्कि उन सबकी कथा है जिनपर
पितृसत्ता अधिपत्य स्थापित करके उनके पैरों में बेड़ीयाँ पहना रखी थी। इन्हीं
बेड़ीयों को काटने के लिए तमाम स्त्री साहित्य के सभी विधाओं के माध्यम से लोगों
को प्रेरित कर रही हैं। आज के परिदृश्य में साहित्य का फलक विस्त्रित हो चुका है। जहाँ एक ओर स्त्रियाँ संपूर्ण मनुष्यता की बात कर रही हैं वहीं पुरूष भी इससे
पीछे नहीं हट रहे हैं। इस दौर में केवल भाव ही नहीं बल्कि विचार भी महत्त्वपूर्ण
है। जैसे-जैसे शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है। वैसे-वैसे लोगों में
जागरूकता भी बढ़ती जा रही है। अब सब लोग अपने विचारों के माध्यम से लोगों तक
पहुँच रहे हैं। अगर पढ़ा लिखा व्यक्ति भी पुराणे लोगों की तरह खोखली नैतिकता की
बात करे तो शोभा नहीं देता। नैतिक क्या है और अनैतिक क्या है। इस पर विचार करना
चाहिए। नैतिकता और अनैतिकता तो सबके लिए बराबर होती है। पूर्व में लोग इन्हीं सब
बातों पर विचार नहीं करते थे। इसलिए समाज गर्त में चला गया है। इसलिए अगर
समाज का उत्थान करना है तो लोगों को खास
तौर से रचनाकार जो असाधारण माना जाता है उसे विचारों को सुदृढ़ करना पडेगा। मुंशी
प्रेमचंद का यह कथन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है “विचारों की शिथिलता ही पतन
का मनहूस लक्षण है।’’[8]
आज क्योंकि संपूर्ण मनुष्यता की बात कहीं जा रहीं है। इसलिए हर
रचनाकार चाहे वह स्त्री हो या पुरूष उन लोगों को केंद्र में लाने का काम कर रहा
हैं जो अब तक हाशिए पर डाल दिए गये हैं। रघुवीर सहाय ऐसे ही लोगों को अपनी रचना में
महत्त्वपूर्ण स्थान देते हैं जिन्हें
हाशिए पर पहुँचा दिया गया हैं। समाज में आज भी स्त्री-पुरूषों के बताए हुए नियमों
से जुझ रही हैं। परिवार में उन्हें तमाम यातनाएँ झेलनी पड़ती है। स्त्रियों को
लोगों ने मर्यादा में बाँधकर उनके अस्तित्व को खत्म कर दिया है। स्त्रियों का
प्रथम आभूषण लज्जा माना जाता है। जो स्त्री जितना कम बोलेगी वह उतनी ही सुशील
मानी जाती है। पुरूष उसका परमेश्वर माना जाता है। लेकिन वह परमेश्वर उसे दासी
बनाकर उस पर अत्याचार करता है। उन्हें तमाम धार्मिक ग्रंथ पढ़ाकर बहुतेरे उपदेश
देता है। उस पर चाहे जितना अत्याचार करे कोई फर्क नहीं। क्योंकि अगर स्त्री
अत्याचार के खिलाफ प्रतिरोध करती है तो वह अमर्यादित मानी जाती है। कवि रघुवीर
सहाय ने इस विसंगति पर प्रहार करते हुए लिखा है–
“पढ़िए गीता
बनिए सीता
फिर इन सबमें लगा पलीता
किसी मूर्ख की हो परिणीता
कवि एक तरफ जहाँ गीता और
सीता जैसे शब्द प्रयोग करता है, वही दूसरी तरफ पलीता लगाकर इन दोनों को काट देता
है। कवि कहता है कि स्त्रियों को घरवाली कहा जाता है। पुरूष अपने आप को सबसे
ज्यादा मेहनत करने वाला मानता है। पर घर में स्त्रियों को पूरे परिवार को भोजन बनाकर
खिलाना पड़ता है। स्त्री चाहे जितना भी थके, लेकिन कोई भी पुरूष उनके काम में हाथ
नहीं बँटाता। क्योंकि उसे लगता है कि खाना बनाना केवल स्त्रियों का ही धर्म है।
