दलित स्त्री का प्रश्न : अंशु सिंह झरवाल
हिन्दी में दलित लेखन की शुरूआत सन् 1980 तक हो चुकी थी। दलित लेखन का पहला युग तमाम प्रश्नों और सैद्धान्तिक मुद्दों के शमन, दमन और समाधान में लगा रहा। अब इस लेखन का चैतरफा स्वागत हो रहा है। दलित साहित्य में दलित स्त्री का प्रश्न पर लेखकों ने अपनी चुपी तोड़ी और इसे अपने लेखन में स्थान दिया।
भारत की गौरवशाली परम्पराओं में एक परम्परा स्त्री पूजन की भी रह है -कहा भी जाता है - ‘यत्रा नार्येस्तु पुजन्ते, तत्र देवता रमन्ते’ अर्थात् नारी की पूजा की जाती है वहां देवता का वास हेता है। लेकिन भारत में जहां जाती का भेद है वहां स्त्री-स्त्री का भेद भी देखने को मिलता है और दलित स्त्री को तो जाति भेद और दलित स्त्री होने का दंश झेेलना पड़ता है। जहां बात दलित स्त्री की आती है वहां स्त्री के प्रति मान, सम्मान, प्रतिष्ठा पूजा सब धरी की धरी रह जाती है क्योंकि जिस देश में दलितों का ही इतना अधिक बूरा हाल है कि उनका स्पर्ष मात्र ही दण्ड है तो वहां दलित स्त्री कोे किस नजर से देखा जाता होगा। इसका अन्दाजा लगाना भी कितना दर्दनाक होगा। अनेक प्रकार की अमानवीय यातनाएं दलित महिलाओं को जाति-भेद के कारण दी जाती है। जिनसे उनका मनोबल ही गिर जाता है और उनकी मानवीय गरिमापूर्ण अस्मिता आहत होती है। जाति-प्रथा व छुआ-छुत शोषण का माध्यम रहा है। जाति जहां तक जातिगत भेदभाव शोषण का काम करती है वहां तक इसका प्र्रयोग किया जाता है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जाति की छुआछुत की सीमा को भी सवर्ण लांघ जाते हैं। जिन अछूतों के छूने से सवर्णों की वस्तुएं तक अपवित्र हो जाती है उसी अछूत पीड़ित स्त्री को अपनी काम-वासना का शिकार बनाते हुए सवर्ण छुआछूत के ख्याल को भी विस्मत कर देतेे हैं। तब उनकी छुआछूत की भावना पता नहीं कहां भाग खड़ी होती है? ऐसे उदाहरण का विवरण कैलाश चन्द चैहान ने अपने उपन्यास ‘सुबह के लिए’ में किया है जहां ठाकुर का लड़का धर्मपाल, फुलवा जो दलित लड़की है उस पर कब से नजर टिकाए होता है और मौका मिलते ही उसे पकड़ लेता है-‘‘धर्मपाल ने फूलों को रोका, फूलों को पकड़ लिया।
फूलोः ‘हरामजदे वैसे तो तुम हमसे छूत करो हो। अब कहां गई तुम्हारी छुआछूत। अब तुम्हारा धर्म भ्रष्ट न होगा’ फूलों ने खुद को छुड़ाने की कोशिश की।
धर्मपाल: ‘ज्यादा न बोल। हमें तो सुन्दर लड़की मिलनी चाहिए बस। जात का क्या है, मुझे तेरे से शादी थोड़ी ही करनी है बस कुछ देर का खेल है।’1
दलित स्त्रियों को अपनी वासना का शिकार बनाना सवर्णों के लिए जैसेे सम्मान की बात है। उन्हें जैसे इसका पूरा अधिकार है कि वे दलित स्त्री को कैसे भी प्रताड़ित करें ये उनका हक है। स्वरूप चन्द बौद्ध ने अपने कहानी संग्रह ‘दलित अन्र्तद्वंद्व’ की कहानी ‘इन्तकाम’ में ऐसी ही स्थिति का विवरण दिया है, जहां सवर्ण दलित लड़की के बारे में बात कर रहें हैं। ‘‘हमारे ठाकुरपन को न ललकारों। चमार की लड़की हम नहीं पा सकते, तो हम पर लानत है। अब तक हमने न जाने अछूतों की कितनी ही लड़कियां हलाल की है, तो एक इसमें देरी क्यों? ब्राह्मणों और क्षत्रियों को हबस पूरा करने के लिए बनाया गया है और इन अवर्णों को सेवा और गुलामी के लिए।’