इतिहास लेखन की आवश्यकता: साक्षी
इतिहास अतीत में या भूतकाल में निहित होता है, पर इतिहास और भूतकाल में अंतर है. वह अंतर है, इतिहास भविष्य के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान में भूत की की गई व्याख्या है. भूत’ जो की निश्चित रूप से बीत चुका है और इतिहास’ उस बीत चुके हुए जीवन का प्रकाशित अंश है और इतिहास इसी प्रकाशित अंश की व्याख्या एवं तार्किकतापूर्ण, क्रमपूर्ण एवं वैज्ञानिक विवेचन-विश्लेषण है|
अब प्रश्न यह उठता है कि इस इतिहास की आवश्यकता क्या है? इसका कारण है मनुष्य की चेतना का विकास. मनुष्य जैसे-जैसे आगे बढता जाता है वह अपना जीवन बेहतर से बेहतर बनाना चाहता है. इस बेहतर बनाने के क्रम में वह सोचता है. वह किस प्रकार यहाँ तक पंहुचा है और यहाँ तक पहुचने में उसने किस रास्ते का उपयोग किया है तथा उनमें क्या उचित और क्या अनुचित था? ये हमारे भविष्य को कैसे प्रभावित करते है? अतः सुन्दर भविष्य के हेतु एक यूटोपिया का आधार लेकर इतिहास लिखा जाता है.
इतिहास लेखन भूत की व्याख्या है एक विशेष दृष्टिकोण के साथ. हमारे सामने संपूर्ण ‘भूत’ उस तथ्य की तरह है जैसे थैली में भरे आलू की तरह पड़ा हुआ है. इस तथ्य का तार्किक संयोजन ही हमारे इतिहास को अभिव्यक्त करता है.
“History’: a true
history of something that happened long ago, retold in the present. The past is
brought to life once more, and the unequal contact between then and now has
been re-established.”[1]
मनुष्य की चेतना के निरंतर विकास के साथ इतिहास के इस पुनर्स्थापना एवं इसकी व्याख्यान की आवश्यकता बनी रहती है. सभ्यता के विकास के साथ नए तथ्य, नए वैज्ञानिक खोज हमारे वर्तमान को बदलता है. इस वर्तमान के बदलाव के कारण अतीत बदल जाता है. वस्तुतः यह अतीत का बदलना नहीं बल्कि तथ्यों के संयोजनात्मक प्रक्रिया में बदलाव होता है. इस संयोजन का आधार इतिहासकार की अपनी दर्शन होती है. इसी दर्शन के आधार पर वो तथ्यों को व्यवस्थित करता है. इस दर्शन का ग्रहण उसके चेतना के समाज से जुड़ने वाले स्वरूप पर निर्भर करता है.
साहित्य के इतिहास को लिखते समय समाज और उसके चेतनाचित) का महत्व और बढ़ जाता है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने ग्रन्थ ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’(1929 ई में लिखा है- “जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चितवृति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चितवृति के परिवर्तन के साथ साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है. आदि से अंत तक इन्हीं चितवृतियो की परम्परा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास’ कहलाता है.[2]
वस्तुतः ऐतिहासिक अवधारणा अतीत के संदर्भो का सावधानी से एक आलोचनात्मक दृष्टि के साथ किये गए संग्रहण से अधिक कुछ भी नहीं है, न ही उससे कम कुछ भी स्वीकार्य है. इन अवधारणाओं के माध्यम से जनता का चयनात्मक बोध और सार्वजनिक जीवन में मानवतावादी दृष्टिकोण अधिक विकसित हो सकता है|
बिना व्यक्तिगत स्मरण या सुचना के एक व्यक्ति निश्चित रूप से अपने अस्तित्व को खो देता है और इस हालत में वह दुसरो के साथ कैसा व्यवहार करेगा, कैसे सम्बन्ध रखेगा, यह कहना कठिन हो जाता है. कल्पना कीजिए एक सुबह आप उठते है और आप की स्मरण शक्ति नहीं है आप सब कुछ भूल चुके हैं तब आप अपने ही घर में अपने ही परिवार के लोग को अजनबी की तरह पायेंगे और आप कितना असुरक्षित अनुभव करेंगे. यह स्थिति हमें नष्ट तो नहीं करेगा पर रोजमर्रा के जीवन में हमें पंगु बना देगा. इतिहास भी इसी तरह है यह हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक यादाश्त के तरह है जो हमें प्रत्येक दिन एक गाइड के तरह सामने वाली परस्थिति, व्यक्ति, समाज के साथ के सम्बन्ध निर्देशित करता रहता है. इस तरह देखें तो इतिहास की अनभिज्ञता पहचान के आभाव को जन्म देता है.