धर्म क्योंकि पुरूषों ने स्थापित किया है, इसलिए अपने अनुकूल ही सब कुछ रखा है।
पुरूष चाहे कुछ भी करे उसके लिए दोष नहीं है। लेखक श्रीधरन ने इस विड़ंबनापूर्ण
स्थिति का खुलासा पौराणिक तथ्यों से किया है। वन पर्व के 307 वे अध्याय में सूर्य
ने आठ वर्ष की कुंती को सम्बोधित करते हुए कहा है “हे सुंदरी! कन्या शब्द की
उत्पत्ति कम धातु से हुई है। जिसका अर्थ है चाहे जिस पुरूष को इच्छा करने वाली। इसलिए
तुम मेरे साथ संभोग करो। इस से तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा। विवाह और संस्कार
आदि कृत्रिम हैं।”[10]
जो पुरूष अब तक स्त्रियों को पर पुरूष के साथ संभोग करना गुनाह
समझता था वह अपने लिए उचित समझ रहा है। अगर इस बात को सही मान भी लिया जाए तो समाज
क्यों नहीं कर्ण को सूर्यपुत्र स्वीकार करता है। अवैध संतान क्यों माना जाए।
धर्म में ऐसे ही स्त्री के विरोध में तमाम तथ्य दिए गए हैं। जो स्त्री के विरोध
में ही नहीं वरन् बिल्कुल अनर्गल एवं अमर्यादित है। किसी भी तरीके से उसे स्वीकार
नहीं किया जा सकता है। मर्यादा पुरूषोत्तम जिन्हें जनहितैसी कहा जाता है, वे
स्त्रियों के प्रति क्या धारणा रखते हैं यह भी सबको ज्ञात है। उन्होंने स्त्रियों की
संज्ञा कुत्ते के जूठे घी से की है। उदाहरण के लिए वाल्मीकि रामायण से कुछ उदाहरण
दे देना अपेक्षित है-
अब तुम सचरित या दुष्चरित
जो भी हो। मैथली! मैं
तुम्हारा उपभोग नहीं कर
सकता। तुम कुत्ते की चाटे हुए
जूठे घी की तरह हो, जिसका
उपभोग संभव नहीं।’’[11]
स्त्रियों को पुरूष अपने
बराबर आने देना ही नहीं चाहते। तमाम लोग इस पर छींटाकसी करते हैं। पुरूष स्त्री
पर अत्याचार करता है, जब वह न्याय माँगने की गुहार लगाती है तो कुछ ना समझ पुरूष
स्त्री के विरोध में ही बोलते हैं। लिहाजा उन्हें न्याय नहीं मिल पाता है। अतः
वे हताश होकर बैठ जाती हैं। कवि रघुवीर सहाय ने इस स्थिति को नारी कविता में बखूबी
दिखाया है। उदाहरण स्वरूप ये पंक्तियाँ अवलोकनीय है -
“नारी बिचारी है
पुरूष की मारी है
तन से क्षुधित है
मन से मुदित है
लपककर झपककर
अंत में चित है।”[12]
नारी शोषण का प्रारंभ तो परिवार से ही हो जाता है। जब परिवार में
ही उन्हें यातना झेलनी पड़ती है, तो समाज की बात तो दूर की है। परिवार ने उनके
लिए अलग-अलग पैमाने निर्धारित कर दिए हैं। जिस पैमाने में स्त्रियाँ रहकर घुटन
महसूस करती हैं। स्त्री विमर्श ने इसी पीड़ा को समाज में लाने का काम किया है।
लेखक राकेश कुमार का यह कथन अपेक्षित है- “स्त्री विमर्श ने स्पष्ट
किया है कि स्त्री का दमन पैतृक परिवारों की मूल्य व्यवस्था ने ही किया है।
सार्वजनिक क्षेत्र में स्त्री का स्तर कुछ भी क्यों न रहा हो लेकिन परिवार में आते
ही वह दमन का शिकार होने लगती है। सलिए परिवार स्त्री के लिए खुली दास्ता है जो उसकी
रचनात्मक बौद्धिक शक्ति को नष्ट करता है।”[13] कवि ने एक कविता लिखी
है- जिसमें उन्होंने यह दिखाया है कि उनका किस तरह शोषण किया जाता है, इसकी
