कितना धार्मिक, कितना लोकतांत्रिक है बनारस : काशीनाथ सिंह
शिव प्रकाश : आपको ऐसा क्यों लगा कि वाराणसी शहर के ऊपर एक किताब लिखनी
चाहिए?
काशीनाथ सिंह : मैंने सोचा नहीं था इस किताब के बारे में कि मैं
लिखूँगा. मैं संस्मरण लिख रहा था. मेरे दिमाग में संस्मरण था और फिर ये दिमाग में
आया कि जब व्यक्तियों पर संस्मरण लिखा जा सकता है तो स्थानों पर क्यों नहीं लिखा
जा सकता है, एक लोकेल होना चाहिए. और खास तौर से अस्सी वह जगह है, जहाँ मेरा उठाना
बैठना बराबर का था. विश्वविद्यालय से आता था, दुकान में बैठता था 3-4 घंटे, लोगों
से मिलता जुलता था. सहसा मेरा ध्यान गया कि यहाँ के लोग जो बनारस में रहे हैं, उनका
सोचने का ढंग कुछ अलग है. राजनीति के बारे में, साहित्य के बारे में, दुनिया
की समस्याओं के बारे में, जो पूरे विश्व में परिवर्तन हो रहे हैं, उनकी
दृष्टि वही नहीं है. जो अख़बार कहते हैं या लोग कहते हैं या नेता कहते हैं या
सत्तापक्ष कहता है या विपक्ष कहता है. ये लोग उनसे अलग हट के सोचते हैं. शुरू में
तो केवल एक मोहल्ला था मेरे दिमाग में. फिर मुझे लगा कि यह मोहल्ला पूरे नगर के
सामान्य जन, मध्य
वर्ग, गाने बजाने वाले, और जितने ये प्रोफेसर हैं,
विद्यार्थी हैं, छात्रनेता हैं, दूध बेचने वाले हैं, चाय बनाने वाले हैं, सब्जी
वाले हैं, भाँग के चक्कर में सब आया करते हैं, चाय पिया करते हैं, गप्पे किया करते
हैं और चाहे जो बातें होती रहती हैं, चाहे प्रोफेसर कह रहा हो, उसके
विरोध में एक सामान्य आदमी अपनी टिपण्णी करता है. ये संवाद लोकत्रांतिक है. मुझे
लगा कि बनारस की प्रकृति में यह शुरू से ही रहा है जिसके लिए शंकराचार्य आये थे,
स्वामी दयानंद सरस्वती आये थे. शास्त्रार्थों की परंपरा रही है यहाँ. तो मुझे लगा
कि पूरा इलाका, पूरा खित्ता रिप्रेजेंट कर रहा है पूरे नगर को तो क्यों न इसे
बनारस के प्रतिनिधि मोहल्ले के रूप में लिया जाये. इसके बारे में लिखा जाये.
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Banaras |
शिव प्रकाश : क्या आपने इस शहर को राजनीतिक दृष्टिकोण से
दर्शाने की कोशिश की है?
काशीनाथ सिंह : राजनीतिक दृष्टि भी है इसमें. क्योंकि सारी पार्टियों
पर टिप्पणियां हैं इसमें. और प्रायः पार्टियों के नेता जो आते हैं और टिप्पणियां
करते हैं. उनसे असहमतियां भी हैं इसमें. यहाँ तक कि मैं खुद मार्क्सिस्ट विचारधारा
का आदमी रहा हूँ लेकिन सी.पी.आई. और सी.पी.एम. के खिलाफ भी टिप्पणियां हैं. और ये टिप्पणियां
लोकतंत्र के एक प्रतिनिधि के रूप में की गयी हैं. जो हो रहा है उससे असहमत हैं हम
और यहाँ के लोग. तो इसके साथ ही एक और है, इसमें आर.एस.एस. के बारे में और बीजेपी के बारे में बहुत
तीखी टिप्पणियां हैं. इसका मतलब ये बताना है कि जो छवि जो बाहर बना रखी गयी है कि नगर
बड़ा धार्मिक है, तीर्थ है, सारे साधू हैं, सन्यासी हैं, ब्राह्मणों नगर है, इसपर एक
तीखी टिपण्णी करता है यह पूरा उपन्यास कि इसी रूप में नहीं देखना चाहिए इस नगर को.
