बिहार की जातीय राजनीति और रेणु का साहित्य: लल्टू कुमार
आज उत्तर भारत में कहीं भी
जातीय राजनीति को लेकर जब बहस होती है तो उदहारण के तौर पर बिहार और यूपी का नाम
लिया जाता है | इस तरह जातीय बहस में बिहार और यूपी को घसीट देने के पीछे कई
संभावित कारण है | परन्तु हमारी उम्र के लगभग सभी युवा एक ही बात जानते और समझते
हैं कि – इस जातीय राजनीति की जड़ आरक्षण और बिहार में लालू एवं यूपी में माया और
मुलायम की राजनीति है | अब सवाल यह उठता है की ऐसी सोच क्या युवाओं में स्वभाविक
रूप से अपने आप ही आ गया या इसके पीछे कोई सुनियोजित कारण है |
इस शोधपत्र का मुख्य
उद्देश्य बिहार की जातीय राजनीति की पड़ताल करना है | इसके लिए मैंने फणीश्वरनाथ
रेणु के साहित्य को आधार बनाया है | इस जातीय राजनीति रूपी रोग के कीटाणु की तालाश
के क्रम में मैंने रेणु के समग्र साहित्य का बड़ी ही सावधानी पूर्वक अध्ययन किया है
| जगह- जगह आये जातीय प्रसंग को अपनी सूझ- बुझ के हिसाब से ईमानदारी पूर्वक समझने
और विचारने का प्रयास किया है |
वैसे तो रेणु की रचना
यात्रा की शुरुआत सन 1932 ई. में खंगार सेवक पत्रिका में छपे एक कविता से हुई थी |
लेकिन उपलब्ध रचनाओं के आधार पर सन 1944 ई. से शुरू होकर सन 1977 ई. तक चलती रही |
इस तरह हम देखते हैं की रेणु के साहित्य लेखन का समय और बिहार की जातीय राजनीति को
लेकर बनी हमारी सामान्य समझ का समय अलग – अलग है | लेकिन इस जातीय राजनीति की जड़ें
गौतम बुध के ज़माने से भी आगे है | फ़िलहाल हम रेणु के साहित्य और उस समय की जातीय
राजनीति को आज के सन्दर्भ से जोड़ते हुऐ जानने और समझने का प्रयास करते हैं|
रेणु के सबसे चर्चित उपन्यास
मैला आँचल जो की सन 1954 ई. में प्रकाशित हुई थी | जातीय राजनीति का एक बेमिसाल
दस्तावेज है | हिंदी में शायद ही ऐसी कोई दूसरी रचना या रचनाकार होगा जो जातीय
राजनीति की इतनी स्पष्ट जानकारी देता हो | रेणु मैला आँचल में मेरीगंज गाँव के
बहाने समूचे बिहार की राजनीति को स्पष्ट करते हैं | यह राजनीति सिर्फ चुनावी
रणनीति तक ही सीमित नहीं है | जहाँ जातीय राजनीति के मायने मात्र चुनावी राजनीति
तक सीमित कर दिए जाने का रहा है वहीँ रेणु अपने साहित्य में इसे सम्पूर्णता में
देखने और बताने का प्रयास किये हैं |
इस शोध पत्र में मैला आँचल को
विशेष रूप से आधार बनाया गया है | रेणु इस उपन्यास में किस जाति की कितनी संख्या
है इस बात की जानकारी नहीं देते | लेकिन कायस्त वहां की सबसे बड़ी शक्ति और राजपूत
दूसरी दूसरी बड़ी शक्ति है इस बात को स्पष्ट करते हैं | तीसरी शक्ति के रूप में
ब्राह्मणों को देखते हैं और यादवों को उभरती हुई शक्ति मानते हैं | अब यहाँ एक
सवाल उठता है की इस विभाजन का आधार क्या है ? अगर ये विभाजन सामाजिक है तो ब्रह्मण
पहली की जगह तीसरी पायदान पे क्यूँ है | और अगर ये विभाजन आर्थिक है तो फिर यादव
तीसरी शक्ति क्यूँ नहीं है | खैर, जो भी हो इस सवाल का जवाब आप स्वयं तालाश कीजिये
|
राजनीतिक रूप से इस उपन्यास में
यादव काफी संवेदनशील है | वह सामाजिक बदलाव के पक्ष में खड़ा है | कालीचरण नामक
युवक इसलिए शोस्लिष्ट पार्टी का सदस्य बनता है क्यूंकि शोस्लिष्ट पार्टी ही
सामाजिक बदलाव और बराबरी की बात करती है | वो भी वर्ग संघर्ष के के बल पे, जिसमें
