मीडिया और वैश्वीकरण की चुनौतियां : डॉ अंशु यादव
वर्तमान समय में मीडिया एक सशक्त माध्यम के रूप में हमारे बीच मौजूद
है। आज वह बहुआयामी या मल्टीमीडिया में तब्दील हो चुका है जैसे प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, साइबर
मीडिया आदि। आधुनिक तकनीक के कारण मीडिया का संदेश पल भर में विश्व के किसी भी
कोने तक आ जा सकता है। मीडिया के ये विविध रूप सूचना भी प्रदान करते हैं और ज्ञान
एवं संवेदना का व्यापक प्रसार भी करते हैं। इस प्रकार मीडिया ने व्यक्ति को पहले
से अधिक जागरुक व सूचना-संपन्न बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इस दृष्टि
से देखा जाए तो भूमंडलीकरण के व्यापक परिदृश्य में मीडिया की भूमिका भी अत्यंत
महत्त्वपूर्ण हो गयी है, उसकी जवाबदेही भी बढ़ गई है लेकिन
दूसरी ओर मीडिया पर बाज़ारवादी ताकतों का वर्चस्व भी बढ़ गया है। देखा जाए तो
वर्तमान मीडिया ‘भूमंडलीय मीडिया’ में
परिवर्तित हो चुका है। वह बाज़ारवादी सिद्धांतों से ही परिचलित है। जिसे लोकतंत्र
का ‘चौथा स्तंभ’ कहा जाता है, वह ‘मीडिया’ उद्योग’ के रूप में तब्दील हो चुका है और उद्योग लोककल्याणकारी भूमिका के अनुरूप
कार्य नहीं करते, वे तो लाभ-हानि के गणित से ही चलते हैं।
वर्तमान संदर्भों में मीडिया सूचनाओं को परोसने या यूँ कहें कि बेचने का ऐसा
माध्यम बन गया है कि जो चाहे जनता तक पहुँचाओ, जनता उसे
स्वीकार कर ही लेगी।
जबकि उन्नीसवीं शताब्दी और स्वतंत्रता पूर्व की पत्रकारिता ने स्वतंत्रता आंदोलन को जन आंदोलन बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था, जनप्रतिरोध को आवाज़ देने का एक अहम कार्य संपन्न किया था, समाज और राष्ट्र निर्माण को अपना लक्ष्य बनाया था। प्रतिष्ठित पत्रकारों को छोड़कर अन्य सभी विशेष रूप से हिंदी के पत्रकारों की तो आर्थिक स्थिति भी चिंताजनक थी। लेकिन सीमित साधन, निरंतर दैनिक संकटों से जुझना, धीमे समाचार प्रेषण के बावजूद इस समय की पत्रकारिता अपने उत्तरदायित्व को बखूबी निभा रही थी। यही कारण है कि भारतीय पत्रों को बार-बार ब्रिटिश हुकूमत के कोप का भाजन बनना पड़ता था। संपादक बार-बार जेल गए लेकिन फिर भी संपादकों ने राष्ट्रीय चेतना का अलख जगाने में कोई कमी नहीं आने दी। ‘उदंत मार्तण्ड’ और ‘सामदंड मार्तण्ड’ के प्रकाशन की बीच की अवधि में विभिन्न स्थानों से कठिन परिस्थितियों में हिन्दी के कई पत्र प्रकाशित हुए। इस बीच प्रकाशित होने वाले पत्रों में 10 मई 1829 को राजा राममोहन राय द्वारा निकाला गया ‘बंगदूत’, 1845 में गोविंद नारायण थत्ते के संपादन में निकला ‘बनारस अखबार’, कलकत्ता से 11 जून, 1846 को निकला ‘मार्तण्ड’ और 6 मार्च 1848 को इंदौर से निकला ‘मालवा अखबार’ शामिल है। ये सभी पत्र विशेष उद्देश्य के तहत निकाल गए थे। भले ही सीमित साधनों के चलते इन की आयु कम रही हो लेकिन इनके आदर्श एक मिसाल थे।
हिंदी साहित्य से जुड़े व्यक्तियों का हिंदी पत्रकारिता के विकास में
महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। ऐसे पत्रों की एक लंबी सूची है जिन्होंने स्वाधीनता