यह न तो धार्मिक है न उस तरह का तीर्थ है. न कर्म कांड जो हो रहा है क्योंकि कर्म
कांड पर एक पूरी कहानी है इसमें. पण्डे कौन कुमति तोहे लागी, जहाँ वह अपने स्वार्थ
के लिए शिवमंदिर भी तोड़ता है और शौचालय भी बनवाता है. तो एक तरह से बहुत ही
दत्तचित होके तटस्थ दृष्टि से इस नगर को देखने की कोशिश की है|
शिव प्रकाश : बनारस शहर को आप कैसे देखते हैं, कैसे पढ़ते हैं अगर दूसरे
शब्दों में कहा जाए तो?
काशीनाथ सिंह : बनारस को मैं एक मिनी-भारत के रूप में देखता हूँ
क्योंकि इसमें तमिलों के मोहल्ले अलग हैं, कन्नडों में मोहल्ले अलग हैं,
गुजरातियों के हैं, महाराष्ट्रियों के हैं, बंगालियों के भी, मुसलमानों के हैं,
हिन्दुओं के हैं. सबके मोहल्ले हैं. तो इस अर्थ में मिनी-भारत है. दूसरा, मैंने
देखा कि दाराशिकोह को संस्कृत पढ़ाने वाला यहाँ का सबसे सम्मानित ब्राह्मण परिवार
था. पिछली शताब्दी में कमलापति त्रिपाठी रह चुके हैं, उनके पुरखों ने पढाया था
दाराशिकोह को. ऐसा कहा जाता है कि इतना परम्पराभोगी, परम्परावादी इस नगर का
ब्राह्मण भी नहीं रहा है जितना आज उसे प्रोजेक्ट किया जाता है. ये सब नहीं था. दूसरा, इस नगर
में अपने से दंगे कभी नहीं हुए, जब भी हुए करवाए गए. गंगा-यमुनी तहजीब यहाँ की
पहचान रही है. उपन्यास लिखते जाने के बाद संकट मोचन पर बम बिस्फोट हुआ था,
आतंकवादियों ने किया था. और मैंने देखा कि संकट मोचन के महंथ और इसी नगर के जो
क्या बोलते है उन्हें, मुसलमानों के सबसे बड़े धार्मिक नेता, इस दोनों ने मिलके
सामूहिक रूप से शांति की अपील की थी. ये प्रकृति रही है इस नगर की. उसमें जब
भाजपाई, आरएसएस, बजरंग दल या शिव सेना के लोग वोटों के लिए छोटे मोटे स्वार्थों के
लिए ये लोग कुछ हरकते या दंगे करवाना चाहते हैं तो बड़ा अटपटा लगता है. ये स्वभाव
नहीं रहा है इस शहर का. बहुत ही शांतिप्रिय, एक ज़माने में कहा जाता था कि बहुत
आलसी निकम्मा, अपने काम से काम रखने वाला, चना चबेना मिल जाये घाट पे सोने वाला फुटपाथ
पे सोने वाला नगर रहा है. यानि जिसे आप बेवकूफ समझते हैं, घाट पर घूमता हुआ दिखाई
पड़ता है संस्कृत काव्य की परम्परा से पूरी तरह से परिचित मिल सकता है आपको. अद्भुत
शहर रहा है ये.
शिव प्रकाश : अगर आप शहर को कुछ कथनों में शब्दबद्ध करने को कहा जाए
जैसे कि बनारस एक ऐसा शहर है जहाँ मृत्यु को उत्सव के रूप में देखा जाता है या
बनारस एक कवियों का शहर रहा है, कैसे शब्दबद्ध करेंगे आप?
काशीनाथ सिंह : चार-पांच कथनों की बात तो मैं नहीं जानता. मैं इतना कह
सकता हूँ कि यह नगर अन्य शहरों से इस माने में भिन्न है कि जीवन से भरपूर रहा है.
जहाँ पूरा वर्ष, अब तो दिखावे के लिए किया जाता है लेकिन पूरा वर्ष हर दिन यहाँ
पर्व है, त्यौहार
है. जीवन जीने की लालसा से भरे होते हैं लोग. तो यह खासियत भी रही है और पहचान भी
रही इस शहर की, जिसके लिए देश-विदेश से लोग आते हैं देखने के लिए. इस नगर का
अपना एक संगीत है. भरा पूरा जीवन का राग है ये.
शिव प्रकाश : इसीलिए यह शहर विश्व के अन्य शहरों से भिन्न है?
काशीनाथ सिंह : हाँ. मुझे याद है कि 1960 में अमरीका का बड़ा ही मशहूर
कवि आया था और गमछा पहन के घूमा करता था. आज भी गमछा और लुंगी पहन के, यानि ये नगर
अनुकरण नहीं करता है, इसका अनुकरण लोग करते हैं. इसके लिविंग का. जीने के, रहने के, खाने-पीने
के तौर-तरीके का. ये अलग बात है कि आज इसे क्योटो जैसा बनाने के बहाने नष्ट करने
की तैयारियां चल रही हैं.
