ज्ञान की विरासत में हक मांगती स्त्री : सावित्रीबाई फुले
महाराष्ट्र महान समाज-सुधारकों की जन्मभूमि रही है। 19वीं सदी में ज्योतिबा फुले और माता सावित्रीबाई का नाम बड़े ही सम्मान से लिया जाता है, जिन्होंने रूढ़िवादिता, ब्राह्मणवाद, संकीर्णता, वर्चस्ववाद एवं जातिवाद के खिलाफ संघर्ष किया। दुनिया में दो तरह की परम्पराएं है, पहली परम्परा समाज को निरन्तर बेहतर बनाना तथा उनके मौलिक अधिकारों को दिलाना तथा दूसरी परम्परा समाज को यथास्थिति में रखने के लिए बौद्धिकता का विकास करना। इन दोनों परम्पराओं में सावित्रीबाई फुले को एक बुद्विजीवी के रूप में पाते है। सावित्रीबाई विश्व की उन बौद्धिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करती है, जो प्लेटो, अरस्तू से शुरू होकर डॉ अम्बेडकर तक एक समाजोन्मुख बौद्विकता का विकास करती है, जो व्यक्ति के सामाजिक स्वीकार्यता के लिए उचित सोच पैदा करती है लेकिन इतिहास सदैव इस बात का साक्षी रहा है कि जिन लोगों के हाथ में उस समय कलम थी, उस समय उस वर्ग ने शुद्र और अछूतों के महानायकों की उपेक्षा कर उनके इतिहास को रसातल में ढकेलने का काम किया है। ऐसे ही उपेक्षित में है फुले दम्पत्ति, जिन्होंने महाकारूणिक तथागत गौतम बुद्ध की भांति देश के दबे-कुचले, पिछड़ें-अछूतों को ही नहीं, वरन अपने समाज के विरोधी वर्ग को भी अपनी निःस्वार्थ सेवाओं से उबारने का कार्य किया है।
वर्तमान
समय में शिक्षा के कारण समता सभ्यता और स्वतंत्रता का विस्तार हो जाने से स्त्री के
ज्ञान-नेत्र के द्वार खुल गये है। उसने पुरूषों के पहनाए वर्चस्ववादी जेवर उतार कर
फेंक दिए है तथा अब पुरूषों की ही भांति सूट-बूट, चड़ीदार
पजामा, कुर्ता, गले में टाई एवं आंखो
पर चश्मा तथा कलाई में रिस्टवाच लगाती है। आज की नारी पुरूषों की तरह दफ्तरों,
कारखानों, विद्यालयों अस्पतालों,
अदालतों इत्यादि सभी जगहों पर पुरूषों के समान बराबरी में अपनी हिस्सेदारी
दे रही है। अब पुरूषों की मित्र तथा जीवन-साथी सी बन गयी है लेकिन दासी नहीं। अब स्त्री
अपनी स्वतंत्र सत्ता रखने वाली मानक प्राणी है।
पुरूष
प्रधान भारतीय समाज में प्रारम्भ से ही इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया है कि स्त्री
भी मानव है और इसका भी पुरूष के ही समान सद्बुद्धि है लेकिन उसका व्यक्तित्व स्वतंत्र
नहीं है। स्त्री गुलाम बनकर सामाजिक व्यवस्था की चक्की में पिसती रही है तथा अज्ञानता
के अंधकार, बाल-विवाह, जात-पात, वर्ग-भेद,
विधवा-मुंडन तथा सती-प्रथा इत्यादि कुप्रथाओं का शिकार रही है। इस
परम्परा को तोड़ने का साहस उसी समय ज्योतिबा फुल ने समाज की परम्पराओं से लोहा लेते
हुए सर्वप्रथम कन्या विद्यालय की स्थापना की। सर्वप्रथम महात्मा फुले ने अपने ही खेत
में आम के पेड़ के नीचे स्कूल खोलकर शिक्षा देना शुरू किया। जिसमें सगुणाबाई तथा सवित्रीबाई
प्रथम विद्यार्थी थी। यही स्त्री शिक्षा की प्रथम नींव थी।
जन्म
और बचपन:- सम्पूर्ण भारत में शिक्षा ग्रहण करने वाली प्रथम स्त्री, प्रथम अध्यापिका