संघर्ष के दौरान हिंदी भाषा के विकास के साथ जन-जागरण और और समाज-सुधार का कार्य
भी पूरे जोर-शोर के साथ किया। इस श्रृंखला में भारतेन्दु हरिशचंद्र और भारतेन्दु
मंडल के रचनाकारों का प्रयास अविस्मरणीय है। “हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध, उन्नत व ब बहुमुखी
बनाने में भारतेन्दु का योगदान अद्वितीय है। उन्होंने भाषा से लेकर जनता के
विचारों तक को शुद्ध और परिमार्पित करने का महान कार्य किया है। वे अनेक पत्रों के
प्रकाशन के प्रेेरक थे। कवियों और लेखकों का पूरा समूह तैयार किया। प्राचीन
साहित्य को प्रकाश में लाए। साहित्य की अनेक विधाओं के विकास का श्रेय है उनका है।
भारत की दुर्दशा पर आंसू बहाने की बजाए उन्हें जगाने, स्वतंत्रता
प्राप्त करने, अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने की प्रेरणा
जन-जन तक उन्होंने पहुंचाई। ( मीडिया के पचास वर्ष, – संपादक
– प्रेमचंद पातंजलि, पृ. 17)
स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में पत्रकारिता एक चुनौती भरा कार्य थी। वह
देश की आज़ादी और साधारण नागरिकों को जागृत करने के लिए लड़ रही थी। पत्रकारिता एक
व्यवसाय नहीं थी, वह एक मिशन थी। मोहदास
करमचंद गांधी, बाल गंगाधर तिलक, गणेश
शंकर विद्यार्थी, बाबू विष्णुराव पराडकर, बनारसीदास चतुर्वेदी, लक्ष्मण नारायण गर्दे, अंबिका प्रसाद वाजपेयी आदि जैसे प्रतिबद्ध पत्रकार स्वतंत्रता आंदोलन के
दौर की ऐसी शख्सियतें है जिन्होंने औपनिवेशिक राजसत्ता को झकझोर कर रख दिया था।
गांधी जी ने स्वयं पत्रकार के रूप में देश को जगाने व मानसिक तौर पर तैयार करने का
काम किया। उन्होंने ‘सत्याग्रह’, ‘यंग
इंडिया’, ‘नवजीवन’ आदि पत्रों का
प्रकाशन किया। सामाजिक जागरूकता के उद्देश्य से उन्होंने ‘हरिजन’,
‘हरिजन सेवक’ और ‘हरिजन
बंधु’ नाम के पत्र निकाले। गांधी जी ने पत्रकारिता को
वैचारिक क्रांति का ऐसा माध्यम बना दिया कि भारत की विभिन्न भाषाओं में निकलने
वाले पत्रों पर भी गांधी जी की विचारधारा का प्रभव स्पष्ट नजर आता है। 15 नवंबर 1831 को दादाभाई नौरोजी ने गुजराती में ‘रस्तगुफ्तार’ नामक पत्र निकाला था।
राजा राममोहन राय का ‘बंगदूत’ बंगला, हिंदी, फारसी तथा अंग्रेजी भाषा में छपता था और यह समाज-सुधार का पत्र था। बाल
गंगाधर तिलक ने मराठी में ‘केसरी’ नाम
से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र के साथ जुड़कर कई उग्रलेख लिखे। इन लेखों के
आधार पर उन्हें कई बार सज़ा सुनाई गयी। इन उग्रलेखों से जहाँ जन जागृति फैली वहीं
भारतीय संग्राम के प्रमुख नेता के रूप में वे सामने आये। ‘स्वाधीनता
मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है’ का यह नारा उन्होंने ही हमें
दिया। श्री मदन मोहन मालवीय ने दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ का संपादन किया और पंडित मोतीलाल नेहरू ‘लीडर’
के निदेशक मण्डल के प्रथम अध्यक्ष बने। लाला लाजपत राय की प्रेरणा
से ‘पंजाब’, ‘वंदेमारतम’, ‘पीपुल’ नाम के पत्र लाहौर से निकले। श्री सुभाष