शिव प्रकाश : आपकी भाषा-शैली इस उपन्यास में आपकी अन्य रचनाओं से
भिन्न है, जो विवाद की जड़ भी रही है. पाठकों, अन्य लेखकों और खुद इस उपन्यास के
पात्रों के बीच. ऐसा क्यों? क्या आप ऐसा सोचते हैं कि वाराणसी के ऊपर लिखने के लिए
ऐसी भाषा-शैली आवश्यक है?
काशीनाथ सिंह : बिना ऐसी भाषा-शैली के बनारस के बारे में लिखा ही नहीं
जा सकता था. मैंने जान बुझकर ऐसी भाषा का इस्तेमाल नहीं किया. मेरी मज़बूरी थी. अगर
लिख गया ये उपन्यास तो इसका श्रेय मुझे नहीं बनारस की बुरी बानी को है. बनारस की
जीवन शैली, बनारस
की भाषा, बनारस
की मुहवारेदानी, डिक्शन, तौर-तरीका, गालियां आती है बीच में, जिससे लोगों को ऐतराज
है पर वह बनारस की जुबान है. उसके बिना लिखा नहीं जा सकता है. मैंने लिखने के
दौरान शिष्ट होने की कोशिश की थी लेकिन हुआ कि ये तो बनारस नहीं होगा. इसके बिना
बनारस नहीं हो सकता था.
शिव प्रकाश : तो जो लोग टिप्पणी करते हैं वो इस बात से अपरिचित हैं कि
अगर ऐसा न होता तो ये उपन्यास इस शहर को ठीक से रिप्रेजेंट नहीं कर पाता?
काशीनाथ सिंह : देखिए जो लोग टिप्पणी करते हैं वे बड़े ही अभिजात और सुफिस्टिकेटेड
लोग हैं, भद्र लोग हैं. और अपरिचित हैं यहाँ की जीवन शैली और यहाँ की भाषा से. वे
नहीं जानते. वर्षों तक यही हुआ है इस उपन्यास के साथ. यानि एक सामान्य पाठक जैसे
आपके सुपरवाइजर को ये उपन्यास पसंद आया लेकिन जो हिंदी का शिष्ट पाठक रहा हैं उसे
यह उपन्यास कभी पसंद नहीं आया. हरियाणा के लोग पसंद करते हैं. यानि दूसरे राज्यों
के पाठक हैं उन्हें पसंद आता है लेकिन हिंदी के पाठकों को भी पसंद आया लेकिन
साहित्यकारों को नहीं आता, लेखकों को पसंद नहीं आता, बुद्धिजीवियों को पसंद नहीं
आता.
शिव प्रकाश : आपने अन्य लेखकों को भी पढ़ा होगा जो वाराणसी के ऊपर
किताबें लिखे हैं. वाराणसी शहर विभिन्न लोगों के लिए क्या मायने रख सकती है या रख
सकती है?
काशीनाथ सिंह : मैंने बनारस के बारे में जो कुछ भी पढ़ा है, मुझे बनारस
का भूगोल, इतिहास
ही दिखाई पड़ा है जीवन नहीं दिखाई पड़ा उसमें. केवल एक किताब जिसका जिक्र किया था
मैंने तुमसे “बहती गंगा”, बहती गंगा में बनारस है लेकिन वह बनारस उन्नीसवीं
शताब्दी का है. वो वर्तमान बनारस या बीसवीं शताब्दी का बनारस या आजादी के बाद का
बनारस नहीं है. लोकतंत्र का बनारस नहीं है. वो आधुनिक और वैश्वीकरण के बाद का
बनारस नहीं है.
शिव प्रकाश : तो और लोगों के लिए कहा जाए तो आपके शब्दों में बनारस का
इतिहास दिखा महत्वपूर्ण है?
काशीनाथ सिंह : इतिहास या भूगोल और वो भी डाक्यूमेंट्स के आधार पर,
बनारस के बारे में जो कुछ पढ़ा है उसके आधार पर लोगों ने लिखा है.
शिव प्रकाश : और वहां ये उपन्यास बाकियों से भिन्न है?
काशीनाथ सिंह : इस मायने में भिन्न है कि इसमें आजादी के बाद का और
खास कर के वैश्वीकरण के बाद का बनारस है.