कल्पना तक नहीं की जा सकती। लेकिन उसका प्रतिरोध नहीं कर सकती हैं। उनके हावभाव
और चेहरे से ज्ञात हो जाता है कि पुरूषों ने किस हद तक उन पर अत्याचार किया है।
पर मजबूरीवश स्त्री बोल नहीं सकती। उदाहरण के लिए कविता के चंद पंक्तियाँ
निम्नांकित हैं-
“स्त्री की देह
मुस्कुराती स्त्री
उसकी देह
पीठ इधर करते ही
उसके जीवन के
दस बरस और दिखे।”[14]
रघुवीर सहाय ने इस विसंगति को दिखाया है कि आज के दौर में पुरूष
स्त्रियों का शोषण भी करता है और यह भी चाहता है कि समाज में उजागर भी न हो।
स्त्री की जिंदगी कितनी कष्टपूर्ण है। इसे स्त्री की जिंगदी नामक कविता में
दिखाते हैं। उनकी यह कविता निम्न है-
“कई कोठरीयाँ थी
कतार में
उनमें किसी में एक औरत ले
जायी गयी
थोड़ी देर बाद उसका रोना
सुनाई दिया
उसी रोने से हमें जाननी थी
एक पूरी कथा
उसके बचपन से जवानी तक की
कथा।’’[15]
कवि कहता है उनके... तो सुख की ....है ही नहीं। उन्हें बचपन से
लेकर वृद्धावस्था तक कष्ट ही कष्ट उठाने पड़ते हैं। पुरूषों ने यह कैसा समाज बना
रखा है, जिसमें स्त्रियों को साँस लेना तक दुभर हो चुका है। मनु ने तो यह ऐलान भी
कर दिया है कि उन्हें स्वतंत्र रखना गुनाह है। इसी मनु को तमाम लोग अपना आदर्श
मानते हैं। जो व्यक्ति आदी आबादी को गुलाम रखने की बात करता हो उसे आदर्श मानना
उचित ही नहीं, वरन् मूर्खतापूर्ण है। स्त्री के विषय में वह कहता है-
“बचपन में
माता-पिता के अधीन, जवानी में
पति के अधीन और बुढ़ापे
में पुत्र के अधीन
स्त्रियों को कभी स्वतंत्र
नहीं छोड़ना चाहिए।’’[16]
स्त्रियों को बचपन से ही
यह सिखाया जाता है कि वह कैसे रहे, किस तरिके से लोगों के साथ व्यवहार करे।
परिवार यह चाहता है कि उसे हर घरेलु शिक्षा दी जाए। जिसके कारण उसके ससुराल में
उसकी प्रशंसा हो। कवि कहता है कि जिस तरह माता-पिता अपनी लड़की को मर्यादा में
बाँधकर रखते हैं उसी प्रकार ससुराल में रहे यही उनकी सोच होती है। एक बेटी जब
किशोर अवस्था की ओर बढ़ने लगती है तो एक माता-पिता को यही चिंता होती है कि शादी
कैसे की जाए। शादी करना उनकी सुरक्षा करना माना जाता है। लेकिन शादी के बाद
स्त्रियों के साथ ससुराल में किस तरह दुर्व्यवहार किया जाता है, यह उसके
परिवारवाले सोच भी नहीं सकते हैं। एक लड़की की पीड़ा को देखकर एक पिता के मन में
बेहद तकलीफ होती है। कवि कहता है कि यह कैसी विड़ंबना है कि स्त्रियों कि सुरक्षा
शादी करने से मानी जाती है। लेकिन इसके बाद तो उन्हें उससे ज्यादा असुरक्षा का
अनुभव होता है। कवि ने एक पिता की संवेदना को जो रूप दिया है। वह अत्यंत
संवेदनशील है। उनकी ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
“जब तुम बच्ची थी
तो मैं तुम्हें
रोते हुए देख नहीं सकता था
अब तुम रोती हो तो देखता
हूँ।’’[17]
कवि कहता है कि स्त्री
बेशक कष्ट उठा लेती है। पर वह पुरूषों के सामने नतमस्तक ही होती रहती है। उसका
कारण है कि वह यह चाहती है कि परिवार में कलह न हो। पुरूष के सामने एक औरत झुककर