चंद्र बोस ने ‘फारवर्ड’ और ‘एडवांस’ पत्रों के साथ जुड़ कर राष्ट्रीय पत्रों को
चलाया। श्री जवाहर लाल नेहरू जी ने ‘नेशनल हेराल्ड’ पत्र की स्थापना की और उसमें स्वयं भी लिखते रहे।” ( हिन्दी पत्रकारिता: सिद्धांत और स्वरूप, सविता चड्ढा,
पृ. 149 ) कुछ क्रांतिकारी पत्रों की भी
महत्त्वपूर्ण भूमिका रही जैसे शंखनाद, रणभेरी, चिनगारी, रणडंका, तूफान और
बवंडर आदि।
निस्संदेह इस जनोन्मुख पत्रकारिता की मिसाल नहीं मिलती। जिन आदर्शों
और संकल्पों को लेकर इस पत्रकारिता की नींव रखी गई थी, वे सब समय के साथ-साथ धूल-धूसरित होते गए। आजा़दी के
उपरांत सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में तीव्रगति से परिवर्तन आए और आर्थिक
प्रतिद्वंद्विता में भी वृद्धि हुई। आजादी, जागरुकता और
विकास के प्रश्नों को मिशन बनाकर चलने वाली पत्रकारिता व्यवसाय में तब्दील होने
लगी। “आज़ादी के बाद पत्रों की संख्या बढ़ी, प्रसार संख्या बढ़ी, बड़े-बड़े औद्योगिक घराने पत्र
उद्योग में आने लगे क्योंकि लगने लगा कि पत्र प्रकाशन के लिए पर्याप्त धन की ज़रूरत
है जो उद्योगपति ही पूरा कर सकते हैं। जब उद्योगपतियों को लगा कि पत्रों से न
सिर्फ मुनाफा कमाया जा सकता है, बल्कि पत्र एक ‘हथियार’ भी होगा ‘हित साधक’
होगा, प्रतिष्ठा और दबदबा भी रहेगा, सो कई घराने इस उद्योग में आए। नई से नई टेक्नालोजी से पत्र छपने लगे।
लेकिन मुद्रण क्रांति या सुधार के साथ विकृतियाँ भी आने लगीं। कई जगह जनहित की जगह
व्यापारिक हित को बढ़ावा दिया जाने लगा। विश्व युद्ध के समय भारतीय पत्रों के
व्यवसाय बनने से जिस जनोन्मुख पत्रकारिता का क्षरण शुरू हुआ था, उसे गति मिलने लगी। ( पृ. 32, पत्रकारिता के उत्तर
आधुनिक चरण )
स्पष्ट है कि धीरे-धीरे पत्रकारिता का स्वरूप एकांगी होता चला गया।
लेकिन वर्तमान समय में स्थितियाँ बिल्कुल बदल चुकी है। आज का समय ‘सूचना विस्फोट’ का समय है,
हाईटेक समय है। संचार और सूचना के नित नए साधन उपलब्ध हैं। मीडिया
का स्वरूप इतना व्यापक हो चुका है कि एक ही क्षण में आप अनेक माध्यमों से जुड़े रह
सकते हैं। टेलीफोन एवं कम्प्यूटर का इंटरनेट पर इस्तेमाल कर सकते हैं। व्यापारिक
लेन-देन के अब तक के सभी तरीकों को इंटरनेट ने एकदम बदल दिया है। यह एक तरह से
पुराने माध्यमों की अस्मिता के लोप का युग है।” ( इंटरनेट और
संचार साम्राज्यवाद, जगदीश्वर चतुर्वेदी, पृ 165 ) यही कारण है कि हमें विभिन्न सूचनाओं का
सीधा प्रसारण देखने को मिलता है। राष्ट्रीय अखबारों की तुलना में भाषायी व
क्षेत्रीय अखबारों का संजाल फैला चुका है। अनगिनत चैनल हैं केवल मीडिया की
व्याप्ति दूर-दराज के अंचलों तक है। देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं के इंटरनेट
संस्करण भी उपलब्ध हैं। भूमंडलीकरण मीडिया का यह स्वरूप वैश्विक पूंजी और
टेक्नोलाॅजी की दृष्टि से देखा जाये तो नयी-नयी संभावनाओं से भरपूर है। लेकिर क्या
आधुनिकतम अस्त्रों से लैस वर्तमान मीडिया ‘लोकतंत्र का पहरूआ’
होने की अपनी भूमिका के साथ न्याय कर पा रहा है? क्या आज़ादी से पूर्व की पत्रकारिता का आमजन यहां गायब नहीं हो गया है?
