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राजस्थान की लोककथाएं’ कथा-संग्रह की प्रवृतियाँ: अभिषेक भारद्वाज

‘लोक’ शब्द संस्कृत के ‘लोक दर्शने’ धातु से ‘ध  प्रत्यय करने पर निष्पन्न हुआ है| इस धातु का अर्थ ‘देखना’ होता है, जिसका लट लकार में अन्य पुरुष एक वचन का रूप ‘लोकते’ है | अतः ‘लोक’ शब्द का अर्थ हुआ ‘देखने वाला’| इस प्रकार वह समस्त जन समुदाय जो इस कार्य को (देखने का कार्य) करता है ‘लोक’ कहलायेगा| ‘लोक’ शब्द अत्यंत प्राचीन है साधारण जनता के अर्थ में इसका प्रयोग ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर किया गया है ऋग्वेद में ‘लोक’ के लिए जनशब्द का भी प्रयोग उपलब्ध होता है|[1]

डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘लोक’ के सम्बन्ध में अपन विचार को प्रकट करते हुए लिखा है कि ‘लोक’ शब्द का अर्थ ‘जन-पद’ या ‘ग्राम्य’ नहीं है बल्कि नगरों और गावों में फैली हुई वह समूची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं हैं| ये लोग नगर के परिष्कृत, रूचि संपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं और परिष्कृत रूचि वाले लोगों कि समूची विलासिता और सुकुमारिता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुए आवश्यक होती हैं उनको उत्पन्न करते हैं|[2]

 डा. कृष्णदेव उपाध्याय के मत के अनुसार ‘लोक’ की परिभाषा निम्नलिखित है –
“आधुनिक सभ्यता से दूर, अपनी सहज प्राकृतिक अवस्था में वर्तमान, तथाकथित असभ्य अशिक्षित एवं असंस्कृत जनता को ‘लोक’ कहते हैं जिनका जीवन-दर्शन और रहन-सहन प्राचीन परम्पराओं, विश्वासों तथा आस्थाओं द्वारा परिचालित एवं नियंत्रित होता है|”[3]

इससे ज्ञात होता है कि जो लोग संस्कृत तथा परिष्कृत लोगों के प्रभाव से मुक्त रहते हुए अपनी पुरातन स्थिति में वर्तमान हैं उन्हें ‘लोक’ कि संज्ञा प्राप्त होती है| वस्तुतः अहंकार-भाव (साहित्य को निजी रचना न समझना) से रहित इन्हीं लोगों के साहित्य को लोक साहित्य कहा जाता है | यह साहित्य प्रायः मौखिक होता है तथा परम्परागत रूप से चला आता है| यह साहित्य जब तक मौखिक रहता है तभी तक इसमें नित नूतनता, प्रवाहमान जलधारा के सामान ऊर्जा वर्तमान रहती है जो कि इसे कालजयी बनाती है| लिपीबद्ध होने के उपरांत इसकी लोकोन्मुख स्वभाव समाप्त हो जाती है|

बहुतरे लोक संस्कृति और नागर संस्कृति पूरक एवं अन्योनाश्रित होते हैं | ये एक दूसरे से शक्ति ग्रहण करते रहते है| किसी देश के धार्मिक विश्वासों, अनुष्ठानों, तथा क्रिया-कलापों, के पूर्ण परिचय के लिए दोनों संस्कृतियों में परस्पर सहयोग अपेक्षित रहता है और उसके लोक को समझना अत्यंत आवश्यक है| इसका बीज भाव हमें ‘वेद’ में दृष्टिगोचर होता है तथा इसका सर्वोतम उदहारण महाभारत है| जहाँ एक साथ लोक और अभिजात्य दोनों ही संस्कृतियों का समुच्य मिलता है| इसके कारण महाभारत में लोक कथाओं की बहुलता है| आप तत्कालीन (महाभारत कालीन) जीवन के किसी भी प्रसंग का उदहारण महाभारत में खोज सकते है| इसके साथ ही लोक और आभिजात्य के पृथकता के स्थिति का भी परिचय आप यहाँ पा सकते हैं| इसे महाभारत के नायक योगपुरुष श्री कृष्ण ने, वेद से पृथक लोक की सत्ता को स्वीकार किया है| वे कहते हैं कि मैं लोक और वेद में भी ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध हूँ|