इसलिए चल रही है। क्योंकि उसे पति से स्नेह मिले। कवि की चंद पंक्तियाँ इस
संदर्भ में देखी जा सकती है-
“वह जवानी में बहुत
कष्ट उठा चुकी है
अब वह थोड़े-थोड़े लगातार
स्नेह के बदले
एक पुरूष के आगे झुककर
चलने को तैयार हो चुकी है।”[18]
समाज में पूरी तरह से भय बना हुआ है। वह भय केवल स्त्रियों के लिए
है। आगे कवि यह भी कहता है कि यह कैसी विड़ंबना है कि सुरक्षित इसलिए है क्योंकि कुछ पुरूषों को
उसके पति जानते हैं। उदाहरण स्वरूप चंद पंक्तियाँ अपेक्षित हैं-
“वह कुछ निर्दय
पुरूषों को जानती है जिन्हें
उसका पति जानता है
और उसे विश्वास है कि उनसे
वह पति के कारण सुरक्षित है।”[19]
महत्त्वपूर्ण बात यह है कु कवि रघुवीर सहाय के रचना में जिन
स्त्रियों का चित्रण हुआ है वे आकर्षण का केंद्र नहीं, बल्कि पुरूषों द्वारा सताई
गई हैं। कवि ने लुभाना कविता में यह दिखाया है कि पुरूषों ने स्त्री की हालत इस
कदर कर दिया है कि वह मजबूर होकर सड़क पर खड़ी होकर लोगों को प्रलोभन दे रही है।
कवि कहता है कि यह प्रलोभन पुरूषों को लग सकता है पर वास्तव में यह प्रलोभन नहीं,
बल्कि प्रताड़ित दुःखी एवं असहाय है। उदाहरण के लिए चंद पंक्तियाँ निम्न है।
“खड़ी किसी को लुभा
रही थी
चालिस के ऊपर की औरत
घड़ी-घड़ी खिलखिला रही थी
चालिस के उपर की औरत
खड़ी अगर होती वह थककर
चालिस के उपर की औरत
तो वह मुझको सुंदर लगती
चालिस के ऊपर की औरत
ऐसे दया जगाती थी वह
चालिस के ऊपर की औरत
वैसे काम जगाती शायद
चालिस के ऊपर की औरत।”[20]
आरंभ में तो लोगों को हास-परिहास लग सकता है। परंतु कविता के
केंद्रबिंदु तो ऐसे दया जगाती थी वह चालिस के ऊपर की औरत वैसे काम जगाती शायद
चालिस के ऊपर की औरत में है। रघुवीर सहाय इसलिए महत्त्वपूर्ण कवि हैं। क्योंकि
वह केवल जीवन विरोधी स्थितियों को नहीं दिखाते, बल्कि उसके खिलाफ आवाज बुलंद हेतु
प्रेरित भी करते हैं। इस संदर्भ में डॉ. अभय ठाकुर का यह कथन बिल्कुल सच है -“रघुवीर सहाय की
खास बात यह है कि वे न केवल जीवन विरोधी स्थितियों की पहचान करते हैं, बल्कि उसे
तोड़ने का संकल्पन भी करते हैं।”[21]
वे कहते हैं कि अगर स्त्रियाँ प्रतिरोध नहीं करेगी तो शोषण का चक्र चलता रहेगा। इसलिए इस को खत्म करना है तो पुरूषों द्वारा बनाए गए तमाम नियमों पर प्रश्न चिन्ह लगाए। एक कविता में कवि आवाह्न करते हुए कहता है-
“कुछ होगा कुछ होगा
अगर मैं बोलूँगा
न टूटे न टूटे तिलस्म
सत्ता का मेरे अंदर कायर
टूटे टूट
मेरे मन टूट एक बार सही
तरह
अच्छी तरह टूट मत झूठमूठ
ऊब मत रूठ।[22]’’
जो पुरूष स्त्रियों पर झूठी संवेदना लुटाते हैं, उससे कवि नाखूश
है। वह स्त्रियों को आशावान, दृढ़ निश्चयी और प्रतिरोधी बनाना चाहता है। सेब
बेचना कहानी में कवि ने यह दिखाया है कि
एक स्त्री किस तरह से आत्मविश्वास से युक्त पुरूषों द्वारा दिखाए गए दया का खंड़न
करती है। वह उसे हिकारत भरी दृष्टि से देखते हुए आगे बढ़ जाती है। कहानी का कुछ
अंश दर्शनीय है-
“क्या बात है बेटी
तू इतनी घबराई हुई क्यों है?