इसीलिए मीडिया की वास्तविक भूमिका की पड़ताल आवश्यक हो जाती है।
दरअसल, वर्तमान मीडिया सिर्फ
सूचनाओं, खबरों, विचारों की ही पूर्ति
का माध्यम न बनकर नई संस्कृति के प्रचार-प्रसार का वाहक बन गया है। लेकिन इस नई संस्कृति
में हमारे सामाजिकता के इन नैतिक मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं दिखाई देता।
बाज़ारवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण सूचनाएं बिकाऊ माल में तब्दील हो चुकी हैं।
विकासशील देश विकसित देशों के बहुराष्ट्रीय निगमों की उस मुहिम का मोहरा बन गए हैं
जो नये रूप में तीसरी दुनिया के देशों पर अपना आधिपत्य जमाना चाहती है।
बहुराष्ट्रीय निगम चाहते हैं कि भारत के लोगों की बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो या न
हो लेकिन दूरदराज के गाँवों तक भी कम्प्यूटर और सूचना प्रौद्योगिकी जैसी सुविधाएँ
आसानी से पहुँच जाए यानी कि ज़मीनी हकीकत कुछ भी रहे पर ऊपरी स्तर पर गाँव आधुनिकतम
सुविधाओं से लैस हो जाए। ”सूचना और संचार सहित व्यापार के
सभी क्षेत्रों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के तीसरी दुनिया में विस्तार के लिए
साम्राज्यवादी देश नई विश्व सूचना और संचार व्यवस्था की बात करते हैं। उनका
वास्तविक मकसद सिर्फ यह होता है कि सूचना प्रौद्यागिकी के क्षेत्र में वे अपने
व्यापारिक हितों का विस्तार कर सकें। साथ ही साथ वे इसके माध्यम से वहाँ की जनता
के बीच विचारधारात्मक प्रभाव का भी विस्तार कर सकें।” ( जनसंचार
के सामाजिक संदर्भ, जवरीमल्ली पारख, पृ
177 ) भारत जैसे देशों में सूचना और संचार के क्षेत्रों में
बहुराष्ट्रीय निगमों और संस्थानों का विकास और विस्तार इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है
और इस गठजोड़ का परिणाम इस रूप में हमारे सामने आ रहा है। मीडिया में विदेशी पूंजी
निवेश का प्रमुख परिणाम यह निकला है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अंततः सरकार और
काॅरपोरेट जगत का चौथा स्तंभ बन गया है। राष्ट्रीय संप्रभुता के लिए वैचारिक तौर
पर खतरा पैदा हो गया है। टीवी पत्रकार समृद्ध और प्रभावशाली अभिजन वर्ग का हिस्सा
बन गए हैं। जिनका मूल्यांकन करना होता है, उनके साथ
यारी-दोस्ती अथवा रोज़ बैठकें करते रहते हैं। ऐसे में मूल्यांकन कितना वस्तुगत होगा,
सहज ही कल्पना कर सकते है। रेडियो और टीवी के पत्रकारों को तरह-तरह
के पुरस्कारों के जरिए सम्मानित किया जा रहा है। पहले पत्रकार बाहरी व्यक्ति
कहलाता था। किंतु इन दिनों आंतरिक कहलाता है। ( हिंदी पत्रकारिता का इतिहास,
पृ. 10 )
भूमंडलीकरण मीडिया व्यावसायिकता के दबावों के अनुरूप कार्य कर रहा है।
हालांकि व्यावसायिक होना अपने आप में बुरा नहीं है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से धीमी