शिव प्रकाश : तुलसीराम जो प्रोफेसर थे JNU के वाराणसी को मृत्यु के
उद्द्योग वाला शहर बताया है. आपकी दृष्टि में मृत्यु इस शहर का उद्योग है या
उत्सव? और एक लाइन में आपके उपन्यास से कहना चाहूँगा. पेज नं. 25 पे... “जिस देश
में मुर्दा फूंकने के लिए घूस देना पड़ता हो उसमें सिद्धांत?” तो आपकी दृष्टि में
इस शहर का उद्योग है या उत्सव?
काशीनाथ सिंह : देखिये! मृत्यु से कमाई करने वाले लोग भी हैं इसमें.
क्योंकि आरंभिक दिनों में दो ही राजा माने जाते थे इस नगर में. राम नगर के राजा और
डोम राजा. राजा दो ही थे. और यहाँ का राजा जो है, डोम राजा जो है वो किसी राजा से
कम नहीं था और न है. क्योंकि जितनी घाट हैं, यहाँ तो दो ही घाट हैं मान लीजिये
लेकिन गंगा से गए हुए अधिकतर जितने घाट हैं और जिलों तक उनसे वो वसूली करता है वो.
शिव प्रकाश : डोम राजा?
काशीनाथ सिंह : हाँ, लगान के तरह जैसे ली जाती है (हँसते हुए) वैसे
लेता है वो. बाकी फूलवाले हैं, चुनरी बेंचने वाले हैं, लकड़ी वाले हैं, नाई है,
पंडित हैं, हाँ ये यानि एक अच्छी खासी संख्या है जो इन घाटों से परजीवित रहती है.
घाटों के सहारे जीवित रहती है.
शिव प्रकाश : मतलब ये कि किसी की मृत्यु बहुतों की जीविका निर्धारित
करती है.
काशीनाथ सिंह : हाँ, हाँ आजीविका है. तो तुलसीराम का ये कहना तो सही
है, उद्योग है. लेकिन जिनकी मृत्यु होती है. मृत्यु के बारे में जो सोचते हैं लोग
या मृत्यु के बारे में उनकी जो अवधारणा है वह उद्योग नहीं है. ह्म्म्म? यानि
मृत्यु को बड़े ही.... गाते बजाते जुलूस निकलता है राम नाम सत्य है सबकी यही गति
है. (हँसते हुए). तो जो घर में जो रोते हैं वो रो लेते हैं. जो दुखी होते हैं
इसमें दो राय नहीं है लेकिन ये मानते हैं की उसका स्वर्गवास हुआ है. मरा है स्वर्ग
में जायेगा. कहीं न कहीं लोगों के मन में है कि जो शरीर इसका ख़तम हुआ है वो जीवन
भर जो कुछ इसने किया है उसका पुण्य इसे मिलेगा. ह्म्म्म? तो एक तरफ तो कमाई है
लोगों की आजीविका है उद्योग है लेकिन दूसरी तरफ मरता है जो आदमी, यानी मृत्यु की
कल्पना आदमी के दिमाग में भयावह और डरावनी यहाँ नहीं है जैसे और जगहों पर है.
शिव प्रकाश : तो इस ख़ुशी में की स्वर्ग मिलेगा वो उत्सव भी है?
काशीनाथ सिंह : हाँ. उत्सवधर्मिता भी है वो.
शिव प्रकाश : कथरिन जो एक काल्पनिक पात्र आपके उपन्यास की हैं. उनका कहना
है की वाराणसी मर रहा है. उन्होँने जो वाराणसी के बारे मे पढ़ा है, सुना है आज
देखने को नही मिलता है. इसपे क्या कहना है आपका ? इसके बारे में एक तो उसने अपने काम की
चीजें कोट की हैं. और ये लेखक की ओर से यानी मेरी ओर से पूरा का पूरा ये व्यंग्य
है. व्यंग्य किसके लिए? शहर के लिए या कथरिन के लिए? ये कथरिन के लिए है. जो उसने समझा है और जितना अपने
काम का लिया है उसने...इशारा धार्मिक कर्मकांडों की तरफ है. इसलिए कि जिसने भी यह
लिखा है कहा है, कहा तो किसी ने नहीं है कहा है लेखक ने ही. हम्म? पंचांग इसी
मोहल्ले में बनता था. पंचांग का एक घर था जहाँ हर साल पंचाग बना करता था. भदैनी
मोहल्ला में. हम्म? और वो ब्राह्मणों का ही मोहल्ला है. ट्रेडिशनल लोगों का. यानि
जिन प्रवासियों का जिक्र मैंने किया है वो प्रवासी तो बाहर के हैं. आस-पास के
जिलों से आये हुए लोग हैं. मऊ के, आजमगढ़ के, गाजीपुर के, बलिया के, सासाराम के, भभुआ के,
मिर्ज़ापुर के ये प्रवासी हैं. ये उनके लिए नहीं है. जो आदिवासी जिनको कहा आया है
मोहल्ले के रहने वाले लोग ये उनके बारे में टिप्पणी है वस्तुत:. हम्म? कि वे क्या
हैं? ये बताया गया है. और ये व्यंग्य कथरिन पर है. इसीलिए इसे कॉण्ट्राडिक्ट किया
है ब्रम्हानंद ने अपनी तरफ से कि यह आजीविका नहीं भयादोहन कहिये ईश्वर और धरम के
नाम पर. हम्म? कि ये जो करते हैं पंडित लोग ये भय दिखा के. इन यज्ञ, हवन, पूजन,
अनुष्ठान, मुहूर्त, लग्न, कुंडली, ज्योतिष
की अगर ऐसा नहीं करोगे ये सब देखते हुए तुम अपना काम नहीं करोगे तो नाश हो जायेगा
तुम्हारा. (हँसते हुए) ब्लैकमेलिंग सही शब्द तो नहीं है किसके लिए लेकिन धर्म और
इश्वर के नाम पर डरा रहे हैं. डराते हैं और कमाई करते हैं.