2 दलित स्त्री पर सवर्णों का यह शक्ति प्रदर्शन सहसो वर्षों से चला आ रहा है, आज भी 20वीं शताब्दी में भी दलित स्त्री की यही व्यथा है वह आज भी सवर्णों के कोप भाजन बनी हुई है। वर्ष 2012 में ही दलित युवतियों के साथ इस दुष्कर्म की अनगिनत वारदातें देश भर में हो चुकी हैं जिसमें हरियाणा प्रदेश नं. 1 पर है जहां एक ही महीने में लगभग पांच दलित युवतियों के साथ बलात्कार हो चुके हैं। ‘जींद’ जिले की घटना इनमें सबसे बड़ी घटना रही है। जिसमें दलित युवती से दुष्कर्म के उपरान्त जिंदा जला कर मार डाला गया। ऐसी ही धटना ‘जौनपुर’ जिले के हुरहरी गांव की है - ‘‘मासूम दलित बालिका को एक कामान्ध युवक मक्के के खेत में उठा कर ले गया और उसके साथ मूह काला किया जब वह स्कूल से अकेले घर लौट रही थी। धारा 376 का मुकदमा दर्ज कर लिया गया तथा पुलिस आरोपी के पिता को पक़ड़कर लायी लेकिन दूसरे दिन उसे थाने से छोड़ दिया गया।’3 ऐसी ही एक और अन्य घटना लखनऊ में घटित हुई जहां केवल दलित की बारात गांव में नहीं आनी चाहिए, को कारण बनाकर दलित लड़की का बलात्कार किया गया ‘‘दातून बेचने वाला दलित, युवति का पिता अपनी बेटी के विवाह की तैयारी कर रहा था और गांव के दबंगों को यह नागवार गुजरा कि किसी दलित के घर बारात आए और लोग कुर्सी - मेज पर बैठकर खाना खाए। उन्होंने आदेश दिया कि लड़के के घर जाकर विवाह करों यहां बारात नहीं आएगी। जब वह नहीं माना तो उसकी बेटी के साथ बलात्कार कर उसे सबक सिखाया गया। 4
दलित स्त्री की व्यथा सिर्फ उनके बलात्कार तक ही सीमित नहीं होती बल्कि दलित स्त्री सवर्णों के कई अत्याचारों से मानसिक रूप से प्रताड़ित होती है। विवाह के समय स्त्री के कितने स्वप्न होते हैं लेेकिन ब्राह्मणोें द्वारा बनाये गए नियम जो न जाने कब से चले आ रहे है जिसके चलते ब्राह्मण स्वयं पृथ्वी का भगवान बन गया जिसको खेत में पैदा हुए अनाज की पहली भेंट ही नहीं दी जाती थी बल्कि ब्राह्मणाों ने यह अधिकार भी मनवा लिया था कि अछूतों की पत्नियां विवाह की पहली रात ठाकुरों के साथ ही गुजारेंगी जिसे उन्होंने ‘बहु जुठाई’ का नाम भी दिया। समाज में स्त्री की इससे बड़ी व्यथा और क्या हो सकती थी कि जिसके संग वो विवाह के परिणय-सूत्र में बंधकर आई वह भी उसकी रक्षा नहीं कर सकता था उसे इस ‘बहु जुठाई्र’ की रस्म से गुजरना ही पड़ता था।
इसी उदारण कोे मोहनदास नैमिशराय ने अपने कहानी संग्रह ‘आवाजे’ की कहानी ‘रीत’ में दर्षाया है जहां फूूलो ब्याह करके गांव आती है और उसे भी पहली रात जमींदार की हवेली में जाना पड़ता है, उसके बाद वोे गुम-सुम रहने लगती है उसके सास उसकि हालत देखकर उसे अपनी आप बीती भी बताती है - ‘‘फूलो जब ब्याह कर आई.... तो उसे जमींदार की हवेली में पहली रात को जाना पड़.... जमींदार ने रातभर उसे नोचा था, उसके षरीर को जी भर कर मसला था। .... सास ने उसे समझाया.... मुझे भी ब्याह की पहली रात जमींदार के साथ हवेली में जाना पड़ा था। दादा से बाप, बाप से बेटा और बेटे से पोते तक, न जाने कब से चली आ रही है बलात्कार की परम्पा। जैसे किसी ने जमीन के पट्टे के समान वह सब भी लिख दिया हो कि इस जमीन पर जब तक तुम्हारा वंश जीवित है तब तक दलित जाति के लोगों पर जुल्म और अत्याचार करतेे रहो, उनकी बहन बेटियांे के साथ रंग-रलियां मनाते रहों।’5