छुआछूत तथा अंधविश्वास के विरूद्ध आवाज उठाने वाली प्रथम समाज सेविका, लेखिका सावित्रीबाई फुले प्रथम संघर्षरत स्त्री रहीं। सावित्रीबाई फुले
का जन्म 3 जनवरी सन् 1831 ई0
को महाराष्ट्र के सतारा जिले की खंडाला तहसील के ’नयागांव’ में हुआ। इनके माता का नाम लक्ष्मीबाई,
पिता का नाम खन्दोजी नेवसे पाटिल तथा पति का नाम ज्योतिबा राव फुले
था। 1840 ई0 में 9 वर्ष की ही आयु में सावित्रीबाई फुले का विवाह ज्योतिबा फुले (13
वर्ष) के साथ हुआ। फुले के साथ मिलकर सावित्रीबाई ने समाज में जागरूकता
फैलाने का कार्य प्रारम्भ किया। 14 जनवरी 1848 ई0 में पूणे में प्रथम बालिका विद्यालय की स्थापना
की। विद्यालय का संचालन पूणे के तात्या साहेब भिडें के मकान में होता था। सावित्रीबाई
फुले इस विद्यालय की प्रथम शिक्षिका और बाद में प्रधानाध्यापिका भी बनी। विद्यालय को
चलाने के लिए सावित्रीबाई को कठिन परिश्रम करना पड़ा। इस विद्यालय में ब्राह्यण बालिकाओें
की संख्या अधिक थी, लेकिन ब्राह्यण ही फुले दम्पत्ति के इस
कार्य को धर्म विरोधी ठहराते हुए इसका विरोध करने लगे। सावित्रीबाई जब घर से स्कूल
जाती थी तो, लोग उनके ऊपर गोबर-मिट्टी और पत्थर फेकते थे,
फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और ज्यादा हिम्मत से आगे बढ़ती गयी।
इनका मानना था कि दलित समाज हजारों सालों से अंधविश्वास, वर्णव्यवस्था,
गरीबी एवं बेकारी का शिकार रहा है। इस समाज को अगर इससे निकालना है,
तो, शिक्षा ही एक मात्र माध्यम है।
ज्योतिबा
राव के परम मित्र एवं मुम्बई के प्राख्यात समाजसेवी मामा परमानन्द ने सावित्रीबाई के
साहस की प्रशंसा करते हुए कहा कि ऐसे विपरीत समय में जब एक व्यक्ति अपनी स्त्री को
शिक्षित बनाता है और उसके द्वारा ब्राह्मण के बच्चों को शिक्षा प्रदान करता है और वह
भी ब्राह्मण के गढ़ में,
इसके लिए सावित्रीबाई फुले की जितनी प्रशंसा की जाये वह कम है।1
सावित्रीबाई
फुले भारत की प्रथम क्रांतिकारी कार्यकत्री के साथ ही साथ भारतीय नारी समाज की प्रथम
समाज सेविका हैं सावित्रीबाई फुले अनेक कष्ट को सहन करते हुए तथा समाज की प्रताड़नाएं
सहते हुए स्वंय शिक्षित हुई तत्पश्चात भारत की प्रथम अध्यापिका बनी। माता सावित्रीबाई
ने स्त्री शिक्षा हेतु निःशुल्क शिक्षा सेवायें देती थी तथा अपने खाली समय में आजीविका
हेतु मोटे गद्दे बनाकर उसे बेचने का कार्य करती थी। सावित्रीबाई फुले के महान योगदान
के सम्बन्ध में महामना ज्योतिबा फुले ने कहा है कि अपने जीवन में जो कुछ भी कर पाया
हूँ, वह मेरी पत्नी सावित्रीबाई के सहयोग से ही हो सका है। वे काटें भरे रास्ते
में भी मेरे साथ कदम से कदम मिलाकर चलती रही।2
सावित्रीबाई
फुले की शिक्षा एवं सृजनात्मकता:- 19वीं सदीं उस समय का अंधकार युग था,
उसी कठिन दौर में अर्थात् 1840 ई0
में सावित्रीबाई फुले तथा ज्योतिबा फुले का विवाह हुआ जो कि बाल विवाह
था। ब्राह्मणी धर्मग्रन्थों के दबाब के कारण लडकियों को पढ़ाया-लिखाया नहीं जाता था