शिव प्रकाश : तो व्यंग्य बस इसीलिए लिए हैं कि उसने बस अपने काम की
चीजे चुना?
काशीनाथ सिंह : वही बस अपने काम की चीजे चुना. यानि जो बनारस का एक
बनारस के बारे में एक अवधारणा बनी हुयी है उस अवधारणा को ही कोट किया है उसने.
शिव प्रकाश : और ये आज से नहीं बहुत पहले से है. जर्मन लोग भी जब
लिखते हैं तो ऐसे ही लिखते हैं.
काशीनाथ सिंह : हँसते हुए, जर्मन लोग भी लिखते है. विदेशी लोग इसी रूप
में लिखते हैं, देखते हैं इस नगर को. हम्म? क्योंकि जर्मन ने काफी काम किया है
संस्कृत में.
शिव प्रकाश : हमने भी जितने ऑथर्स को पढ़ा है ये जो अवधारणा है पूरे
इंडिया की वाराणसी की वो भी वही रेप्रेज़ेंट करते हैं.
काशीनाथ सिंह : यह उसी अवधारणा पर टिप्पणी है भयादोहन वाली. धर्म और ईश्वर
के नाम पर ठगी है.
शिव प्रकाश : तो कथरिन इन सब बातों से अनभिज्ञ है और दुबारा वही चीज
लिखना भी चाहती है. और ये भयादोहन के बारे में जिनने की कोशिश भी नहीं कर रही हैं.
काशीनाथ सिंह : हँसी, हाँ नहीं
कर रही हैं.
शिव प्रकाश : आपकी निगाह में वाराणसी संस्कृति का केंद्र है या धर्म
का?
काशीनाथ सिंह : ये संस्कृति का केंद्र है भाई. हम्म? और धर्म के नाम
पर कर्म-कांड हैं केवल यहाँ. धर्म जैसी चीज है ही नहीं. हम्म? धर्म को उन्माद के
रूप में अब विश्वहिंदू परिषद् और दूसरे राजनीतिक पार्टिओं ने बना रखा है. तो धर्म
जैसी चीज है ही नहीं. यहाँ सिर्फ कर्म-कांड ही है. बेसिकली यह संस्कृति का केंद्र
रहा है. जहाँ प्रायः जितने दार्शनिक रहे हैं यानि बुद्ध यहाँ पैदा हुए उन्होंने
धर्म को ‘धम्म’ कहा. महावीर यहाँ पैदा हुए जिन्होंने जैन धर्म चलाया. सनातन धर्म
जिसे मानते रहे हैं ट्रेडिशनल हिन्दू उनके सामानांतर उनके खिलाफ बराबर दुसरे
धर्मों का उद्भव होता रहा है कि तुम संकीर्णता में सोचते हो. ये धर्म इतना संकीर्णवादी
है नहीं. यानि यहाँ जो कहना चाहिए कि जात-पात तो क्रिएट की गयी ऐसा कोई अलगाव था
ही नहीं यहाँ शुरू से ही. तो बल्कि शुरू वाले चैप्टर में जब मंडल आयोग गठित होता
है और आरक्षण वोगैरह लागू होता है तो उस पर टिप्पणियां भी हैं. हम्म? तो बेसिकली,
मुख्यतः जो धर्म के बारे में चिंतन करने वाले हैं वे अलग-थलग पड़ गए हैं. यह
कर्म-कांड और क्रिया-कर्म के शहर के रूप में आज जाना जाता है. और उसी को लोग धर्म
मान लेते हैं. इतना है सिर्फ.