 “अतो स्मी लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः||”[4]
लोक साहित्य को प्रधानतया पांच भागों में विभक्त किया गया है:-
लोक-गीत ( folk-lyrics ),
लोक-गाथा (folk-ballads ),
लोक-कथा ( folk-tales ),
लोक-नाट्य ( folk-drama ),
लोक-सुभाषित ( folk-sayings )|[5]

लोक साहित्य के वर्गीकरण में लोक कथाओं का प्रमुख स्थान है| ये अपनी सरसता और लोकप्रियता के कारण महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं| हमनें बचपन में अपनी दादी, नानी, माँ या अन्यों से इस प्रकार की कई कहानियां सुनी हैं जैसे- ‘चंदा मामा’, ‘राजकुमारी फूलकुमारी’आदि| वस्तुतः अपनी बोधगम्यता के कारण ये अचूक प्रभाव रखती है| ये बालको के हेतु प्रथमतः शिक्षा एवं समाज से जोड़ने का माध्यम हैं| इनका भारत में एक लंबी परम्परा दिखती है जैसे- पंचतंत्र, हितोपदेश आदि|

लोक कथाओं के वर्ण्य-विषय की दृष्टि से इन्हें छः वर्गों में विभाजित किया गया है:-
उपदेश-कथा,
व्रत-कथा,
प्रेम-कथा,
मनोरंजन-कथा,
सामाजिक-कथा,
पौराणिक-कथा |[6]
विवेच्य कथा संग्रह ‘राजस्थान की लोककथाएँ’ में से कुल 24 कहानियां यहाँ विवेचन हेतु ली गई हैं| वास्तव में ये सभी कथाएं लघु-कथा है| अपने स्वरूप में सरल, सहज और मूल अर्थों में यह उपदेशात्मक है किन्तु हम इन्हें सामाजिक और मनोरंजन कथा के वर्ग में भी रख सकते हैं|
इस के कथा निष्कर्ष या उद्देश्य के आधार पर जो वर्ग श्रेणियाँ बनती है वो निम्नाकिंत है -
व्वहारकुशलता हेतु या बुद्धि की कीमत,
स्वार्थ और लालच आधारित,
अहम का अभाव और जमीनी सोच
वेश्यागमन का दुष्परिणाम
जाति का प्रभाव,
ज्ञान को प्रमुखता सौंदर्य गौण,
कर्मठता का प्रभाव,
कंजूसी की बुराई,
पारब्ध्य (भाग्य),
वीरगाथा,
शास्त्र से अधिक लोक ज्ञान महत्वपूर्ण |
व्वहारकुशलता हेतु या बुद्धि की कीमत : इस वर्ग में ‘दुनिया सुआरथ की है’, ‘मुनीम और नौकर’, ‘मुरख नौकर’, ‘वखत की सूझ’, ‘बेगम भाई नै वजीर बणायो’, आदि रखे जा सकते हैं| इस वर्ग कि कहानियों में लोक में प्रचलित संबंधो और व्यवहारों के माध्यम से व्यक्ति को व्यवहारकुशल होने कि सीख दी गई है|

स्वार्थ और लालच आधारित : इस वर्ग की कथा में मुख्यतः ‘दुनिया सुआरथ की है’, ‘जाट और बाणियों’, ‘नाई को ठोलो’, ‘बनिये को टक्को’, ‘गोकुलिये गुसाइयों की लीला’ आदि आएगें| अहम का अभाव या जमीनी सोच : ‘काकलासर तो आ ढूक्या’ इसी वर्ग कि कथा है जो कि बीकानेर के महाराज से सम्बंधित है| वेश्यागमन का दुष्परिणाम : ‘भगतण की सीख’ में सेठपुत्र के वेश्या के प्रेम में अपनी समस्त संपत्ति को नष्ट कर देने कि कथा है | यह लोक में प्रचलित मदिरा और वेश्या के संगत को लेकर जो धारणा बनी हुई है उसी के अनुरूप है|



जाति का प्रभाव : ‘राजा सांसन नै ब्याही’ कथा में यह यह बताया गया है कि आदमी बड़ा होने से उसके जाति का प्रभाव नहीं छूट जाता है| जैसे एक लोकोक्ति है- ‘आदत जात कभी ना छूटे कुत्ता टांग उठाके मूते’| लोक के अन्दर इस प्रकार की जातिवादी मानसिकता एक नकारात्मक और रूढ़ीवादी स्वभाव के रूप में रहती है, भारतीय ग्राम इसका सबसे जीवंत उदहारण हैं| वस्तुतः यह सामंतवादी जीवन मूल्य का प्रभाव है जिसके कारण शोषण आधारित जातिवादी व्यवस्था को बढ़ावा मिलता है|