बदलाव की अत्यधिक संभावनाएँ नज़र आती है | कालीचरण का राजनीतिक अंत भी बहुत सारे
सवाल छोड़ जाते हैं जिसका जवाब रेणु के यहाँ है भी और नहीं भी |
इस उपन्यास में कायस्थ, राजपूत
और ब्रह्मण अधिकांश मौकों पे आपसी मनमुटाव भुला कर सामाजिक व्यवस्था को यथावत
बनाये रखने के लिए एकसाथ नज़र आते हैं | वैसे
इन तीनों के बीच वर्चस्व की लड़ाई हमेशा चलती रहती है | लेकिन जैसे ही इस लड़ाई में
यादवों का प्रवेश होता है वैसे ही राजपूतों के नेतृत्व में ये आपस में गोलबंद हो
जाते हैं | ये सब यादवों को हीनता भाव से देखते हैं मगर उनके एकता बल से इन्हें डर
भी लगता है | उदहारण के तौर पे ये प्रसंग देखिये – “ सिंघ जी यादव टोला के नढेलों
(बदमाशों) का सीना तानकर चलना बरदाश्त नहीं कर सकते | जोतखी जी ठीक कहते थे – बार–बार
लाठी – भाला दिखलाते हैं | हौसला बढ़ गया है | अब तो राह चलते परनाम-पाती भी नहीं
करते हैं यादव लोग ! कलिया कभी – कभी चिढ़ाने के लिए नमस्कार करता है | देह में आग
लग जाती है सुनकर | लेकिन सिंघ जी क्या करें ? राजपूत टोली के नौजवान लोग भी
ग्वालों के दल में ही धीरे – धीरे मिल रहे हैं | अखाड़े में ग्वालों के साथ कुश्ती
लड़ते हैं | रोज शाम को कीर्तन में भी जाने लगे हैं | हरगौरी ठीक कहता था – यदि यही
हालत रही, तो पांच साल के बाद ग्वाले बेटी मांगेंगे | तब काली कुर्तीवालों के बारे
में जो हरगौरी कहता था, उन लोगों को बुला लिया जाये ? कहता था, लाठी – भाला
सिखानेवाला मास्टर आवेगा | संजोगकजी या सनचालसजी, क्या कहता था, सो आवेंगे |
हिन्दू राज – महराना प्रताप और शिवाजी का राज होगा | हरगौरी आजकल बड़ी – बड़ी बातें
करता है |”1 यहाँ मेरे मन में कई सवाल एक
साथ उमड़ घुमड़ रहे हैं | यहाँ एक महत्वपूर्ण तथ्य पर से भी पर्दा उठ रहा है जिसकी
आज हमें शख्त जरुरत है, जैसे कि -हिन्दू राष्ट्र और आरएसएस के निर्माण के पीछे का रहस्य
| वैसे भी रेणु ने मेरीगंज में मुस्लमान के होने की बात नहीं की है परन्तु काली
कुर्तीवाले की चर्चा है | सुबह शाम राजपूत टोली में शाखा बाबू द्वारा राजपूत
नौजवानों को हथियार चलाने की शिक्षा देने का भी वर्णन मिलता है | रेणु के मेरीगंज
में भूमिहार जाति के लोग भी नहीं है जो की वर्तमान बिहार की राजनीति में अहम्
मायने रखता है | लेकिन उनके रिपोर्ताज ‘एकलव्य के नोट्स’ में इस जाति का वर्णन
मिलता है | वहां इनका ब्रह्मणों के साथ बराबर तनाव रहता है परन्तु दलितों के खिलाफ
ये आपस में एक हो जाते हैं |
मैला आँचल से एक और प्रसंग
देखिये – “शिवशक्कर सिंघ के बेटे हरगौरी ने बालदेव से पूछा, ‘कहिऐ बालदेव लीडर,
क्या समाचार है?’... ‘आप लोगों की किरपा से सब अच्छा है | बाबू साहेब, आप स्कूल से
कब आए? बालदेव पास के पड़े हुए खाली मोढ़े पर बैठते हुए पूछा | ... ‘सुना कि आपकी
लीडरी खूब चल रही है |’ ... ‘बाबूसाहेब, गरीब आदमी भी भला लीडर होता है | हम तो
आपलोगों का सेवक है |”2 यहाँ बालदेव
भाईचारे से प्रेमपूर्वक बात कर रहा है जबकि हरगौरी का मूड कुछ और ही है | वह
बालदेव के प्रश्नों का जवाब देना भी उचित नहीं समझता और इसका करण आगे इसी प्रसंग
में देखिये – “ आप तो लीडर ही हो गए | तो आजकल कांग्रेस आफिस का चौका – बर्तन कौन
करता है | हरगौरी अचानक उबल पड़ा | ‘अरे भाई, सभी काशी चले जाओगे? पत्तल चाटने के
