नामवर की तलाश: आशीष कुमार यादव
वर्तमान समय में नामवर सिंह हंदी साहित्य के प्रबुद्ध आलोचक कहे जाते हैा उनकी मेघा सिर्फ हिंदी में ही नहीं दिखती है, बल्कि भारतीय अन्यी भाषाओं जैसे-उर्दू, बंग्ला में भी दिखती है। उन्होंने साहित्य चेतना को व्यापक जन-जीवन से सिर्फ जोड़ा ही नहीं, बल्कि ‘आलोचना’ पत्रिका के माध्यम से नामवर सिंह ने हिन्दी की प्रगतिशील आलोचना को एक नई दिशा और नया मूल्य-स्तर प्रदान किया है। इनका व्यक्तित्व विराट है, अतः इनके स्थापनआंे, सिद्धान्तों और विचारधारा की चर्चा सभा, सेमिनारो में होती रहती है। इनके विषय में एक लोकोक्ती प्रसिद्ध है- ‘जिन सभा और सेमिनारों में नहीं होते है, वहाँ भी वे उपस्थित रहते है।’
डॉ. पी.एन. सिंह की पुस्ततक ‘नामवरः संदर्भ और विमर्श’ न केवल उनकी तलाश करती है, बल्कि नामवर सिंह का निरपेक्ष मूल्यांकन 21 सदी के दुसरे दशक में उपस्थित करते है। इस पुस्तक में डॉ पी.एन सिंह ने नामवर सिंह का सिर्फ साहित्यक और समाजिक अवदान की चर्चा ही नही की है बल्कि उनकी आलोचना और उनके द्वारा की गयी आलोचना सभी के सामने प्रस्तुत किया है, कई जगह उनसे सहमति और असहमति भी है। वर्तमान समय में दलित साहित्य के उभार के कारण किसी लेखक पर जाति का आरोप मढ़ना बहुत आसान है, लेकिन किसी एक पैमाने से सभी लेखकों को मापना उनके प्रतिभा के साथ अन्याय होगा, जो समाज और साहित्य दोनों के लिए अहितकर होगाा लेखक को इसी श्रेणी में रख कर शायद उनके मूल्यांकन को सही समझा जा सकता है।
डॉ. पी.एन. सिंह माक्र्सवाद और अंबेडकरवाद के बीच एक बेहतरीन कङी है। उनकी सर्जक मन की शैली सिर्फ कबीर से ही नहीँ जुडता है बल्कि जायसी, भारतेन्दु से होता हुआ कार्लमाक्र्स और अंबेडकर तक आता हैा उन्होंाने सिर्फ अपनी कलम रामविलास शर्मा, नामवर सिंह पर ही नहीं चलाई बल्कि ‘मुर्दहया’ और अंबेडकर चिंतन पर भी चलाई। इनको जाति-ग्रंथि में बांधाना शायद इनके चिंतन और लेखनी दोनों के साथ अन्याय होगा।
डॉ० पी०एन० सिंह बहुपठित व्यक्ति हैं। बहुत पढ़ा-लिखा आदमी जिनके पास लोक जीवन का आधार हो वह सहज हो जाता है और यह सबसे बड़ी शक्तिं होती है। यह कबीर से पाई हुई चेतना है। डॉ० पी०एन० सिंह के भाषा में और विचारों में हम यह देख सकते हैं। यह बात हिन्दीन के कम आलोचकों में दिखाई देता है। आशीष कुमार यादव, लघु शोध विषय-‘दलित साहित्य और हिन्दी आलोचना’ संदर्भ-अम्बेमडकर चिंतन और हिन्दी दलित साहित्य-डॉ० पी०एन० सिंह, पृष्ठ 78)
नामवर सिंह के प्रशंसकों की तुलना में विरोधियों की संख्या कई गुना है। सबसे बडा सवाल यह है कि ऐसा क्यों ? एक प्रचलित कहावत है- “हम किसी से नफरत इसलिए करते हैं कि बहुत दूर तक उसे ठीक से नहीं जानते” क्या यह मामला है? क्या लेखक विशेष पूर्वाग्रह से ग्रसित है? तो सबसे पहले विभिन्न लेखकों की दृष्टि से नामवर की क्या आलोचना करते है? तभी शायद मुल्यांकन कुछ आसान होगा।