समाज में स्त्रियों का यौन शोषण एक आम बात रही है ऐसी घटनाएं होने पर स्त्री को ही दोश दिया जाता है। दलित स्त्रियों को न तो कभी इंसान समझाजाता है और न ही मानव अधिकारों की अधिकारी। वह मूक प्राणी बनकर सवणग् समाज की गुलामी करने के लिए ही मानो पैदा हुई है। उसकी गरीबी, असहायता का नाजायज फायदा उठाकर उसकी इज्जत पर हाथ फेरा जाता है। उसे मनमाना दण्ड दिया जाता है। उसे न्याय दिलानेे के लिए कोई आगे नहीं आता। समाज में दलित स्त्री को दोहरा संताप और अन्याय सहना पड़ता है। वह एक स्त्री है तो उस पर अत्याचार भी नये नये तरीकों से किए जाते हैं जो बिल्कुल अमानवीय हैं। मोेहनदास नैमिशराय ने अपने कहानी संग्रह ‘आवजें’ की कहानी ‘अपना गांव’ में ऐसी घटना का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है, जिसमें संपत जो दलित युवक है उसकी पत्नी छमिया कोे लहना ठाकुर के लड़के गांव भर में नंगा करके धुमाते है, तो कोई भी उसकी सहयत के लिए आगे नहीं आता, जब संपत थाने में ठाकुर के खिलाफ रपट लिखाने जाता है तो इंस्पेक्टर उनकी रिपोर्ट नहीं लिखता तो गांव केे सारे लोगों की बैठक हुई तोे उसमें हरिया ने स्त्रियों की व्यथा का बड़ा ही मार्मिक विवरण दिया-‘‘म्हारी जात की औरतों को पैले से ही ठाकुरों केे द्वारा नंगा किया जाता रहा है।ं उनकी बेइज्जती की जती रही है। गांव का रिवाज बन गया है यौे सारे गांव में सबसे पहलेमारे पोते की बहु को ही नंगा किया गया। कुछ म्हारी बहु बेटियों को हवेली में नंगा किया गया। दिन के उजाले में भी और रात केे अंधेरे में भी। अब किस किसका नाम बताउ। सारे गांव ने झेला है उने। म्हारी विमराबानी मुंह से न कहे उनै पर मन जानता है उनका। 6
ऐसा ही उदाहरण सत्यप्रकाश ने अपने उपन्यास ‘जस तस भई सवेर’ में दिया है जहां चैधरी राममती (दलित महिला) से बलात्कार करता है और उसके बच्चे को मार डालता है तब राममती का पति रामजस पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने जाता तब इंस्पेक्ट उन्हें हड़काते हुए कहता हो - ‘‘साले मादर चोद, हराम की औलाद तुम लोग इज्जतदार और षरीफ लोगों के खिलाफ झूठे मामले बनातेे रहते हो। तुम लोगों को इज्जदार लोेगों की इज्जत से खेेलते हुए शर्म नहीं आती। हरिजन एक्ट का दुरुपयोग करते हो। और नालायक के बीज तेरी इंज्जत क्या जो बिगड़ जाएगी।’’7 जब चैधरी वेदपाल तक इसकी खबर पहुंची कि राममती उसके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराने गई है तो उसने राममती को उठवा लिया उसे आदमियों के समक्ष नंगा करके उसके हाथों सौंप दिया। ना जाने कितने आदमियों ने उस बेबस अबला को शारीरिक व मानसिक रूप से पूरी तरह तोेड़ दिया। और गांव में उसकेे डायन होने की बात फैला दी और उसे व उसके परिवार को कठोर दण्ड दिया गया - इन दोनों को मादर जात नंगा करके गांव भर में धुमाओें। इनका मुंह काला करो....... इनके परिवार वालों को मुर्गा बनाकर 100-100 बैत लगायी जाये।’’8
