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हाशिये पर आदिवासी: साहित्य और समाज -कामिनी

भारत जब आजाद हुआ तो उसने एक नये समाज का संकल्प लिया जो समानता पर आधारित हो और वर्गविहीन समाज हो। वही दूसरी ओर देश के सुदूर क्षेत्रों, वन प्रांतरों पर सदियों से दमित आकांक्षायें- उम्मीदें जाग उठी थी, उनके हृदय में सागर लहरा उठे थे। जमीन-जंगल से विस्थापित भूमिहीन, बेघर लोगों की आशा बँधी थी। प्रकृति प्रदत्त उपहार, जंगल, जमीन, नदियाँ, आसमान हमारा होगा- आदिवासियों के धड़कते दिलों की पुकार थी। सच है कि किसी भी देश की प्रगति वहाँ के नागरिकों के रहन-सहन, सुख-सुविधाओं उनके सामाजिक सरोकारों आदि से लगाया जाता है कहना न होगा कि समाज की प्रगति इस तरह होनी चाहिये कि सभी वर्गों व समुदायों के लोग एक साथ नजर आये जो आधुनिक राज्य की अवधारणा का प्रमुख सिद्वान्त है। लेकिन समय-समय पर शासक वर्ग इस पूरी अवधारणा को अस्वीकार करता है वह अपने ही राज्य के नागरिकों का दमन करता है यह बात अधिकांश देशों के शासकों के सन्दर्भ में लागू होती है। आज आदिवासी समाज इसी तरह की प्रताड़ना का शिकार हुआ है उनके साथ शासकों में मनुष्य जैसा व्यवहार नही किया। यह सही है कि रहन-सहन के स्तर से लेकर भाषा, संस्कृति सहित अनेक स्तरों पर वह मुख्यधारा के समाज से काफी अलग दिखते है पर इन सबके बावजूद वे अपने समाज की संस्कृति बचाये हुये है जो प्रकृति के बीच विकसित हुई है जिनके पर्व, त्यौहार, देवताओं तक में प्रकृति ही प्रकृति शामिल है।

‘आदिवासी’ सदियों पुरानी परम्परा, संस्कृति और मूल्यों का दूसरा नाम है ‘आदिवासी’ इनके जीवन से जुड़ा साहित्य ‘आदिवासी साहित्य’ माना जाता है। ‘आदिवासी’ ‘आदि’ और ‘आदम’ शब्द से मिलकर बना है। ‘आदि’ का अर्थ प्रथम, पहला, आरम्भ को तो ‘आदम’ का अर्थ मानव का आदि प्रजापति अर्थात् सबसे पहला, मानव या पहला मानव का प्रजापति।1

अतः वनों, जंगलों, नगरों से दूर रहने वाली ऐसी जनजाति जिसे ‘जंगली’, ‘आदिवासी’ एवं ‘असभ्य’ कहा गया है ‘आदिवासी’ कहलाते है यद्यपि उनकी अपनी बोली, पृथक व्यवस्था एवं मान्यतायें रही है तथा रहने के लिये झुग्गी-झोपड़ी, खाने के लिये जंगल से प्राप्त फल-फूल और बीमारी के लिये जड़ी-बूटी हैं। फिर भी आदिवासी अपने प्राचीन संस्कृति के रक्षक है। धोटुल संस्कृतिक केन्द्र, गुदना श्रृंगार है। देवता को प्रसन्न करने के लिये ‘बलि’ का महत्व है। धूम-धाम से उत्सव मनाने वाले मस्तमौजी आदिम है स्वच्छी, भोले आदिवासी का कुल मातृसनात्मक होनेसे नारी को सम्मान देते है। भारतीय अन्य समाज की अपेक्षा आदिवासी नारी का स्थान महत्वपूर्ण है।

रमणिका गुप्ता के शब्दों में- ‘आदिवासी यानी मूल निवासी यानी भारत का मूल बाशिन्दा, इस धरती का पुत्र, धरती और प्रकृति के साथ पैदा हुआ, पनपा, बढ़ा और सहजीवी बना’ डाॅ॰ नन्द दुलारे बाजपेयी के शब्दों में- ‘अविकसित अंचल के निवासीयों को ‘आदिम’ कहा है।’ डाॅ॰ विवेक राय के शब्दों में- ‘पिछड़े अंचलों, पहाड़ी, वनों में रहने वाले ‘आदिम’ है।’डी॰ एन॰ मजूमदार की मान्यता है- ‘एक ही नाम होने वाला, एक ही भू-प्रदेश पर रहने वाला, एक ही भाषा बोलने वाला, समान व्यवसाय, नियमों को मानने वाला, आदिवासी है।’