मैनेजर पाण्डेय का कहना है- ‘‘नामवर सिंह हमारे पूर्वज हैं, समकालीन आलोचक नहीं। नामवर सिंह इधर 20-25 वर्षों से हिन्दी साहित्य के समीझक न होकर मीडिया-प्रक्षेपित समीझक हैं और छायावाद पर लेखन के आलावा उन्होंने ऐसा ठोस काम नहीं किया है जो उल्लेख हो। ‘(नामवर: संर्दभ और विमर्श, डाॅ॰ पी॰ एन॰ सिंह, पुस्तक, पेज न॰ 45 ) राजेन्द्र यादव तो यहां तक कहते हैं- ‘सत्ता प्रतिष्ठानों से लड़ते-लड़ते नामवर स्वयं में सत्ता-प्रतिष्ठान बन गए हैा’ (वही, पुस्तक पृ॰ सं॰-169) सुधीश पचैरी ने कहा है- ‘‘नामवर आलोचना नहीं लिखी, विमर्श किये हैं।’’ (वही, पुस्तक पृ॰ सं॰-167) पुरूषोत्तरम अग्रवाल की दृष्टि में- ‘नामवर समीक्षक है, वकील नहीं और रामविलास जी वकील अधिक, समीक्षक कम।‘’ (वही, पुस्तक पृ॰ सं॰-156) सदानंद शाही का कहना था ‘‘नामवर जी विद्वान हैं, लेकिन आदमी नहीं पढ़ पाते और बहुत बार अन्यों की निगाह से व्यीक्तियों के बारे में राय बना लेते हैं।’ (वही, पुस्तक पृ॰ सं॰-141)
क्रम से इस टिप्पिणीयों को देखे तो डॉ पी. एन. सिंह अपनी पुस्तक में सबका बहुत तार्किक जबाब दीया है जो उचित प्रतित होता है शायद पाण्डेय जी मालूम होना चाहिए की- ‘नामवर सिर्फ छायावादी काव्य के समीक्षक नहीं है, वे कविता और नयी कहानी के सर्वमानय समीक्षक हैं। उन्होंने कविता के नये प्रतिमान में रूपवादी उपकरणों का सहारा लेकर मुक्तिबोध को प्रतिष्ठित करने का जोखिम उठाया है। इसी तरह ‘दूसरी परम्पकरा की खोज’ में नामवर ने नया मोड आलोचना को देते हुए, तुलसी-शुक्ल-शर्मा के समानान्तनर कबीर-द्विवेदी-नामवर को वैचारिक विमर्श को दिशा दी हैा’’ (वही, पुस्तक पृ॰ सं॰-145) इसी प्रकार देखा जाय तो अग्रवाल जी अपने आपको- ‘’माक्र्सवादी समझ कर ऐसा कहतें है, लेकिन उनको यह पता नहीं वे खुद माक्र्सवादी नहीं है। उनका मध्यवर्ग का विस्फोट समझे से परे है।’’ (वही, पुस्तक पृ॰ सं॰-156) इस प्रकार सारा लेखक नामवर के प्रतिभा और विद्वता को किसी न किसी रूप से स्वीककार किया है।
यहां पर मुझे रोम के एक काव्यशास्त्री लांजइनस की याद आती है ‘’महानता सर्वथा त्रुटिमुक्त नहीं होती, और जो लोग हमेशा त्रुटिमुक्त बने रहने का प्रयास करते हैं उनमें महानता की संभावना कम हुआ करती है।’’ (डॉ पी.एन सिंह ‘अंबेडकर चितन और हिन्दी दलित साहित्य‘, पृष्ठ -68) अर्थात महानता और त्रुटियुक्त होना दोनों की कल्पना कुछ-न-कुछ स्वीकारना पड़ेगा, तो नामवर को क्यों अपवाद माना जाय? डॉ. पी.एन. के अनुसार-‘’नामवर जी का सारा लेखन मुठभेड ही है और विभिन्नु लोगों एवं प्रवृत्तियों से मुठभेड, जिन्हे वे साहित्युक समझ और विवेचन की दृष्टि और समाज और राष्ट्रु-निर्माण की दृष्टि से हानिकारक मानते हैं। (नामवर संदर्भ और विमर्श- पृ॰ सं॰ 168) लेखक ने नामवर सिंह का मुल्यांकन बहुत सही शब्दों में व्यक्त किया है।