चाल से आगे बढ़ते हुए विशेष रूप से उदारीकरण और भूमंडलीकरण की शुरुआत के साथ ही
मीडिया का स्वरूप इतना अधिक बदल गया है कि अपने व्यावसायिक हितों को पूर्ण करने से
कहीं अधिक उनका दोहन किया जा रहा है। वर्तमान मीडिया ‘ब्रांड’ की अवधारणा को लिए हुए
है। ‘ब्रांड’ की अवधारणा और
उपभोक्तावाद के प्रसार ने मीडिया को भी बाज़ार बना दिया है। “इन
सबसे ग्रामीण जीवन तेज़ी से बदल रहा है। वहाँ उपभोक्ता वस्तुएँ ज़्यादा खपने लगती
है। सर्वे करने वाले और अन्य विद्वान बताते हैं कि कुल उपभोक्ता वस्तुओं का एक बड़ा
हिस्सा ग्रामीण जीवन में खप रहा है। रोज़मर्रा की चीज़ों के प्रसिद्ध ब्रांड खूब
बाज़ार बना रहे हैं। इनमें घरेलू समान से लेकर कपड़े, सौंदर्य
प्रसाधन, तेल फुलेल, जूते, वाहन आदि शामिल है। और अब मोबाइल भी बढ़ रहे है। गाँव की जनता में ब्रांड
बोध बढ़ रहा है। वे ब्रांडेड सामान और पैक्ड सामान को बेहतर समझते हैं। बाजा़ार का
निर्माण और मीडिया का निर्माण अब संग-सग चलने लगता है। अब मीडिया बाज़ार को बनाता
है और बाज़ार मीडिया को बनाता है।“ ( भूमंडलीय समय और मीडिया,
सुधीश पचौरी, पृ. 6 )
चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया हर कोई किसी भी कीमत पर
प्रसार संख्या और टीआरपी बढ़ाने के लिए ही कार्य कर रहे हैं। स्टिंग ऑपरेशन
सनसनीखेज घटनाओं, यौन अपराधों का चित्रण
सांप्रदायिक दंगे, ज्योतिष, सास-बहू की
साज़िशें आदि से लेकर बड़ी हस्तियों के व्यक्तिगत जीवन, भड़काऊ
जीवन से जुड़ी मसालेदार खबरों को परोसना मीडिया का स्वभाव बन गया है। खबरों का
समाचारों का महत्त्व उनके ‘बिक्री तत्त्व’ में बदल दिया है। ‘टेबोलाइट मीडिया, जिसमें बड़े अखबार, मैगजींस भी शामिल हैं या तो किसी
महत्त्वपूर्ण घटना को हंसी-मज़ाक में उड़ा देते हैं या किसी छोटी घटना का घंटों
टेलीविजन पर प्रसारण करते रहते हैं। दूसरी चिंता यह है कि मीडिया के पास सार्वजनिक
दायरे संबंधी गुणवत्तापूर्ण कवरेज का अभाव है। वह सिर्फ पैसा बनाने में लगा है और
ऊटपटांग चीज़े दिखाता रहता है। लोकप्रियता और टीआरपी के चक्कर में टेलीविजन
अंधविश्वास दकियानूसी और समाज को पीछे धकेलने वाली सामग्री परोस रहे हैं। भारत में
अभी भी अखबारों का प्रभाव बाकी है। संभवतः इसीलिए टीवी चैनल सनसनीखेज खबरों के
पीछे पड़े हैं। सस्ते भड़काऊ गानों, सेक्सी डांस या बच्चों के
रियलिटी शो के नाम पर नितांत छोटी बच्चियों से डांस करवाकर और पर्यावरण विनाश,
शहरी जीवन में बढ़ती परेशानियों या ग्रामीण विस्थापन को नज़रअंदाज़
करना यह टीवी चैनलों के टेबोलाइट में बदलने के लक्षण है। ( पृ.8, मीडिया सामाजिक बदलाव )