ज्ञान को प्रमुखता, सौंदर्य गौण : ‘इसी रानियाँ कई आवै’ कथा में बाँकीदासजी एवं जोधपुर नरेश मानसिंह जी के महारानी का मध्य के अहं की टकराव का वर्णन है जिसमें महाराज कहते है कि “कवि ने ठीक ही तो कहा था, यदि मैं चाहूँ तो तुम जैसी कई रानियाँ ला सकता हूँ, लेकिन ऐसा विद्वान कवि मुझे दूसरा नहीं मिल सकता|”[7]

कर्मठता का प्रभाव : ‘शिवजी को शंख’ कथा में भगवान शिव किसान की कर्मठता से प्रभावित होते है एवं प्रेरित होकर अपना कर्म करने के लिए शंख बजाते है, तदोपरांत वर्षा होती है| अर्थात ‘जो अपनी सहायता करता है ईश्वर भी उसी की सहायता करते है|’ कंजूसी की बुराई : ‘कंजूस को धन’ में धन की सार्थकता केवल उसके संग्रह में न हो कर उसके उपयोग में है| धर्म-शास्त्रों में ‘धन की तीन गति’ स्वीकार किया गया है- सर्वोतम गति ‘सत्पात्र को दान’, मध्यम  गति ‘भोग’, और तृतीय गति स्वमेव होती है ‘नाश’| एक लोकोक्ति है ‘सोम के धोन दीमक खाय’(कंजूस का धन दीमक खाता है)|
  पारब्ध्य (भाग्य) : ‘बिना करम में लिखें धन कोनी मिलै’, ‘अब क्यूं रोवै?’, इस तरह की कुछ कहानियों में पारब्ध्य की सर्वोच्चता स्वीकार किया गया है| वस्तुतः भाग्य का सम्बन्ध पूर्वजन्म के कर्म से जोड़ा गया है और इस अर्थ में यह अटल है इसमें कोई बदलाव नहीं हो सकता| सामान्य भारतीय जनता भाग्यवादी है इन्हीं धारणा का परिचय यहाँ मिलता है| इस कर्म के विधान हेतु शकुन-अपशकुन की अवधारणा निर्मित हुई है| जिसके लिए हम ईश्वर से ‘मनोती’ (मान्यता) करते है| यदि निष्पक्ष रूप से देखें तो यह ईश्वर को घूस ही देना तो हुआ जिसमें ईश्वर को हमारे काम के पूरा करने पर उपहार स्वरूप देते हैं| 

वीरगाथा : ‘महाराज पद्मसिंह’, और ‘ठाकुर केसरी सिंह’ राजस्थान के वीरतापूर्ण प्रवृति का द्योतक कथा है| शास्त्र से अधिक लोक ज्ञान महत्वपूर्ण : ‘पढयो पण गुन्यो कोनी’ में वैद्य के पुत्र के मुर्खता के माद्यम से यह ज्ञान दिया गया है केवल पोथी वाचन से व्यक्ति गुणी नहीं हो जाता अपितु लोक का ज्ञान आवश्यक है, शास्त्र से इसका किंचित भी कम महत्व नहीं है| ‘राजस्थान की लोककथाएँ’ में जीवन के विविध प्रसंग आए है इसी कारण प्रवृतिगत बहुलता दिखती है| यहाँ पर इनका एक सामान्य प्रवृतिगत व्याख्या करने का प्रयास किया गया है| ये हमें जीवन को देखने समझने का एक नजरिया देते हैं|  

संदर्भ:-


[1]पृष्ट-9, लोक साहित्य की भूमिका : डा. कृष्णदेव उपाध्याय, साहित्य भवन(प्रा.) लिमेटेड, 2003|
[2]पृष्ट-11, वहीँ
[3]पृष्ट-22, वहीँ|
[4] 15/18, श्रीमद्भगवद्गीता, गीताप्रेस गोरखपुर|
[5]पृष्ट-53,लोक साहित्य की भूमिका : डा. कृष्णदेव उपाध्याय, साहित्य भवन(प्रा.) लिमेटेड, २०१३
[6]पृष्ट-131, वहीँ|
[7]पृष्ट-192, राजस्थान की लोककथाएँ( विवेच्य पुस्तक)|

                                                                                                               -अभिषेक भारद्वाज                                           
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