वर्तमान में एक जनतांत्रिक युग में प्रत्येक नागरिक की अधिकार एवं कर्तव्य दोनों व्यापक हो गए है. तो इस जनतंत्र की सफलता उसके नागरिक के सक्रिय भागीदारी पर निर्भर करती है. इस सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्माण हेतु नागरिको के आपसी सहमति, सूचनाओं के आदान-प्रदान और एक ऐसा विश्वास जिस पर संपूर्ण समाज एक होने के लिए तैयार हो आवश्यक है. हमारे सामने अपने अतीत और साझा भविष्य की कल्पना नहीं हो तो हमें किसी भी समझौते के लिए तैयार होने में बहुत कठिनाइयां होंगी. इस कारण न्यूनतम साझा सहमति का होना एक समाज तथा राजनैतिक व्यवस्था के लिए एक अनिवार्य घटक है, जो कि अतीत की विश्वसनीय निश्चित ज्ञान के बिना हम इसकी अपेक्षा ही नहीं कर सकते. उस परिस्थिति में ये व्यवस्थाएं कैसे प्रतिफलित हो सकेंगी. क्योंकि हम किसी अन्य के ऊपर बलपूर्वक यह समझौतें नहीं थोप सकते कि तुम यह मानों और दूसरी तरफ यदि व्यवस्था असफल होती है तो ये जिम्मेदारी किसकी होंगी. इन विचारों का निर्णय ऐतिहासिक बोध के उपरांत ही हो सकता है. अन्यथा यह किसी के लिए आकस्मिक surprises और कुंठा (frustrating) का कारण भी हो सकता है.
ऐतिहासिक ज्ञान का मूल्य हम वर्तमान में जो पढ़ते और सीखते हैं उसके उपयोगिता और प्रमाणिकता में है. इस ज्ञान का कल क्या उपयोग होगा, जैसे परमाणु तकनीक, हमारे पास इस से जुड़ी कुछ ऐतिहासिक घटना है तो हम इसे लेकर कर अधिक सावधान रहेंगे. हमने अपने ज्ञान परम्परा में जो अर्जित किया है तथा यह भविष्य में भी अक्षुण्ण रह सके इसके लिए इतिहास लेखन एक नितांत आवश्यक कार्य है. आज इतिहास लेखन सभी अनुशासन में किया जा रहा है ‘हिस्ट्री ऑफ़ साइंस’ हो या ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ इसकी व्याप्ति हर जगह है.
हमारा अतीत हमेशा सामान नहीं रहता है, इतिहासकार हमेशा इसका नए युगधर्म के अनुसार इसकी नयी व्याख्या के हेतु संलग्न रहता है. इसके लिए वह अपनी नयी प्रश्नावली और कुछ नये स्रोत लेकर आता है जिसके माध्यम से तथ्यों के नये अर्थ का निर्माण करता है. इस अर्थ ग्रहण के कारण हमारी भूत को लेकर जो समझ है उसमे वृद्धि होती है. इतिहास का कोई अंत नहीं है बल्कि यह एक प्रक्रिया के सामान लगातार गतिमान रहता है.