नामवर ने योद्धाओं की तरह जीवन से लड़ा भी है और कलाकार की तरह उसको जी भर का जिया भी है। डॉ० पी०एन० सिंह के इस पुस्तक को पढ़ते हुए मुझे ऐसा लगा। लेकिन एक प्रश्न बीच-बीच में कचोटता रहा, क्यों डॉ० पी०एन० सिंह जैसे सहज बुद्धिजीवी के लिए नामवर उनके कुछ प्रिय लेखकों में से एक हैं? तो मुझे यह पुस्तक पढ़ते हुए लगा कि जिस तरह की लड़ाई नामवर अपने कैरियर के शुरूआती दौर में लड़ रहे थे उसी प्रकार डॉ० पी०एन० सिंह अपने जीवन के अन्तिम दौर में स्वास्थ्य से लड़ रहे हैं और इसी प्रकार आलोचना नामवर का भी प्रिय विषयवस्तु था तो डॉ० पी०एन० सिंह का भी यह प्रिय विषयवस्तु था। दोनों का जन्म स्थान गाजीपुर भी है। जहाँ नामवर ने डॉ० तुलसीराम के लिए यदि जे०एन०यू० में अंबेडकर चेयर के लिए सिफारिश की थी और मिली भी। उसी तरह डॉ० पी०एन० सिंह बातचीत में डॉ० तुलसीराम को अपना घनिष्ठ मित्रों की श्रेणी में रखते हैं और डॉ० तुलसीराम की कृति ‘मुर्दहिया’ पर कई लेख लिखे और इन्होंने ‘अंबेडकर चिंतन और हिन्दी् दलित साहित्य’ (2009) में इन्होंने पुस्तक लिखी, जो डॉ० पी०एन० सिंह को पूरे हिन्दीे साहित्य में माक्र्सवाद और अंबेडकरवाद के बेहतरीन कड़ी के रूप में भी स्थापित करती है। मुझे तो दोनों के बीच बड़े शहर (दिल्ली) और छोटे शहर (गाजीपुर) का अंतर नजर आता है। इनके बीच के संबंध को नाम न दे पाना मेरी विवशता है। नामवर सिंह पैसा और प्रसिद्धि अपनी पत्रिका आलोचना से कमा चुके हैं तो डॉ० पी०एन० सिंह अपनी पत्रिका ‘समकालीन सोच’ से अभी दोनों को कमाना है। लेकिन मामला स्वास्थ्य का है, जो डॉ० पी०एन० सिंह के साथ कम सकारात्माक है।
डॉ. पी.एन. सिंह का मानना है- ‘’नामवर केवल लिखने के लिए नहीं लिखा, सोद्देश्य लिखा, हस्तक्षेप के लिए लिखा, नए परिप्रेक्ष्य सुझाने और सोचने के नयी संस्कृति पैदा करने के लिए लिखा प जिससे असहमति को माने ‘वैचारिक रक्त पात’ नहीं। ( वहीं पुस्तक, पृ॰ सं॰ -168)
नामवर सिंह की प्रत्येक पुस्तक एक घटना है, क्योंकि इसके माध्यम से हस्त्क्षेप और मुठभेड़ हुई है। और दूसरे नामवर जी खुद स्वी्करते है- ‘’रचना और समीक्षा साहित्य के परस्पकर पूरक सरोकार है। दोनों का रचनात्मठक जुडाव कमजोर हुआ है।’’ (वही पुस्तक,पृष्ठे-169) डॉ पी. एन सिंह अपनी पुस्तक में लिखते है ‘’इसमें नामवर का क्या दोष नामवर के लिए जीवन संघर्ष और जीवन दोनों एक दुसरे के पर्याय है। उनके अकादमीक जीवन की एक-एक इंच जमीन अपने अध्ययन, अहवसाय और संघर्षों द्वारा कमाई हुई है (वही पुस्तक, पृ॰ सं॰-21),