निस्संदेह बाज़ारवाद की इस आंधी में सारी चीज़ें ‘बिक्री तत्त्व’ की दृष्टि से देखी जाने लगी हैं। कृत्रिम जीवन का एक ऐसा मायालोक रच दिया गया है कि वास्तविक सत्य कई गुना दूर चला गया है।भूमंडलीय ग्राम की इस अवधारणा ने बाज़ारवादी मानसिकता का ऐसा बीजारोपण किया है कि हर चीज़ का वस्तुकरण कर दिया है। भारत एक विकासशील देश है और निंरतर आगे बढ़ने के लिए प्रयासरत भी है। लेकिन आज भी कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दे हैं जिन पर विचार करना ज़रूरी है, सैंकड़ों ऐसे मुद्दे हैं जो मीडिया के संपूर्ण परिदृश्य से नदारद हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में सैंकड़ों किसान गंभीर कृषि संकट के चलते आत्महत्या कर लेते हैं। ऐसी खबरें न तो मुख्य समाचार के रूप में प्रथम पृष्ठ पर स्थान पाती हैं और न ही उन्हें किसी चैनल की हेडलाइन के रूप में जगह मिलती है। कारण स्पष्ट है कि ऐसी खबरें टीआरपी बढ़ाने में योगदान नहीं देती है। किसानों की दुर्दशा के कारणों की पड़ताल नहीं की जाती बल्कि ‘हाई प्रोफाइल’ केसों की तफसील से शिनाख़्त की जाती हैं। ऐसा लगता है कि बाज़ार ने मीडिया को भी अपने रंग में रंग लिया है। मीडिया अब खबरें उत्पाद के रूप में बेचता है, ज़्यादा से ज़्यादा लाभ की कीमत पर। खबरों में बड़ी खबर करोड़पति-अरबपति की होती है, सेलिब्रिटी की होती है। कार्यकारी अधिकारी अथवा व्यापार विकास दर की खबर बड़ी खबर होती है, संपदा और उसके वैभव में चैनलों का संसार खोया हुआ है। यह संपदा के वैभव का भोंडा प्रदर्शन भर है। खबरों के नाम पर मीडिया कचरा खबरों का ढेर लगा रहा है। कायदे से कहें तो समाज पर खबरें कम कचरा ज़्यादा फेंका जा रहा है। ‘खबर’ का अर्थ है सूचना देना। खबरों में अब सूचना नहीं होती बल्कि खबरें आरोपित होती हैं। ये वे खबरें हैं जो जबरदस्ती बनाई गई हैं। इन खबरों से सार्वजनिक बहस पैदा नहीं होती। जनतंत्र के लिए ऐसी खबरें खास मानी जाती हैं जो सार्वजनिक मुद्दों पर सार्वजनिक बहसों को जन्म दें। ( पृ. 18, वैकल्पिक मीडिया लोकतंत्र और नाम चोम्स्की, जगदीश्वर चतुर्वेदी, सुधा सिंह ) वास्तव में, सूचना तकनीकी पर पूंजी के बढ़ते शिकंजे ने अनगिनत समाचार विकृतियों को जन्म दिया है। वास्तव में चौबीस घंटे समाचार प्रसारित करने की विवशता ने भी कई समस्याएँ खड़ी कर दी हैं। सभी चैनल ‘एक्सक्लूसिव’ खबर दिखाने के लिए बार-बार उन खबरों का प्रसारण करते हैं जिसकी वजह से खबरों में दोहराव की स्थिति पैदा हो जाती है।
परिवर्तन सृष्टि का नियम है इसीलिए समय दर समय मीडिया की भूमिका भी
बदलती रही है। उन्नीसवीं शताब्दी में वह सुधारवादी आशय लिए हुए थी, बाद में उसने स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा देने में
मुख्य भूमिका निभायी, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद
मीडिया का स्वरूप बहुत अधिक बदल जाता है। उस पर धीरे-धीरे व्यावसायिकता का बढ़ता
प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगता है। लेकिन इन स्थितियों के बावजूद बाज़ार के प्रभाव से