“That is never really ends, but is a process.” [3]
जब भी कोई समस्या आएगी इतिहास की यह प्रक्रिया शुरू हो जाएगी. आज हिंदी साहित्य में स्त्री, दलित और आदिवासी आदि से सम्बंधित समस्याओं ने समाज में एक नये विमर्श को जन्म दिया हैं ‘हाशिये का साहित्य’ और ‘मुख्यधारा का साहित्य. अब इनसे जुड़ी इतिहास की नयी व्याख्याएं सामने आ रही है जो की हमारे अतीत के समझ को लगातार पुनर्निर्मित (reconstruct) कर रही है. सभ्यता और संस्कृति का जैसे-जैसे विकास हो रहा है वैसे-वैसे दुनिया और अधिक कठिन )complicated), गुथम-गुथा होती जा रही है. एक तरफ दुनिया वैश्विक-संस्कृति में विकसित हो रही है दूसरी तरफ स्थानीयता का उभार बढ रहा है. प्रत्येक समुदाय, क्षेत्र की विशिष्टता सामने आ रही है. इसके मूल में इतिहास का पुनराख्यान है जो की इस दुनिया कि बेहतर समझ की मांग करती है. यह उत्तरदायित्व वर्तमान में इतिहासकारों का हैं कि वो इसकी बेहतर समझ कैसे विकसित करते है. व्यक्ति व्यक्ति के मध्य का सम्बन्ध और मानवीय गुण (civilian duties and rights) का रक्षण एवं परिवर्धन कैसे करते है?
“यूनानी विद्वान् हिरोदोतस (Herodotus
456-545 ई.) ने इसे ‘खोज, ‘गवेषणा’ या ‘अनुसंधान’ के अर्थ में ग्रहण करते हुए इसके चार लक्षण निर्धारित किये थे – एक तो यह कि इतिहास वैज्ञानिक विद्या है, अतः इसकी पद्धति आलोचनात्मक होती है. दुसरे, यह मानव जाति से सम्बंधित होने के कारण मानवीय विद्या मानविकी है. तीसरे, यह तर्कसंगत विद्या है, अतः इसमें तथ्य और निष्कर्ष प्रमाण पर आधारित होते हैं. चौथे, यह अतीत के आलोक में भविष्य पर प्रकाश डालता है, अतः यह शिक्षाप्रद विद्या है.” [4]
हर व्यक्ति के अन्दर इतिहास की समझ सामान नहीं होती है. वह समझ ही नहीं पाता की किस प्रकार वह इस व्यवस्था का एक हिस्सा है जहाँ वह इतिहास निर्माण ( दुनिया के निर्माण) में अपनी भूमिका निभा रहा है. इसके लिए जरुरत होती है उनके सामने इनका (ऐतिहासिक अवधारणा) का विवेचित, व्यवस्थित क्रम में प्रस्तुतीकरण किया जाये जिसके माध्यम से एक बेहतर दुनिया के निर्माण में उनका(नागरिक का) वजूद क्या है और क्या हो सकता है इसको वो समझ सकें.
“Historians cannot tell every story from
the past, only some of them. There are gaps in the material exists (…) and
there are areas for which no evidence survives. But even with the evidence we
do have, there are many more things that could be said than we have space to
discuss. Historians inevitably decide
which things can or should be said. So ‘history’( the true stories historians
tell about the past) is made up only of those things which have caught our
attention, that we have decided to repeat for modern ears.”[5]
वस्तुतः इतिहास
सामाजिक-न्याय और बेहतर भविष्य के निर्माण हेतु अतीत की समझ है. इसके तथ्यों
के विवेचन के माध्यम से हम अपने सभ्यता और संस्कृति में निहित अतीत के गुण-अवगुण का उपयोग कर भविष्य
के समाज-निर्माण में विकास कर सकते हैं..
[१] Page-3,5. History a very short introduction: john h. Arnold, oxford university press 2000.
सन्दर्भ:-
[१] Page-3,5. History a very short introduction: john h. Arnold, oxford university press 2000.
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