शिव प्रकाश : मुख्यतः यह संस्कृति का केंद्र है धर्म का नहीं.
काशीनाथ सिंह : संस्कृति का केंद्र है. जैसे कहते हैं न गंगा यमुनी.
यहाँ बौध भी हैं. ईसाई भी है, जैनी भी हैं और हिन्दू धर्म जैसे आज बहुत
संकीर्ण बना दिया गया है उस हिन्दू धर्म वाले भी हैं उन्हें ऐतराज नहीं तो नहीं
था. यानि, वरना दाराशिकोह को क्यों फारसी पढ़ाई जाती. तो यह सब चीजे बाद में हुयी
हैं. राजनीतिक कारणों से या जिन कारणों से हुआ हो लेकिन मुख्यतः यह धार्मिक समन्यव
का केंद्र रहा है. और इसी अर्थ में कहते रहे हैं कि ये नगर गंगा यमुनी संस्कृति का
केंद्र रहा है.
शिव प्रकाश : क्या वाराणसी बदल रहा है? क्या इस पर भूमण्डलीकरण का असर
पड़ा है? वर्तमान वाराणसी को भविष्य के क्योटो के रूप में कैसे देखते हैं आप?
काशीनाथ सिंह : देखो! इसके विरोध में आवाजें भी उठती रही हैं इस नगर
में. कि इसे बनारस ही रहने दिया जाये क्योटो न बनाया जाये. और क्योटो यहाँ कितने
लोगो ने देखा है हमको नहीं मालूम. हम्म? नाम भी बहुत सारे लोगों ने नहीं सुना है.
तो यहाँ इसका विरोध हो रहा है कि इसे क्योटो न बनाया जाये. क्योटो शायद जापान में
जो धर्म है उसका केंद्र माना जाता है जहाँ सबसे अधिक बौद्ध मंदिर हैं. हम्म? तो यहाँ
क्योटो कहने का मतलब कि यह धर्म का केंद्र बने. क्योटो कहने का मतलब है कि इसका
रंग भी बदले और मुख्य रूप से धार्मिक केंद्र बने. और बनारस में समझदार लोग हैं पढ़े
लिखे बुद्धिजीवी वे लोग इसके खिलाफ हैं. बार बार आवाजे उठ रही हैं कि इसे बनारस
रहने दिया जाये क्योटो न बनाया जाए लेकिन सत्तापक्ष अभी सुन रहा है. हम्म? और उसके
नाम पर विकास के नाम पर जो नगर में हो रहा है. मल्टीप्लेक्स बिल्डिंगें बन रही
हैं. ये मॉल खुल रहे हैं. हम्म. यानि बहुत से लोग जिन्हें छतों की आदत थी छतें नहीं
लोगों को मिल रही हैं. तो एक बेचैनी इस चीज को लेकर है कि ऐसा न हो कि इसे सचमुच
इसके रूप को बिगाड़ा जाये. क्योंकि कालोनियां ढेर सारी बस गयी हैं और कॉलोनियों के
रिश्ते मोहल्लों के रिश्तों से अलग हैं. मोहल्ले में भाई चारा था. आपस में एक दूसरे
के सुख दुःख में शामिल होने का भाव था. कॉलोनियों में ये चीजे ख़त्म हो रही हैं. तो
ये तो आधुनिकता के चलते होगा ही. लेकिन ये सबके मन में है कि इसे बनारस ही रहने
दिया जाये तो ज्यादा अच्छा है. हम्म?
असर बिलकुल पड़ा है भाई. उपन्यास पूरा का पूरा इसी पर बेस्ड है. हम्म?
खास तौर से इसको ध्यान में रखते हुए एक कहानी लिखी है इसमें “पांडे कौन कुमति
थोंहे लागी” जिसमें किस तरह से पहले जिन्हें मलेच्छ कहा जाता विदेशियों को उनको
किरायेदार बनाया जा रहा है. और उनकी सुविधा के लिए जो घर का शिवमंदिर था उसे
शौचालय में तब्दील किया जा रहा है. हम्म? पैसे के लिए कि किराया ज्यादे मिलेगा.
यानि देशी किरायेदारों की तुलना में विदेशी किरायेदार होंगे वे उन्हें जब चाहे तब
वो हटा सकते हैं और कभी भी छोड़ के जा सकते हैं. हम्म? उनसे वो अपने आप को ज्यादे
सुरक्षित मानते हैं. और सबसे बड़ी बात कि आर्थिक लाभ दिखाई पड़ रहा है उन्हें.