सवर्ण लोग कभी भी अपनी बनाई परम्परा से दलितों को बाहर निकलते देखना नहीं चाहते। यह तो हर गांव की पम्परा है कि गांव की गांव की हर दलित औरत चाहे वो शादी करके गांव आई हो या गांव की ही बेटी हो उसे ठाकुरों की हवेली में काम करने जाना ही पड़ता है। यही मौका होता है जब ठाकुर गांव की दलित स्त्रीयों को निगाह में रखते है और उनको अपनी वासना का शिकार बनाते हैं। ऐसे ही उदाहरण का विवरण ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने कहानी संग्रह ‘सलाम’ की कहानी ‘गोहत्या’ में दिखाया है। जहां सुक्का दलित की नई नई शादी हुई और पुरे गांव भर में उसकी घरवाली के चर्चें थे। मुखिया उससे देखने को आतुर था। वह सुक्का को उसकी घरवाली को काम पर हवेली भेजने को कहता है, सुक्का हिम्मत करके कह देता है ‘वह हवेली नहीं आएगी।’ शुक्का की बात सुनकर मुखिया उसे लताड़ते हुए कहता है - औकात में रह सुक्का। उड़ने की कोशिश ना कर, बाप दादों से चली आई रीत है तेरी लुगाई को आए दो महीने हो गए है और वह अभी तक हवेली में नहीं आई।9
सवर्णों ने जहां स्त्रियों के लिए कई तरह की परम्पराएं बनाई थी उसमें उनके रहन-सहन, औढ़ने-पहनने तक पर भी नियमों की बाढ़ बंधी थी। अगर कोई दलित स्त्री अपनी पसंद का कुछ नया कपड़ा या गहना भी पहन लेती तो वह भी सजा की अधिकारिणी होती थी। क्योंकि ठाकुरों का मानना था कि यह साजों - श्रृंगार तो केलव ठकुराइनों की शान है, दलित स्त्री की नहीं। अजय नावरिया ने अपने कहानी संग्रह पटकथा तथा अन्य कहानियाँ की कहानी ‘पटकथा’ में कल्याराम की पत्नी चन्दा दलित महिला सितारों वाली लूगड़ी पहन कर बाजार चली जाती है और ये खबर ठाकुरों तक पहुंच जाती है तो वे कल्याराम को बुला भेजते हैं औ उससे कहते हंै - ‘‘सुन ले, हरामखोर दोबारा थारी औरत ने यह मजाल की तो सारे गांव में नंगी डोलेगी स्साली। ठकरानी बनने का षौक चढ़ा है तो भेज दीजो हरामजादी को हवेली में।10 केवल एक चुन्नी पहन लेना ही दलित स्त्री का दोश बनकर उसके और उसके पूरे परिवार को समाप्त कर देता है।
सवर्णों ने दलितों कोे इस हालत में पहुंचा दिया है कि आज दलित स्त्रियां भी गंदेे काम करने कोे मजबूर है। दलित समाज में आज स्त्रियां भी गन्दगी और मैला उठाने का काम करती है और जिसका उन पर कितना गहरा प्रभाव पड़त है, इसका विवरण भाषा ंिसंह ने अपने भावा वृतान्त ‘अदृश्यक भारत’ में अपने दिल्ली दौरे के अन्तर्गत किया है जहां वे मीना से बात करती है और मीना उन्हें अपनी व्यथा बताती है । ‘‘मेेरी डाॅक्टर ने तो मुझेे सीधे-सीधे बोला था कि मेरेे गर्भ में इन्फेक्शन इस गंदे काम की वजह से ही हुआ। पांचवे या छठे महीने में डाॅक्टर ने मुझे यह काम बंद करने कोे कहा था, लेकिन पैसे की कमी के कारण मैंने काम बंद नहीं किया, मैं घरोें में कमाई वाली लैटरीन तो साफ करती ही थ सैप्टिक टैंक की सफाई के लिए भी चली जती थी। ऐसी ही सर्फा केे दौरान मुझे इन्फेेक्शन पकड़ गया और मैं बीमार पड़ गई। तब डाॅक्टर ने मुझेे बताया कि मेरे बच्चे पर असर आ गया है।11 केवल मीना ही नहीं न जाने और भी कितनी दलित स्त्रियां इस गंदे काम के कारण अलग-अलग तरह की बीमारियों से ग्रस्त है।