परिचालित होते हुए भी संपूर्ण मीडिया की भूमिका को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता,
उसकी मूल भूमिका को कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। “संचार माध्यम समस्याओं और आम लोगों के बारे में चर्चा कर जनता की भागीदारी
बढ़ा सकते हैं। यदि जनसंचार माध्यमों ने अपनी भूमिका में लापरवाही बरती तो चंद
मुट्ठी भर लोग नीति निर्धारण की प्रक्रिया पर आसानी से कब्ज़ा जमा सकते हैं और फिर
जनता की भागीदारी को सार्वजनिक सेवा और मनोरंजन कार्यक्रमों के बीच इस तरह
प्रस्तुत किया जाता है मानो यह बोझ है। लोग धीरे-धीरे मनोरंजन प्रधान कार्यक्रमों
के आदी हो जाते हैं और सामाजिक कर्तव्यों की कर्मभूमि सिकुड़ती जाती है। ऐसी
स्थितियों में विदेशी एजेंसियां अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जनसंचार माध्यमों
का सहारा लेने में भी हिचक महसूस नहीं करती।“ ( पृ 11
) यही हुआ है भी इसीलिए जनसरोकार और जनप्रतिबद्धता में पहले की
अपेक्षा अवश्य कमी आई है, किंतु मीडिया में पाठक और दर्शक की
जनसहभागिता भी बढ़ी है। विभिन्न कार्यक्रमों में वैचारिक बहसों में सर्वेक्षण,
जनमत संग्रह व समसामयिक टिप्पणियों में जनभागीदारी का विस्तृत
स्वरूप देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त कुछ केस और मुद्दे ऐसे भी रहे हैं जिनका
प्रकाश में लाने और उन पर त्वरित कार्रवाई के संदर्भ में मीडिया की पहल ने केस का
रुख ही बदल दिया। बहुत से मामले तो ऐसे रहे हैं जिनमें मीडिया की पहल के कारण ही
दोषियों और अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुंचाया जा सका। प्राकृतिक आपदाओं जैसे
सुनामी त्रासदी, भूकंप, उत्तराखण्ड और
केदारनाथ में भीषण प्राकृतिक आपदा वर्तमान समय में भी देश के विभिन्न हिस्सों में
भीषण सूखे की स्थितियों का सीधा प्रसारण और ऐसी आपदाओं से बचने के लिए किए गए
सार्थक मानवीय प्रयासों को सामने लाकर मीडिया ने अपने मानवीय उद्देश्यों से
संचालित रूप को ही उजागर किया है।
निःसंदेह मीडिया की मानवीय और जनहितकारी भूमिका अभी भी कायम है लेकिन
भूमंडलीय दवाबों के चलते इस भूमिका का उतना विस्तार नहीं हो पा रहा है जितना होना
चाहिए। यहाँ मीडिया की अतिरिक्त जवाबदेही की मांग भी बढ़ जाती है। इसी तरह हमारे
देश में आधी जनता भयानक गरीबी और भूखमरी की अवस्था में रह रही हैं इसे सब जानते हैं
किन्तु इसका कभी-कभार कवरेज आता है। हमारे यहाँ प्रेस पूरी तरह स्वतंत्र है इसके
बावजूद यदि निरंतर कवरेज नहीं आता तो हमें स्वतंत्र प्रेस और अभिव्यक्ति की आज़ादी
के परे जाकर सोचना होगा। भूखमरी, सूखा,
गरीबी को लेकर मीडिया उतना संवदेनशील नहीं है जितना उसे होना चाहिए।
आमतौर पर इस मामले में मीडिया में जागरुकता का अभाव सहज ही देखा जा सकता है।”
( वैकल्पिक मीडिया- पृ. 192 ) निश्चित रूप से