बल्कि इसके स्थान पर बाल-विवाह का प्रचलन जोरों पर था लेकिन इस पारम्परिक कुरीतियों
को तोडतें हुए पहले खुद शिक्षित हुई तथा दूसरों को भी शिक्षा देने का कार्य जोर-शोर
से किया। सावित्रीबाई फुले मात्र अध्यापिका और समाजसेवी ही नहीं बल्कि वह एक सहज बुद्विमान
लेखिका तथा प्रतिभा सम्पन्न कवत्रियी भी थी। उनकी साहित्यिक रचनाओं में कविता के साथ
ही साथ पत्र, भाषण, लेख, पुस्तके इत्यादि शामिल है।
कवयित्री
के रूप में सावित्रीबाई फुले:- ‘सावित्रीबाई फुले अपने जीवन काल में दो काव्य
संग्रह की रचना की जिसमें पहला काव्य-संग्रह 1854 ई0
में ‘काव्य-फुले’ छपा, जब वह मात्र 23 वर्ष
की थी और उनका दूसरा काव्य-संग्रह 1891 ई0 में ‘बावनकशी सुबोध रत्नाकर’ आया, जिसको सावित्रीबाई ने अपने जीवन-साथी ज्योतिबा
फुले के परिनिर्वाण के बाद उनकी जीवनी के रूप में लिखा था।’3
सावित्रीबाई
अपनी कविताओं में धर्म,
धर्मशास्त्र, धार्मिक पाखण्ड़ों और सामाजिक
कुरीतियों पर जमकर प्रहार किया है जिसका एक उदाहरण उनकी कविता के माध्यम से ही इस प्रकार
है-
‘शुद्र और अति शुद्र
अज्ञान
की वजह से पिछडे़
देव
धर्म, रीति-रिवाज अर्चना के कारण
अभावों
से गिरकर में कंगाल हुए। 4
सावित्रीबाई
फुले जानती थी कि शूद्र और दलितों की गरीबी का कारण क्या है? लोग समझते
है कि ब्राह्मणवाद केवल मन की मानसिकता ही नहीं वरन एक पूरी व्यवस्था है जिसमें धर्म
और ब्राह्मणवाद के पोषक तत्व, देवी-देवता, रीति-रिवाज, पूजा-अर्चना आदि गरीब, दलित व दमित जनता को अपने नियंत्रण में रखकर उनकी उन्नति के सारे रास्ते
बंद कर उन्हे गरीबी, तंगी, बदहाली भरे जीवन में धकेलते आए है।
‘पहला कार्य पढ़ाई,
फिर
वक्त मिले तो खेल-कूद
पढ़ाई
से फुर्सत मिले
तभी
करों घर की साफ-सफाई
चलों, अब पाठशाला
जाओ...।’5
इन
कविताओं से पता चलता है कि सावित्रीबाई फुले जिन विचारों की थी, उसकी झलक
उनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से मिलती है। वे लडकियों को घर में काम करने, चैका बर्तन करने की अपेक्षा उनकी पढ़ाई-लिखाई को बेहद जरूरी मानती थी। सावि़त्रीबाई
स्त्री अधिकार चेतना सम्पन्न स्त्रीवादी कवयित्री थी।
सावित्रीबाई
फुले की कविता-संग्रह पर प्रसिद्ध लेखक एम0 जी0 माली
का मत है कि बावनकशी जीवनी है, जिसे सावित्रीबाई की सबसे पहली
प्रमाणिक उपलब्ध जीवनी है जिसे सावित्रीबाई फुले ने बावन पदों में काव्यात्मक शैली
में लिखा है। दूसरे शब्दों में कहे तो बावनकशी सुबोध रत्नाकर ज्योतिबा फुले पर लिखा
गया संक्षिप्त महाकाव्य है जो देखने में छोटा पर अपने उद्देश्य में अत्यन्त विशाल और
अति महत्वपूर्ण है।’6
अंधविश्वास
की परम्परा पर डंके की चोटः- क्रांतिकारी कवयित्री सावित्रीबाई फुले ने अपनी कविता
को हथियार बनाते हुए कुशल ढंग से वर्चस्ववादी ताकतों पर प्रहार किया है और कहती है
कि शुद्राति-शूद्रांे को हमेशा ईश्वर के नाम की अफीम की गोली देकर हमेशा के लिए नशे
में रखा है जिसमें यह स्पष्ट ही न हो पाये कि हमारे शोषणकर्ता कौन है?