विदेशियों के होने से किरायेदार से वे, विदेशी किरायेदार से वे मनमानी रकम वसूल
सकते हैं क्योंकि उनकी मजबूरी है. होटल ज्यादे महंगे होते हैं और ये पेइंग गेस्ट
के रूप में रख सकते हैं इन्हें अपने यहाँ. खिला पिला सकते हैं कपड़े-लट्टे धो सकते
हैं. हम्म? मतलब चाय नाश्ता वगैरह और सारा कुछ कर सकते हैं. और काफी सुरक्षित
महसूस कर रहे हैं. तो भूमण्डलीकरण के चलते विदेशियों की तादात बहुत ज्यादे बढ़ी है.
यानि अस्सी घाट से लेके मणिकर्णिका घाट तक अधिकतर घाट के मकान जो हैं होटल बन चुके
हैं या लॉज बन चुके हैं. तो ये फर्क तो आया है.
शिव प्रकाश : वाराणसी में जातिवाद को कैसे देखते हैं आप?
काशीनाथ सिंह : वाराणसी में जातिवाद पहले नहीं था. जहाँ तक मुझे याद
है हमारे आने के समय भी यानि आजादी के बाद हम आये तब भी जातिवाद का ये रूप नहीं
था.
शिव: ये रूप नहीं था लेकिन था?
काशीनाथ सिंह : था, जाति थी. लेकिन वो चाचा के रूप में बाबा के रूप में
हम्म? चाची के रूप में भाभी के रूप में दो लोग दूसरी जाति के लोगों को भी जिन्हें
सवर्ण हम कहते हैं वे लोग संबोधित करते थे. एक रिश्ता होता था. यानि.......जातिवाद
कहीं रहा हो तो भीतर रहा होगा. व्यवहार में वह दिखाई नहीं पड़ता था उस तरह से. ये
चीजे धीरे-धीरे बढती गयी. हम्म? और इन्हें पार्टिओं ने और हवा दी. जातिवादी
पार्टियों ने. आरक्षण ने इसे मजबूत किया जहाँ आरक्षण का उद्देश्य था कि दोनों करीब
आये. यहाँ दूरियां और ज्यादे बढ़ गयी. जो मुझे लगता है.
शिव प्रकाश : ये बात मणिकर्णिका में तुलसीराम जी भी कहे हैं लेकिन
बीते हुए समय में, समय जैसे जैसे बीतता गया जातिवाद ख़तम नहीं हुआ और ज्यादे हो
गया.
काशीनाथ सिंह : हम्म. ज्यादा हुआ है बढ़ा है. पहले इसका यह रूप नहीं
था. इतना भयावह रूप नहीं था इसका.
शिव प्रकाश : शुरूआत के दिनों में जब वो (तुलसीराम) 1966-67 में जब
आये थे बनारस उस समय वो जातिवाद के घेरे में थे. उनको मकान नहीं दिए जाते थे. और
मतलब पता चल जाता था कि किस जाति से हैं तो निकाल भी दिया जाता था. मंदिरों के
सामने नहीं जाने दिया जाता था. ये अभी भी है या फिर उसी समय था?
काशीनाथ सिंह : अब तो देखो हमारे बगल में ही, जिसमें तेजभान रहते थे
किसका घर था वो (अपनी पत्नी से पूछते हुए) तेजभान जिसमें रहते थे. (डॉक्टर, उनका
(पत्नी का जवाब). तेजभान मऊ के ही हैं. पीएचडी कर रहे थे और दलित थे वो उनके मकान
में किरायेदार थे वो. घर के लोग जो थे हाँ उनके यहाँ आना जाना था. शादी विवाह में
भी आना जाना था. ये सब था. हम्म? तो ये आरम्भ में तो था. काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय में ही याद आ रहा है कि किसी हरिजन या दलित लड़के को पीएचडी के लिए
लेते अपने साथ अपने अंडर नहीं थे. छात्रावास में जो दलित लड़के रहते थे दूसरे लड़के
उनके साथ दुर्व्यवहार करते थे. वे गाली देते थे उनको. उसी जाति को लेकर गाली देते
थे. ये पढ़े लिखे समुदाय में ये चीजे थी. लेकिन जो आम आदमी है उसके भीतर इतनी गहरी
फीलिंग नहीं थी हालांकि इसमें भी एक अन्तर्विरोध है. उसमें भी प्रायः जो जागरूक थे
समाज को समझते थे लोगों को समझते थे हम्म? उनके भीतर इस तरह की फीलिंग नहीं थी.