ज्योतिबा फूले ने लिखा है- 
‘गोेड, भील क्षेत्री में पूर्व स्थायी, पीछे आये वही ईरानी, 
शूर भील, मछुआरे मारे गये रारों से
ये गये हकाते जंगल गिरिवानों में।’2


यह स्पष्ट है कि छोटी-छोटी बस्ती बनाने वाले, पहाड़ों, जंगलों में रहकर वनोपेजों पर जीविका चलाने वाले, अप्रगत, शोषित, अंधश्रदृ आदिवासी है। समान भाषा- बोली, धर्म, संस्कृति, ग्राम व्यवसाय में अटका आदिम हैं। बनवासी, राक्षस, असुर, जंगली, लंगोंटियां, वनपुत्र, आदिपुत्र, भूमिपुत्र, वन्य जाति, अनाभिषिक्त राजा, आदिम सन्तान, गिरिजन, जंगली, वानर, जंगल के राजा, दास्य, दस्यु आदि कई पर्यायी शब्द का प्रयोग हो रहा है।

हमारे जीवन को सक्षम तथा समर्थ बनाने में साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण है। सच है जो साहित्य संस्कृति को संजोकर रखता है वह जीवन में अस्मिता को जगाता हैं क्योकि साहित्य हमारे समाज और जीवन का दर्पण है वह हमारे जीवन को दिशा और गति देता है। आदिवासी साहित्यकारों का कहना है कि ‘आदिवासी साहित्य’, उन वन-जंगलों में रहने वाले वंचितों का साहित्य है जिनके प्रश्नों का उत्तर अतीत में कभी किसी ने दिया ही नहीं। यह ऐसे दलितों का साहित्य है जिनके आक्रोश पर मुख्यधारा की समाज व्यवस्था ने कभी ध्यान नही दिया। यह गिरि-कन्दराओं में रहने वाले अन्याय ग्रस्त, शोषित, पीड़ितों को क्रान्ति दर्पण हैं। ‘विनायक तुमराम’ कहते है- ‘वनवासियों का क्षत-विक्षत जीवन, इस संस्कृति की गोद में छुपा रहा, उसी संस्कृति के प्राचीन इतिहास की खोज है यह साहित्य ‘आदिवासी’ साहित्य इस भूमि से प्रसूत आदिम-वेदना तथा अनुभव का शब्दरूप हैं।3’

वर्तमान में साहित्य विमर्शो का दौर चल रहा है। 21वीं सदी का इसे नया मोड़ कह सकते है, जिसमें आदिवासी विमर्श उभरकर साहित्य की दुनियाँ में प्रवेश किया है जिसमें साहित्य में नयी बहस को जन्म दिया। मानवीय मन को झकझोरने की क्षमता सिर्फ साहित्य में होती है। जनजागृति, समाज चेतना, प्रबोधन का आधार साहित्य होता है। अतः साहित्य समाज, राष्ट्र निर्माण में प्रधान भूमिका निभाता है इसी कारण आज का साहित्य राष्ट्र उत्थान, सामाजिक परिवर्तन, आर्थिक क्रान्ति, और नैतिक मूल्यों की स्थापना करने वाला है। 

साहित्य के स्वरूप पर प्राचीन काल से ही विचार हो रहा है। संस्कृति साहित्यमें शब्दार्यो सहितों काव्यम् कहा है तो अंग्रेजी में ‘स्मबजनतमत’ कहकर स्पष्ट किया। हिन्दी में शब्द और अर्थ के साथ बनी रचना साहित्य है जो समाजहित के लिए होती है। मैथ्यू अर्नाल्ड ने साहित्य को ‘जीवन की आलोचना’ माना है। इसी प्रकार काॅडवेल ने लिखा है- ‘साहित्य सामाजिक जीवन को प्रतिनिम्बत करने वाला आईना ही नहीं, बल्कि जीवन को सार्थक बनाने वाला पूरक तत्व भी होता है।’ इसी क्रम में डाॅ0 बद्री प्रसाद की धारणा हैं- ‘वही साहित्य सफल है, जो शोषित मानवों की पीड़ा, वेदना तथा उनके प्रति किये गये शोषण और अन्याय का पर्दाफाश कर सकें।’ इसी प्रकार डाॅ0 कर्म सिंह चैहान ने साहित्यकार के तीन वर्ग किए- (1) सही विचारधारा से जुडे़ (2) शोषित वर्ग के जुड़े (3) अपनी विचारधारा और वर्ग संघर्ष से जुड़े।4’ 