तुझे यहाँ कौन छोड़कर चला
गया है पर वह
न इतना घबराई हुई थी और न
उसे वहाँ
कोई छोड़कर चला गया था
क्योंकि उसके चेहरे पर
एक गहरीं आशा की दृढ़ता थी।
X X
X
लड़की ने एक बार मुझे बड़ी
घृणा से देखा, फिर
अपने बाप को देखने लगी।
वह सड़क के पास जमीन
पर कोई चीज ढ़ूंढ रही थी।
मुझे देखकर वह शायद
मन में हँसना चाहती थी कि
आप यहाँ खड़े क्यों
संवेदना लुटा रहे हैं।”[23]
दरअसल कवि जब स्त्री समस्या की बात करता है तो वह दया नहीं दिखाता
है, बल्कि उन्हें उनका अधिकार दिलाने की बात करता है। क्योंकि समाज में अगर
स्त्री-पुरूष बराबर है तो उनके साथ दया क्यों दिखाया जाए। गौरतलब है कि आधुनिक
रचनाकारों ने स्त्री सशक्तिकरण की बात बहुत की है। लेकिन वह सहानुभूति के आधार पर
की है। रघुवीर सहाय की रचनाओं में किंचित मात्र भी सहानुभूति नहीं है। अपने एक
निबंध लिखने का कारण में कवि स्वीकार भी करता है। उदाहरण स्वरूप-
“हिंदी साहित्य में
स्त्री के प्रति यह भावना बार-बार व्यक्त हुई है कि वह उपेक्षित है। इसलिए दया की
पात्र है। आधुनिक कहे जाने वाले साहित्य में पुरूष से उसके शरीर संबंध को विशेष
महत्त्व दिया गया है। पर वहाँ भी उसके प्रति दया का भाव लेखक के मन से गया नहीं
है। मानो आधुनिक जीवन के नर-नारी समता के विचार ने रचनाकार को छुआ ही न हो और वह
पिछले जमाने के सामंती मन से ही स्त्री को देख रहा हो। उसमें नया जो कुछ है वह
आधुनिक होने के कारण स्त्री शरीर का अधिक आसानी से वर्णन कर सकता है।”[24] पूर्व में तमाम
रचनाकारों की कृति में अनुगामिनी, अबला आदि शब्द तो दिखाई देते हैं, परंतु रघुवीर
सहाय के काव्य में इन सबका अभाव है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि रघुवीर सहाय ने स्त्री उत्थान के
लिए तमाम कविताएँ लिखी हैं। मसलन चढ़ती स्त्री, खड़ी स्त्री, अभितक खड़ी स्त्री,
पागल औरत, हकिम और औरत आदि। कवि यह बताना चाहता है कि समाज में स्त्रियों के लिए
तमाम कानून तो बन गए हैं। लेकिन अभी भी उन पर अत्याचार बंद नहीं हो रहे हैं। कवि
कहता है कि स्त्रियों को खुद लड़ाई लड़नी होगी। अगर वह आत्मनिर्भर और प्रतिरोधी
नहीं बनेगी, तो उनका हक नहीं मिल पाएगा। अब वह वक्त आ गया है कि स्त्रियाँ अपना
हक छीन कर ले। किसी भी बात को बिना जाँचे-परखे स्वीकार न करें। जिस तरह पुरूष
सिर उठाकर जी रहा है स्त्रियाँ भी सिर उठाकर नहीं जीएगी तो समाज का उत्थान नहीं हो
सकता।
संदर्भ:-
[19] रघुवीर सहाय की रचनावली, भाग- 1 पृ, सं- 176
-दिनेश कुमार यादव
शोधार्थी
हैदराबाद विश्वविद्यालय
मोबाइल नो.-9703501442
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