माता
सावित्रीबाई फुले ने अपनी एक कविता ‘मन्नत’ में
लिखती है कि -
-‘पत्थर को सिंदूर लगाकर
तेल
में डुबोकर
जिसे
समझा जाता है देवता
वह
असल में होता है पत्थर
म्हसोबा, खेसोबा
भयंकर
विकराल देवता
पत्थरों
पर आस्था, श्रृद्धा छिड़ककर।’7
इस
कविता के माध्यम से सावित्रीबाई ने अंधविश्वास की परम्परा पर डंके की चोट की हैै तथा
उस कठिन समय काल में यह देवता ‘नही’ पत्थर कहने का साहसिक
कदम उनका था। संत तुकाराम ने कहा था कि- ’‘नवसे सायासे कन्या,
पुत्र होगी। मंग का करावा लगे पति।’‘ अगर
मन्नत मांगने से बच्चा पैदा होता है तो शादी की क्या जरूरत है?
सावित्रीबाई
फुले आधुनिक भारत की पहली कवयित्री थी जिसमें अपने कविताओं को स्थूल रूप से निम्न विषयों
को केन्द्र में रखकर कविता लिखी जिसमें प्रकृति से सम्बन्धित, सामाजिक
विषयों से सम्बन्धित, प्रार्थनापरक, आत्मभानपरक, काव्य विषय परक, उपदेशपरक, इतिहास विषय इत्यादि अन्य विषयों पर
अपनी लेखनी चलाई। इसमें सामाजिक विषय पर लेखनी जो चलाई उसे अपने जीवन में भी उतारा
है। उनकी सामाजिक कविताओं में मुख्यतः 11 कविताएं है जो इस
प्रकार है- ‘1. शिक्षा हेतु जागृत हो जाओ 2. मनु ने कहा है 3. ब्राह्मरूपी खेती 4. शुद्रों का दुख 5. अंग्रेजी मां 6. शुद्ध शब्द का अर्थ
7. बलीस्त्रोस्त्र 8. शुद्रो का परावलंबन
9. इन्हे मनुष्य कहे क्या? 10. अज्ञान
11. सावित्री और ज्योतिबा संवाद।’8
इन
कविताओं का विषम रचना समाज के प्रति दुख और विद्रोह है ये कविताएं तात्कालीन समाज के
मुखौटे को खींचकर उसके वास्तविक चरित्र को पेश करती है। सावित्रीबाई फुले की अधिकांश
कविताएं सामाजिक सद्भाव से प्रेरित करने वाली है।
वक्ता
के रूप में सावित्रीबाई फुले:- कवियत्री के साथ ही साथ सवित्रीबाई फुले सार्वजनिक मंच
पर भाषण भी देती थी उनके पांच भाषणों का संग्रह 1892 ई0 में वत्सल प्रेस, बड़ोदा से प्रकाशित है। माता सावित्रीबाई
फुले अपने ही एक भाषण ‘विद्यादान’ के अंत में वे कहती है- ’‘महार, मातंग, शुद्र, अतिशुद्र,
धनगर, माली, कुनबी
आदि लोग इस देश में रहते है इन लोगों के पास ज्ञान, कला,
चीमड़पन आदि गुण है परन्तु उनका उपयोग आज तक की सरकार ने किया ही नहीं
है। शूद्रादि-अतिशूद्रों के पास निःसंदेश अनेक गुण है। परन्तु घोर अज्ञान के कारण उन्हें
अपनी बुद्धि का, कुशलता का उपयोग कहाँ ओर कैसे कर लेना इसका