अतः साहित्य सामाजिक संघर्ष, चेतना और परिवर्तन का प्रतीक होता है तो साहित्यकार उसका उद्गमकर्ता और प्रचारक होता है। इसी क्रम अगर हम साहित्य के साथ समाज की बात करते है तो सर्वमान्य परिभाषा है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जिसने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, रक्षा के लिए, समाज का निर्माण किया। अतः समाज व्यवस्था प्राचीनकाल से रही है।

समाज शब्द ‘समष्टि’ की भांति व्यापक हैं। यह शब्द अनेकार्थी वाचक है। समाज- समूह गिरोह, एक जगह रहने वाले अथवा एक ही प्रकार का काम करने वाले लोगों का वर्ग, समुदाय, किसी विशेष उद्देश्य से स्थापित की सभा। समाजशास्त्री मंटिस ग्रिन्सवर्ग के मतानुसार- ‘समाज स्वयं एक संघ है, एक संगठन है, औपचारिक सम्बन्धों का योग है।’ मैकाइवर के शब्दों में - ‘यह संस्था मानव के क्रियाकलापों को सीमित करती है, यह जीवन पूर्वता की शर्त है, नित्य परिर्वतन शीलता मानवीय सम्बन्धों की प्रणाली को समाज कहते है।’ डाॅ0 रमेश कृष्ण का कथन है- ‘समाज उस समुदाय को कहते हैं जहाँ मानव कितपय नियमावली के बन्धन में एक दूसरे लोगो के साथ मिलकर रहता हैं।5 

अतः विचारों और एक जैसी परम्पराओं वाले मानव समुदायों को ‘समाज’ कहा जाता है। इसी प्रकार आधार पर भिन्न-भिन्न समाजों, समुदायों के हमें भिन्न-भिन्न स्थानों, देशो में देखने को संगठन मिलते है, इन समुदायों की परम्परा विचारधारा, रीतिरिवाज पहचान, खान-पान, सोचने का ढ़ग आदि प्रायः समान होते है। इसका अंकन करने वाला साहित्य समाज का साहित्य कहलाता है। 

आज जब हम साहित्य इतिहास के पन्ने पलटते है तो पता चलता है कि समाज में जो परिवर्तन हो रहा है। उसे साहित्य ने निरूपित किया हैं। समय के अनुसार समाज में हो रहे परिवर्तन न समाज की हर हलचल को साहित्य ने सृजित किया है। साहित्य न केवल समाज का दर्पण है बल्कि समाज को दिशा देने वाला प्रकाश पुंज भी हैं। अतः आज भी इस लोकतांन्त्रिक देश में स्त्री, दलित और आदिवासियों को उचित स्थान मिलना बाकी है। आजादी के इतने वर्षो के बाद भी समाज का आधा हिस्सा स्त्री, दलित और आदिवासियों को मनुष्यता के दर्जे से दूर रखा गया। आज भी आदिवासियों को लंबे समय तक मनुष्य के नाम पर राक्षस, जंगली और असभ्य कहा जाता रहा है परन्तु इन सब के बावजूद आदिवासी साहित्य की आहट सुनाई पड़ रही हैं।

आज जब हम आदिवासी साहित्य के इतिहास की खोज करते है तो पाते है कि आदिवासी साहित्य वन संस्कृति से सम्बन्धित साहित्य है। यह साहित्य आदिवासियों की संस्कृति उनका खान-पान, रीतिरिवाज, रूढ़ि-परम्परा, विवाह, देवी-देवताओं, आदि का उल्लेख करता हैं। जिस समाज की ओर आज तक किसी भी नजर नहीं गयी, जिन्हें शहर से ही नहीं जंगल से भी खदेड़ा जा रहा है। ऐसे आदिवासियों की समस्याओं को, उनके प्रश्नों को, उनकी व्यथा को साहित्यकारों ने अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त करने का प्रभाव किया है।