लिए भी तो कुछ लोग रह जाओ | जेल क्या गए, पंडित जमाहिरलाल हो गए | कांग्रेस आफिस
में भोलटियरी करते थे, अब अंधों में काना बनकर यहाँ लीडरी छांटने आया है |
स्वयंसेवक न घोड़ा का दुम !’... ‘बाबूसाहेब, मुँह ख़राब क्यूँ करते हैं ? आप विदमान
हैं हम जाहिल | हमसे जो कसूर हुआ है कहिऐ |”3 हरगौरी के बोलने के तेवर से लेकर बालदेव द्वारा
दी गई प्रतिक्रिया से यह बात स्पष्ट हो जाता है कि जातीय उत्पीडन का कहर और इसका
डर लोगों में किस तरह व्याप्त होगा | लेकिन वहीँ एक परिवर्तन भी दिखाई पड़ता है |
जब कालीचरण को इस बात की जानकारी होती है तो वह यादव टोली के नौजवानों को लेकर
हरगौरी को सबक सिखाने शिवशक्कर सिंह के दरवाजे पर आ जाता है | अगर बालदेव न मना
किया होता तो कालीचरण इस पार चाहे उस पार कर देता |
बहरहाल, मेरा मकसद इस प्रसंग के
जरिये यह बतलाने की है कि किस तरह से तथाकथित उच्च जाति के लोग तथाकथित निम्न जाति
के लोगों की लीडरी को स्वीकार नहीं करना चाहते | बालदेव से हरगौरी की कोई
व्यक्तिगत लड़ाई नहीं है | हरगौरी के दुःख का कारण सिर्फ इतना सा है की उस गावं में
उच्च जाति के लोगों के रहते कोई ग्वाला लीडरी क्यूँ करता है | ग्वालों का अपना
पारंपरिक पेशा है उसे उस दायरे का ख्याल रखना चाहिए | बाकी लीडरी वगैरह तो बाबूसाहेबों
का काम है |
बालदेव को जनता का प्यार और समर्थन प्राप्त है | वह जनता के सुख दुःख में
दिन-रात शामिल रहने वाला सेवक है इसलिए बालदेव से लीडरी छिनना बाबू लोगों के दायरे
से बाहर है | लेकिन बाबू लोग दूसरा तरीका भी जानते है जिससे बालदेव की लीडरी छिनी
जा सकती है | आप खुद देखिये ये प्रसंग – “ उठ जाओ दरवाजे पर से | बेईमान कहीं के !
डिस्ट्रिक बोर्ड से अस्पताल की मंजूरी हुई है, रुपया मिला है | सब चुपचाप मारकर अब
बेगार खोज रहे हैं ! चोर सब !... उठ जाओ दरवाजे पर से ! हरगौरी तमतमाकर बालदेव को
धक्का देने के लिए उठा |”4 यहाँ हरगौरी का
गुस्सा झूठ को जनता के सामने सच साबित करने और बालदेव को उनकी नीचता का ऐहसास
कराने के लिए है | एक सच्चे लीडर को जनता से अलग कर देने का इससे बढियां और कारगर
उपाय कोई दूसरा हो ही नहीं सकता | और बिहार की राजनीति में तो ये आज भी देखने को
मिलता है | आज भी वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक उच्च जाति के लोग पिछड़े और दलित को
अपना नेता नहीं मानते हैं | यहाँ तक कि कुछ तथाकथित प्रगतिशील लोग भी इसे नेता मानने
में हिचकिचाते हैं | हाँ, कार्यकर्त्ता बनाने के लिए तो ये एड़ी-चोटी लगा देते हैं
|
बिहार की राजनीति में कहा जाता है कि पिछले 25 सालों से सामाजिक न्याय की सरकार है | लेकिन मेरी अवधारणा यहाँ कुछ अलग है | मुझे लगता है लालू यादव के शुरुवाती 5 सालों तक ही सामाजिक न्याय की सरकार थी | उसके बाद तो वहां भी सवर्णों का प्रभाव बढ़ गया | पिछले नीतीश सरकार में भी तो बीजेपी बराबर की साझेदार थी और साथ ही जेडीयू में भी सवर्णों का ही दबदबा था | इस पुरे लेख में सवर्ण से मेरा तात्पर्य अमीर सवर्णों से ही है क्यूंकि सवर्ण जातियों में ही अधिकांश अमीर घराने आते हैं | ऐसा भी देखा जाता है कि गरीब सवर्ण आर्थिक मजबूती के बाद वही करते हैं जो अमीर सवर्णों का स्वभाविक गुण है | ऐसे में मैला आँचल का ये प्रसंग देखिये – “ ... दफा 40, आधी और बटेयादारी करने वालों की जमीन पर सर्वाधिकार