उनकी प्रतिभा का प्रस्फुटन टामस ग्रे के सिद्धान्त का खुला उल्लंघन है। अर्थात नामवर सिंह प्रतिकूल परिस्थितियों की धधकती आग में बढे पके है और इस रूप में उनके अकादमिक जीवन की एक-एक इंच जमीन अर्जित है। बर्नार्ड शा का तो यह मानना था कि- ‘प्रतिभा पागलपन के सतर तक क्रूर और अवसरपरस्तक होती है, क्योंकि वह अपनी और केवल अपनी अभिव्यतक्ति जानती है और इसके लिए वह मां-बाप तक को नहीं पहचानती।’ (वही, पुस्तक पृ॰ सं॰-31) नामवर जी कम -से कम अपनी चार पुस्तकों के लिए हिन्दी साहित्य में याद किए जायेंगे ‘इतिहास और आलोचना’, ‘कहानी नई-कहानी’, ‘कविता के नये प्रतिमान’ और ‘दूसरी परम्परा की खोज।’ इन सबमें उन्होंने नई जमीन खोदी है, नये सन्दर्भ खोजे हैं, नये परिप्रेक्ष्ये सुझाये हैं और नई स्थापनाएं दी है, जिनसे आज का हिन्दी संसार बखूबी परिचित है। (वही, पुस्तक पृ॰ सं॰-157)
डॉ. पी.एन. सिंह इनको गोर्की, शेक्सीपियर, के श्रेणी में रखते है ‘कबीर ,गोर्की, शेक्सपियर, सैमुअल, जान्सन और नामवर इसके उदाहरण है। एक दुसरे सन्दर्भ में रघुवीर सहाय, आस्ट्रौवस्की और सलेग्जेपकर पोप भी है। परिवेशगत और शारीरिक अशक्त्ता सम्बकन्धीप चुनौतियों से प्रतिभा परेशान हो सकती है, पराभूत नहीं हो सकती है।’ (वही पुस्तक ,पृ॰ सं॰-169)डॉ पी.एन सिंह अपने पुस्तक में लिखते है- ‘नामवर जी ने अपने वैचारिक संघर्ष की कीमत लगभग एक दशक तक आर्थिक असुरक्षा और अकादिमक बहिष्कार के रूप में चुकाई।’ (वही, पुस्तक पृ॰ सं॰-164)
छोटे भाई काशीनाथ सिंह के निबन्ध ’गरवीली गरीबी’ के दो उद्धरण प्रतिभाशाली युवा नामवर के समक्ष उपस्थित भयावह चुनौतियों की ओर ध्यारन खींचते ही है, लेकिन सर्वोपरि, नामवर-व्येक्ति के ठोस ही को भी उदघाटित करते हैं जिसने नामवर को नाम-वर बनाया है- पहला- ‘मैंने आज तक किसी ऐसे आदमी की कल्पना नहीं की थी, जिसके सारे दुःखों, सारी परेशानियों, पराजयों, तिरस्कारों और अपमानों का विकल्प अध्ययन हो। ‘(वही, पुस्तक पृ॰ सं॰-165) दुसरा-‘चुनाव हारने से अच्छी् खासी नौकरी जाने का सियापा घर में हो और वह आदमी खर्राटे ले रहा हो या पढी गयी किताब से नोट्स ले रहा हो या कमरा बन्द करके किसी लेख की तैयारी कर रहा होप’ ( वही पुस्तक,पृष्ठ -165)
उत्तर आधुनिक विमर्शों में दलित, स्त्री, आदवासी विमर्श शिखर बिन्दु पर है। जिससे साहित्य को देखने के दृष्टिकोण में काफी बदलाव आया है। मैं इन तीनों विमर्शों में दलित विमर्शे पर केंद्रित करता हूं, जिन पर नामवर ने काफी कुछ कहा हैा प्रसिद्ध माक्र्सवादी विचारक काडवेल कहते हैं - ‘इतिहास मे कम ही विचारक महानायक सुपठित हुए है लेकीन सभी अत्य’न्ता बुद्धिमान और मौलिक रहे है।’ (वही, पुस्तक पृ॰ सं॰-134) नामवर सिंह ने एक बार कहा था कि- ‘दलितों की कुछ ऐसी पीङा है जिन्हें दलित ही समझ सकता है और इसी कारण उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मिकी की आत्मकथा जूठन की प्रशंसा की थी।’ (वही, पुस्तक पृ॰ सं॰-134) उन्होंने बताया की जे. एन. यू. में ‘अम्बेडकर चेयर’ के लिये उन्होंने प्रयास किया। चेयर मिली भी लेकिन तुलसीराम को उसका लाभ नहीं मिल सका। (वही, पुस्तक पृ॰ सं॰-93) । नामवर सिंह ने दलित रचनाकारों से गुणात्मक अपेक्षा की है, उनका विरोध नहीं किया है। हां, उनके इस दावे को जरूर अस्वीकार, किया है कि दलित ही दलित जीवन पर लिखने का हकदार है। ( वही पुस्तक, पृ॰ सं॰ -92)। अतः जो लोग नामवर सिंह को दलित विरोधी साहित्यकार मानते है उनको इस पुस्तक को ध्यान से पढ़ लेना चाहिये।
दलित साहित्य कार शुरूआति अतिउत्साह से मुक्त शायद अब कुछ समन्यवादी स्थिति में आये है। मुर्दहिया (डॉ॰ तुलीसराम, 20009), अंबेडकर चिंतन और हिंदी दलित साहित्य (डॉ. पी.एन. सिंह,20009) जैसी पुस्तंकें इस बात को प्रमाणित करती है। वैसे नामवर जी विवादों में जीने वाले मनीषी हैा उन्हों ने कहा था- ‘’मैं एक प्रतिक्रियावादी आलोचक हूं। उकसाने और झकझोरने से उत्पान्न उत्तेजना के बाद ही कुछ ठीक-ठाक कह पाता हूं। (वही पुस्तक पृ॰ सं॰ -103)
जिस कबीर ने गुरू की तुलना ईश्वर से करके गुरू को बडा बताया था अैर जाति और प्रतिभा दोनों प्रस्तुती पर, प्रतिभा के आधार पर मूल्यांकन करने को कहा था- ‘जाति न पूंछियों साधिकी, पूछ लियो ज्ञान। जायस के जायसी जिस लोजीवन की बात करते और तुलसीदास परिवारीक रामराज्य की बात करते है, वह किसी न किसी रूप नामवर से बहुत गहरी तक जुडी हुई है। एक जगह नामवर कहते हैं- ‘मेरी मां कहा करती थी किसी कि भी ऊंगली को दबाओ, तकलीफ होती है। साहित्यकार उसी मां के समान है।’ (वही पुस्तक, पृ॰ सं॰-179)। लोकजीवन के बारे में काशीनाथ सिंह के निबंध ‘गरबीली गरीबी’ से समझ सकते हैं। एक जगह डॉ. जितेन्द्र राय कहते हैं- ‘इतना बडा आदमी और इतना सरल और सहज।’ ( वही पुस्तक,पृ॰ सं॰ -19)। इस तरह नामवर की सहजता, सरलता एवमं व्यवहार को अच्छी तरह जाना जा सकता है, जो उन्हें अन्य लेखकों से अलग करती है।
गाजीपुर में बातचीत के दौरान अपने लेखकीय व्यीक्तित्व के विकास के सन्दर्भ में गांव के स्कूली अध्यापक ‘जयचंद सिंह’, यू.पी. कॉलेज के ‘तारा प्रसाद सिंह’ और ‘मारकेण्ड सिंह’ ठभ्न् के आचार्य ‘केशव प्रसाद मिश्र और आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी की चर्चा किसी न किसी रूप में करते रहते है। (वही, पुस्तक पृ॰ सं॰ -33) इसी प्रकार डॉ. पी.एन.सिंह इनके संघर्ष की तुलना कुटज से करते हैं- ‘दिवेदी जी के कुटज या देवदारू की तरह खडे रहने के संघर्ष में लगे अपनी प्रतिभा के बल पर दुर्लभ ऊंचाइयों तक पहुंचे और दरेर कर पहुंचे। ( वही पुस्तक, पृ॰ सं॰-165)। पी॰ एन॰ सिंह ने अपने पुस्तक में उनके संघर्ष को बहुत सहज ढ़ग से व्यक्त किया है।