आज आदिवासी-साहित्य और आदिवासी-समाज का सम्बन्ध अटूट है। आदिवासी समाज से आदिवासी साहित्य अलग नहीं रह सकता है। इस साहित्य का एक भाग जिसे आदिवासी लोक-साहित्य कहते हैं उसका आदिवासी समाज से गहरा और निकट  सम्बन्ध है। अतः यही साहित्य, उनकी प्रेरणा-प्रवृति तथा जीवन संघर्ष का दर्शन कराता है। आज जब हम आदिवासी साहित्य का अध्ययन करते है तो पाते है कि यह समाज दुःखी और सताया हुआ है, अनेक व्याधियों से ग्रस्त तथा जर्जर है। अन्याय-अत्याचार सहते  सहते यह पीड़ित और त्रस्त हो गया हैं। इसका इतना शोषण हुआ है कि यह खोखला हो गया है। अन्ध-श्रद्वा, अपनी ही प्रथा परम्पराओं से जोंक की तरह चिपकने की प्रवृत्ति, जादू-टोना, भूतप्रेत तथा देवी-देवताओं पर विश्वास, नरबलि तथा पशुबलि आदि ऐसी अनेक समाजघाती बातें आज भी आदिवासियों में प्रचलित हैं। 

आज आदिवासी साहित्यकारों पर आदिवासी समाज को जागृत करने की एक बड़ी जिम्मेदारी हैं। आदिवासी साहित्यकारों ने ‘आदिवासी साहित्य’ को तीन दिशाओं में बाँटा हैं। पहना कार्य परम्परागत कहानी, गाथा, कथा, पहेलियाँ मुहावरे तथा लोकोक्तियों का संकलन तथा प्रसारण करना। दूसरा कार्य- रचनात्मक लेखन तथा कविता, कहानी, गीत, उपन्यास, नाटक आदि का निर्माण तथा प्रचार-प्रसारण। तीसरा कार्य आलोचनात्मक लेखन तथा शोध लेखन एवं प्रसारण।

आज के समय में आदिवसी लेखक, रचनात्मक भले ही हम को, पर वे इस कार्य में लगे हुये हैं, समय की धारा के साथ कदम मिलाना चाहते हैं। वे कल, आज और कल को जोड़कर चलाने की प्रक्रिया में लगे हुये है। अतः साहित्य में चित्रित घटना का आधार समाज एवं मानव ही है। साहित्यकार अपने युग, समाज, सामाजिक संघर्ष, पृष्ठभूमि, सांस्कृतिक आन्दोलन से प्रभावित रहना है। समाज मानवीय समूह है तो समूह की भावधार साहित्य। साहित्य शरीर है तो समाज की घटना आत्मा है समाज में घटने वाली घटना को काफी समय तक शाश्वत रखने वाला दस्तावेज साहित्य है। अतः दोनो का केन्द्र ‘मानव’ ही है।

रामदरश मिश्र का कथन है- ‘साहित्यकार युग की नवीन सामाजिक जागृति और उसके अनेक पहलुओं को चित्रित करता है।’ साहित्य समाज में पलता है, तो समाज पर संस्कार साहित्य करता है। ब्रजभूषण सिंह का कथन हैं- ‘साहित्य और समाज का पारस्परिक अभित्र सम्बन्ध है जो गंभीर और व्यापक है  दोनो का स्वरूप संस्थागत हैं। साहित्य समाज का सामाजिक जीवन का व्याख्याता है।’ डाॅ0 बच्चन सिंह के मतानुसार- ‘साहित्य का निर्माण समाज करता है और समाज का निर्माण साहित्य करता है।6’’ 



वर्तमान समय में आदिवासियों के लिए वर्ण व्यवस्था और उससे उपजीं समस्या से इतर जंगल, विस्थापन और बाहरी लोगों की घुसपैठ मुख्य विषय रहें हैं। आदिवासी भौगोलिक दृष्टि से जंगलवासी हैं और हमेशा से ही जमीन को लेकर संघर्ष करते रहे हैं। आज आदिवासियों के लिए बड़ा मुद्दा विस्थापन का रहा है। देश के विकास की जब भी बातें होती है तब आदिवासी अपने आप सामने आ जाते है देश के विकास का रास्ता आदिवासी की जमीन से होकर ही गुजरता है। बाॅध, चतुरभुज काॅरिडोर और आद्योगिक परियोजनाओं को मूर्त रूप देना हो तो उजड़ना आदिवासी को ही पड़ता है और अपनी जमीन से विस्थापित होता है। यह सत्य है कि किसी मूलवासी को उसकी जमीन से उखाड़ कर किसी दूसरे नागरिको का विकास करना अलोकतान्त्रिक, अव्यावहारिक और अमानवीय ही कहा जायेगा।