तीसरी दनिया का विकासशील देश होने के कारण भारत के सामने प्रश्न एवं समस्याएँ मुँह
बाए खड़ी हैं जिनको हल करने में मीडिया के बहुआयामी रूप की बहुत बड़ी भूमिका हो सकती
है। भूख, गरीबी, अंधश्विास, अज्ञानता, महंगाई, भ्रष्टाचार
जैसी समस्याओं से जूझते हुए भारत में मीडिया जनचेतना और जनमागरण की एक नई लहर का
बहुत बड़ा वाहक बन सकता है। लेकिन विकास पथ पर द्रुतगति से बढ़ते भारत के विकराल
मुद्दों को लेकर मीडिया उतना गंभीर नहीं है जितना कि इसे होना चाहिए।
वास्तव में, ये कुछ ऐसी गंभीर एवं
विचारणीय समस्याएं हैं जिनको केंद्र में रखते हुए मीडिया की वास्तविक भूमिका की
पहचान की जा सकती है क्योंकि एक समतामूलक एवं समृद्ध देश एवं समाज के निर्माण में
मीडिया को अपनी युगांतरकारी भूमिका है- सामाजिक-राजनीतिक विकास की नज़रदारी करना,
चैकसी करना। इससे जुड़े सबसे प्रमुख प्रासंगिक मुद्दों को सामने लाना,
विभिन्न किस्म के लोगों को एक मंच पर वाद-विवाद के लिए लाना। इसके
लिए जो अधिकारी जिम्मेदार हैं उन्हें चिन्हित करना जिसे वे अपने अधिकारों का
प्रयोग कर सकें। नागरिकों के सामने सभी विकल्पों को पेश करना जिसमें से वे चुन
सकें, सीख सकें और राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल हो सकें। उन
शक्तियों का प्रतिवाद कर सकें जो अपने दबाव के जरिए नागरिक स्वाधीनता का हनन करते
हैं। आमतौर पर मीडिया को अपनी इस भूमिका को निभाते हुए हम देख ही नहीं पाते।”
( चाॅमस्की पृ. 185 ) सच तो यह है कि अब
मीडिया को अपनी इस भूमिका में आगे आना होगा। एक लोकतांत्रिक समाज के निर्माण में
अपने योगदान को स्पष्ट करना होगा।
निश्चित रूप से मीडिया का यही चरित्र उसका वास्तविक चरित्र होगा जो
सच्चे अर्थों में जनहितकारी होगा। वर्तमान समय में मीडिया को अपने इसी रूप का
विस्तार करना होगा। उसे लोगों में एक विवेकात्मक चेतना समृद्ध करनी होगी। खबर को
सनसनी फैलाने का वाहक न बनाकर उसे विकासमूलक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करना तभी
जनतंत्र को मज़बूत करने की दिशा में सकारात्मक भूमिका का निर्वाह कर सकता है अपने
देश और समाज के साथ न्यायपूर्ण रोल में आ सकता है।
सन्दर्भ सूची
1. मीडिया के पचास वर्ष, संपा.
प्रेमचंद्र पातंजलि पृ. 18
2. हिंदी पत्रकारिताः सिद्धांत और स्वरूप, सविता चड्ढा, पृ. 148
3. पत्रकारिता के उत्तर आधुनिक चरण, कृपाशंकर चौबे, पृ. 32
4. मीडिया समग्र भाग-2, जगदीश्वर
चतुर्वेदी, पृ. 165
5. जनसंचार के सामाजिक संदर्भ, जवरीमल्ल पारख, प. 77
6. मीडिया समग्र, भाग-9, जगदीश्वर चतुर्वेदी, पृ. 10
7. भूमंडलीय समय और मीडिया, सुधीश पचौरी पृ 6
8. मीडिया और सामाजिक बदलाव, जोसेफ गाथिया, पृ. 8
9. वैकल्पिक मीडिया, लोकतंत्र
और नाॅम चोमस्की: जगदीश्वर चतुर्वेदी, सुधा सिंह, पृ. 18
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