छिटपुट जैसे तुलसीराम के गुरु ब्राह्मण थे? हम्म? ब्राह्मण थे या बाबूसाहब थे?
शिव प्रकाश : जिनके अंडर पीएचडी किये थे?
काशीनाथ सिंह : अरे प्राइमरी में, मिडल में कही थे न?
शिव प्रकाश : अच्छा हाँ. जिनका जिक्र वो करते हैं. बाबूसाहेब थे.
काशीनाथ सिंह : तो ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके, जिन्होंने प्रोत्साहित
किया दलितों को लिखने पढ़ने के लिए लेकिन उसी स्कूल में दूसरे भी मास्टर थे जिनके
दिमाग में दूसरे थे. तो दोनों तरह के लोग रहे हैं. (हँसते हुए). ऐसा नहीं कि नहीं
रहे हैं. लेकिन ये हमें लगता है कि आरक्षण के बाद इस तरह की फीलिंग ज्यादे बनी है
बढ़ी है कि सवर्ण है ये ठाकुर है ये ब्राह्मण है. हाँ? और उनके बीच में भी इस तरह
की फीलिंग आई की वह दलित है आमुच है तमुच है. हाँ? पहले इतनी गहरी नहीं थी. एक
सौमनस्य का भाव बराबर बना रहता था. तो चीजों ने बढाया है इन चीजों को.
शिव प्रकाश : पेजनं. 16. काशी का अस्सी
“अस्सी पर प्रवासियों की एक ही नस्ल थी शुरू में-लेखकों-कवियों की.
आजादी के बाद देश में जगह-जगह केंद्र खुलने शुरू हो गए थे. मुर्गी पालन केंद्र,
मत्स्य पालन केंद्र, सूअर पालन केंद्र, मगर-घड़ियाल केंद्र. इन कवियों-लेखकों ने भी
अपना एक केंद्र खोल लिया - केदार चायवाले की दुकान में. ”कवि पालन केंद्र.” पढ़ने से एक व्यंग्य सा लगता है. क्या यह केवल व्यंग्य
मात्र है या फिर आप यह भी बताना चाहते हैं कि वाराणसी सदियों से कवियों और लेखकों
का शहर रहा है?
काशीनाथ सिंह : केवल व्यंग्य नहीं है यह. हम्म? कहने में व्यंग्य जैसा
लगता है लेकिन यह इस बहाने से वाराणसी के साहित्यिक इतिहास की झलक है इसमें.
शिव प्रकाश : उपन्यास का अंतिम अध्याय का शीर्षक “कौन ठगवा नगरिया
लूटल है” और उसमें टी. वी, नए इलेक्ट्रिक सामानों का उल्लेख इत्यादि दिखाया गया
है. क्या तात्पर्य है इन सब बातों का इस उपन्यास में?
काशीनाथ सिंह : दरअसल वैश्वीकरण के बाद जो बदलाव हुआ था इस नगर में और
बाजारीकरण आया था संकेत उसकी तरफ है. कैसे एक ट्रेडिशनल परम्परागत शहर अपनी चीजों
को छोड़के वह नए नए आविष्कारों को अपने अन्दर जोड़ रहा है. उस परिवर्तन की झलक देता
है ये.
शिव प्रकाश : पेज 110. काशी का अस्सी
जिसमें कथरिन से वार्तालाप में कथरिन कहती है कि “वाराणसी इज़ डाईंग.”
‘वाराणसी इज़ डाईंग’! बनारस जिसे लोग पढ़ते, सुनते, जानते थे- मर रहा है आज!”
क्या यह सचमुच वाराणसी के बारे में है या फिर उन विदेशियों की वाराणसी
आने के पूर्व की मानसिकता पर क्रिटिक है? जो एक मानसिकता वो इंडिया के बारे में
लेके आते हैं या शहर के बदलते स्वरुप पर क्रिटिक है?
काशीनाथ सिंह : इसमें दोनों शामिल है. एक तो वाराणसी के बारे में सोच
के आते हैं वो कि रंडी होगी, साधू होंगी, संन्यासी होंगे, सीढ़ियाँ होंगी, चना
चबेना होगा और यहाँ आके वे देखते हैं कि जिस बनारस की कल्पना उन्होंने की थी पढ़ के
जाना था बनारस उसे कुछ अलग है. एक तो ये. इसमें बनारस का बदलाव भी बताया जाता है
और उनकी अपनी मानसिकता पर टिप्पणी भी है ये.
Guest Faculty Centre of German Studies,
Research Scholar, Jawaharlal Nehru
University,
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