आज भी आदिवासी समाज अलग-थलग पड़ा ऐसा आदिम समाज है जो अपनी परम्परागत मान्यताओं, रीति-रिवाजों को जीवित रखे है। आज इन्हे जल, जंगल और जमीन से खदेड़ा जा रहा है। जब ये आन्दोलन करते है तो सरकार इन पर गोलियां चलाती है। इन्हें अपराधी करार दिया जाता है। आज खोखली राजनीति और स्वार्थसिद्वि के चलते सरकार आदिवासियों के हितों के लिए न तो खास रूचि लेती है और न ही संसद और विधानसभाओं में उनकी वकालत करती है। अतः आज भी इनकी सामाजिक आर्थिक संरचनाओं में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ है। आज भी यह समाज उतना ही पिछड़ा और तिरस्कृत है, जितना इतिहास के प्रारम्भिक छोर पर था।

अन्त में मैं यह कहना चाहूँगी कि आज भी आदिवासियों में तनावों, दुखो, यात्नाओं और इन सबके बीच अपने को जिंदा रखने की जद्वोजहद और जीवन शक्ति, भीड़ में अपनी अलग पहचान बनाने की इच्छा और विपरीत परिस्थितियों में जूझते हुए निरन्तर संघर्ष करने की शक्ति को उजागर किया है। आज भी आदिवासी शिक्षा, सभ्यता और संस्कृति के आलोक वृत से बाहर है। यह समाज हाशिए पर ठिठका खड़ा वह विराट जन जीवन है जो आज भी ज्ञान अथवा सिद्वान्त से नहीं बल्कि अपने विश्वासों, संस्कारों और रीति-रिवाजों से संचालित होता है, उससे रस ग्रहण करता है और उन्हीं संस्कारों एवं रीति-रिवाजों के प्रकाश में अपने जीवन मूल्यों को परिभाषित करता है। 

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों में आदिवासी जनजीवन, डाॅ0 भरत धोंडीराम सगरे, दिव्य डिस्ट्रीब्यूटर्स कानपुर, प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ सं0- 30 एवं 31.
2. हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों में आदिवासी जनजीवन, डाॅ0 भरत धोंडीराम सगरे, दिव्य डिस्ट्रीब्यूटर्स कानपुर, प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ सं0- 30 एवं 31.
3. आदिवासी साहित्य स्वरूप एवं विश्लेषण, डाॅ0 शेख शहेनाज बेगम अहमद, समता प्रकाशन कानपुर देहात, संस्करण 2014, पृष्ठ सं0 62.
4. हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों में आदिवासी जनजीवन, डाॅ0 भरत धोड़ीराम सगरे, दिव्य डिस्ट्रीब्यूटर्स कानपुर, प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ सं0 (14)ण्
5. हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों में आदिवासी जनजीवन, डाॅ0 भरत धोड़ीराम सगरे, दिव्य डिस्ट्रीब्यूटर्स कानपुर, प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ सं0 15 एवं 16. 
6. हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों में आदिवासी जनजीवन, डाॅ0 भरत धोड़ीराम सगरे, दिव्य डिस्ट्रीब्यूटर्स कानपुर, प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ सं0 16 एवं 17. 
7. आदिवासी स्वर एवं नई शताब्दी- संथा-रमामि गुप्ता, खण्ड-2
8. आदिवासी अस्मिथा बाया कथा -साहित्य-रसाल सिंह एवं बन्ना राम मीणा अनामिया पब्लिशर्स एंण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा0) लिमिटेड, नई दिल्ली (2014),
9. वाड्मय-संपादक- डाॅ0 एम0 फीरोज अहमद, खण्ड-1 एवं 2
10. आदिवासी अस्मिता कथा- साहित्य-रमाल सिंह एवं बन्ना राम मीणा, अनामित्र पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा0) लिमिटेड, नई दिल्ली (2014).
11. आदिवासी साहित्य विमर्श- गंगा सहाय मीणा अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रा0 लिमिटेड नई दिल्ली, 2014.
12. आदिवासी स्वर सामाजिक आर्थिक जीवन, कुमार चैहान एवं श्रीमती रेनू चैहान, स्वर्ण जंयती शाहदरा, दिल्ली, संस्करण-2015
  
-कामिनी
(हिन्दी विभाग)
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ 
मो0 9721853889
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