आज दलित स्त्रियों के काम करने की वजह जहां सवर्ण और उनके अत्याचार है वहं उनकेे अपने घरवाले, उनके पति भी उनकी इन हालातों के जिम्मेदार है। जब पुरूष शराब पीकर, जुआ खेल कर पूरी कमाई गंवा दे तो स्त्रियों को अपने बच्चों का पालन-पोेषण करने के लिए दूसरे के घरों में काम करने जाना पड़ता है। दूसरों के घरों में हर अच्छी बुरी नजर का सामना करना पड़ता हैं। गदें काम करने के लिए वे तम्बाकू एवं और भी कई तरह के विषैले पदार्थों का सेेवन करने लगी है जिसके कारण वे बीमारियों का शिकार बनती है।ं यहां तक हिन्दू धर्म मेें भरे अंधविश्वास औेर पाखण्डों नेे तो उन्हें पूरी तरह से घेेर ही रखा है। दलित महिलाएं इतनी अज्ञानी, इतनी धर्मांध, पाखण्डों से ग्रस्त तथा बिरादरी के खौंफ से डरी हुई है कि वह अन्याय, शोषण एवं उत्पीड़न को गलत मानने के लिए तैयार नहीं है।
निरक्षरता एवं अशिक्षा के कारण उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का नितांत अभाव पाया जाता है जिसके फलस्वरूप वे भूत-प्रेत ओपरी हवा, टोन-टोटका आदि अंधविश्वासों पर शीघ्र विश्वास कर लेती है। और यही उन्हें, प्रगति के मार्ग पर बढ़ने ही नहीं देते। दरअसल यह अंधविश्वास और कर्मकाण्ड भी तो सवर्ण ही फैलाते है जिसमें दलित स्त्रियां फंस जाती है और कमाई का बड़ा हिस्सा इन्हीं अंधविश्वास में गवा देती है।
स्त्री के प्रति सम्मान, आदर्श, प्रेम की भावना रखना ही भारत देश में सर्वोपरी माना जाता है लेकिन जब ये सारी बातें दलित स्त्री के संबंध में आती है तो किसी एक बात का भी महत्व दलित स्त्री केे लिए नहीं रह जाता। सम्मन तो दूर उनसे भेदभव व छूआछूत इस कर्द किया जाता है कि उन्हें सवर्ण यदि खाने-पीने का कोई सामान भी दे तो उनके बर्तन अलग रख दिये जाते है। अगर कुर्सी पर बैठ जाए तो कुर्सी को उपर से पानी डालकर धोया जाता है। दूसरी तरफ दलित स्त्री है जिसका जीवन जन्म लेते ही तिरस्कृत और अभिषप्त हो गया, जो अपमान सहने के लिए बाधित है क्योंकि वो दलित स्त्री है और समाज में उसकी यही दुर्दशा है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
1. कैलाष चंद चैेहान, सुबह के लिए, पृ. सं. 26-27
2. स्वरूप चंद बौद्ध, दलित अन्र्तद्वंद्व, पृ. सं 19
3. श्री टाइम्स (लखनऊ) मासूम दलित बालिका से दुष्कर्म, 9 सितंबर 2012, पृ. सं. 15
4. जनसत्ता 28 अगसत 2012, पृ. 7
5. मोहनदास नैमिशराय, आवाजे,पृ. 21-22
6. मोहनदास नैमिशरय, आवाजेे, पृ. 56
7. सत्यप्रकाश, जस तस भई सबेर, पृ. 50
8. सत्यप्रकाश, जस तस भई सवेर, पृ. 944
9. ओमप्रकाश वाल्मीकि, सलाम, पृ. 58-59
10. अजय नावरिया, पटकथा और अन्य कहानियां, पृ. 123
11. भाषा सिंह, अदृश्य भारत (मैला ढोनेे के बजबजाते यथार्थ से मुठभेड)़, पृ. 28-29
अंशु सिंह झरवाल
सहायक प्रोफेसर
लक्ष्मीबाई काॅलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
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