दिलाने का कानून है | लेकिन कानून में छोटा-सा छेद भी रहे तो उससे हाथी निकल जा सकता है | ... जितने दफा 40 के हाकिम नियुक्त हुए हैं, सभी या तो जमींदार अथवा बड़े – बड़े किसानों के बेटे हैं | उनसे गरीबों की भलाई की आशा बेकार है |”5 इस प्रसंग से यह साफ है की ऐसी व्यवस्था से गरीबों की भलाई की आशा बेकार है खासतौर पे दलित और पिछड़ी जातियों के गरीबों की | इसे और स्पष्ट रूप से समझने के लिए हम आरक्षण को लेकर विचार कर सकते हैं | आरक्षण व्यवस्था में हिस्सेदारी का मसला है ताकि जातीय भेदभाव को कम किया जा सके | सबका साथ सबका विकास संभव हो सके | लेकिन इस देश के हरेक सत्ता प्रतिस्ठानों में विराजमान सवर्ण दबदबा इसे गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के रूप में प्रचारित करती रही है| आज भी आरक्षण को लेकर इनकी नियत साफ नहीं हो पाई है | और अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए इसे और भी कई रूपों में प्रचारित करती रही है | जैसे- गुणवत्ता में कमी आ जाएगी, सवर्णों के हाँथ में एक दिन कटोरा आ जायेगा, सवर्णों में भी गरीब होते हैं, आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए इत्यादि | खैर ये जो कहें लेकिन मामला साफ है ये चाहते हैं की वर्णाश्रम व्यवस्था में कोई परिवर्तन न हो | ये नहीं चाहते की एक दलित या पिछड़ी जाति के लोग इसकी बराबरी करे | ये उन आखों को फोड़ देना चाहते हैं जिन आँखों में जाति विहीन समाज के सपने पल रहा है | ये उन आवाजों के कंठ से निकलने के पहले ही गला घोंट देना चाहते हैं जो सबकी बराबरी और समतामूलक समाज की बात करता है | अगर मैं कहूँ की आज देश के तामम विश्वविद्यालयों पे हमला इसी साजिस की एक कड़ी है तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी | आज भी सरकारी नौकरियों में ओ.बी.सी. दलित और आदिवासियों की आरक्षित सीटें यह कह कर खाली छोड़ दी जाती है की कोई योग्य उम्मीदवार नहीं मिला | आरक्षण व्यवस्था में यही वो छेद है जिसके कारण आज भी ओ.बी.सी., दलित और आदिवासियों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है |
मेरी माने तो असली जातीय राजनीति यही है
जो बिहार ही नहीं पुरे भारत वर्ष में व्याप्त है | चुनावी राजनीति तो एक रणनीति है
जो हर चुनाव में बदलते रहती है | चुनावी राजनीति को जातीय राजनीति कहना अप्रासंगिक
है | आज बिहार में दलित राजनीति के नेता सवर्ण राजनीति के नेताओं के साथ हैं |
इससे पहले यूपी में दलित राजनीति और सवर्ण राजनीति एक साथ थी | क्या इसका सामाजिक
भेदभाव पे कोई असर हुवा? दलित की सामाजिक हैसियत में परिवर्तन उनकी एकजुटता और
संघर्ष का परिणाम है न की नेताओं के चुनावी मेल-भाव का |
निष्कर्षतः यही कहूँगा कि जातीय कीटाणु
जो रेणु के साहित्य में गावों में पाए जाते हैं वो आज गाँव से निकल कर उन सभी
संस्थानों और सत्ता प्रतिष्ठानों तक पहुँच गया है जहाँ से देश का भविष्य निर्माण
और तय होता है|
संदर्भ:-
रेणु रचनावाली भाग 2 –
भारत यायावर – राजकमल प्रकाशन – तीसरा संस्करण : 2007 , पृष्ठ संख्या – 76
वही,पृष्ठ संख्या- 33
वही,पृष्ठ संख्या- 33
वही,पृष्ठ संख्या- 33
वही,पृष्ठ संख्या- 129
-लल्टू
कुमार
शोधार्थी
हरियाण केंद्रीय विश्वविध्यालय
महेंद्रगढ़
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