गोदान सिर्फ कृषक जीवन की महागाथा नहीं, उसमें शहरी और गांव की संघर्ष जीवन की अभिव्याक्ति हुई है। इस पढना और लिखना अपने आप में एक उपलब्धि है। जिस पर समय-समय पर लेखकों ने अपनी-अपनी अलोच्य विवेक की अभिव्यमक्ति दी है। जैनेन्द्र का कहना था- गोदान में सभी शिकार और शिकारी है। वहीं निर्मत वर्मा का कहना था- गोदान का किसान औपनिवेशिक किसान है, जिसमें उपनिवेश-पूर्व के भारतीय किसान की गंध नहीं है। डॉ पी. एन सिंह अपनी पुस्तक (नामवरः संदर्भ और विमर्श) में लिखते है-‘डॉ. नामवर सिंह हिन्दी कथा साहित्य की जिन पांच कृतियों को कालजयी घोषित किया था उनमें गोदान सर्वोपरि है। इसे भारतीय किसान जीवन के राष्ट्रीय रूपक का दर्जा प्राप्त है। गोदान हिन्दी जातीय चेतना की एक ऐसी कालजयी कृति है जिसमें हिन्दी जाति अपनी विविध अर्थध्वनियां सुनती है। इसमें प्रत्येिक पीढी अपने बनते-टूटते सपनों का अन्वेषण करती रहती है।’ (नामवर: संदर्भ और विमर्श, पृ॰ सं॰ -87 )
अपनी पुस्तक में डॉ पी. एन सिंह लिखते है कि नामवर सिंह किसी अन्य सेमिनार में डॉ. रामविलास के इस मत का खंडन करते है कि- ‘प्रेमचंद होरी और मेहता के योग है।’ उनके राय में तो- ‘यह आग और पानी का मेल होगा जो परस्पर विरोधी है।’ ( वही पुस्तक, पृ॰ सं॰-98)
नामवर सिंह की सबसे बडी विशेषता यह है की एक सेमिनार में कहीं हुई बात दुसरे सेमिनार में बदल कर प्रस्तुत करना। डॉ. पी.एन. सिंह अपनी पुस्तक में इसी पक्ष में बहुत सार्थक वक्तव्य प्रस्तुत करते हैं- ‘कोई जरूरी नहीं कि 80 वर्षीय नामवर वही सोंचे जो उन्होंने 27 वर्ष की उम्र में सोचा था। अगर हम नामवर अथवा किसी भी चिन्तक के पुराने निष्कर्षों पर ही टिके रहें तो यह हमारा दोष है, चिन्तक का नहीं’’ (वहीं पुस्तक, पृ॰ सं॰ -111)
और अन्तं में नामवर सिंह हिन्दी साहित्य के चलती फिरती पुस्ताकालय है। सम्पूंर्ण नामवर को एक लेख में सीमित नहीं किया जा सकता है। एक जगह (बातचीत में) नामवर सिंह स्वीकारते हैं- ‘मेरी समस्या भूलने की नहीं, मेरी समस्या न भूलने की है।’ (डॉ पी. एन सिंह- नामवर सिंह संदर्भ और विमर्श, पृ॰ सं॰-158)। डाॅ॰ पी॰ एन॰ सिंह की यह पुस्तक नामवर सिंह के विविध पहलुओं पर खुल कर चर्चा किए है। इसमें कुछ जगह लेखक की उनसे असहमत भी है। एक महान रचना की तरह लेखक के व्यक्तित्व में अन्र्तविरोध होना आवश्यक तत्त्व है, जो नामवर में है। इसलिए नामवर सिंह नाम-वर है। जो इन्हें लोगों से अलग करती है।
-आशीष कुमार यादव
मो. 9818813985
(बी॰ एड॰, एम॰ फिल॰, पीएच॰ डी॰ में कार्यरत दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली)
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