पता ही नहीं था और अगर पता हो भी तो अपने इस देश में किस बात का उत्पादन करने से वह
लोकोपयोगी होगा कि नहीं, किस बात का उत्पादन करने से हमारे
देश का और हमारा फायदा होगा, यह उन्हें समझ में नहीं आता और
सरकार भी उन्हें किसी प्रकार का मार्गदर्शन नहीं करती। इन शूद्रों और अतिशूद्रों का
ऐसा मूर्ख स्वभाव है कि उन्हे कोई अन्य मार्ग बतलाए बगैर वे खुद की अकल से अथवा हिम्मत
से कोई भी काम करने की साहस नहीं करते। इनका स्वभाव भी बुरा है, उन्हें हम कैसे प्रगति करें यही समझ में नही आता और ऐसे ही अज्ञान के कारण
वे आधा पेट भूखे रहते है।’9 सावित्रीबाई के भाषणों से भी स्पष्ट
है कि उनका चिन्तन सामाजिक रूप से सचेत करने वाला है तथा उनकी वैचारिकता को और अधिक
प्रमाणिकता के साथ सिद्ध करती है।
पत्र
लेखिका सावित्रीबाई:- 10 अक्टूबर
1856 ई0 में लिखे एक पत्र में वे
इस बात को स्पष्ट करते हुए कहती है कि- ‘मेरे भाई ने कहा कि
तू और तेरे पति को माला समाज ने बहिष्कृत किया है क्योंकि आज दोनों महार, मांतगों, अश्पृश्यों के लिए जो काम कर रहे है,
वे काम हीन पतीत है। अपने कुल पर दाग लगाने वाले है। इसलिए मैं तुम
दोनों से कह रहा हूँ, कि यह सब छोडे़ और रूढ़ि के अनुसार ब्राह्यण
जो कह रहे है, उसके अनुसार अपने कार्य को सुधारें। उनकी बातें
सुनकर मैने उससे कहा, भाई तेरी बुद्धि संकुचित है। भाई इन
भटों (पुरोहितों) की शिक्षा से भरी तेरी बुद्धि कमजोर हो गयी है। तू बकरी, गाय, भैस को निकट लेकर इन्हे प्यार करता है। नाग
पंचमी को जहरीले सांप को दूध पिलाता है। महार, मांतग तो मेरी तुम्हारी तरह मनुष्य है। उन्हे क्यों अछूत
समझता है। ये पुरोहित लोग भी तो पूजा करते समय तुम्हे अछूत ही समझते है ना?
मेरी इन बातों को सुनकर वह लज्ज्ति हुआ।’10
सावित्रीबाई फुले का यह वैविध्यपूर्ण
लेखन जिसमें पत्र-पत्रिकाएं, भाषण, कविता-संग्रह इत्यादि इन सभी दस्तावेजों का काल 1880-1890 रहा है जिसकी रपट डॉ माली जी की पुस्तक ‘‘सावित्रीबाई
फुले: समग्र वाड्मय’ में छपी है। प्रस्तुत पुस्तक को महाराष्ट्र
राज्य साहित्य संस्कृति मंडल ने 1988 में पहली बार प्रकाशित
किया है जिसका वर्तमान समय में 7वां संस्करण छप चुका है।
धार्मिक
ग्रन्थों के अनुसार स्त्रियों की दशा:-सावित्रीबाई फुले के अनुसार ‘मनुस्मृति’
शूद्र समाज के दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है इस मनुस्मृति के कारण
ही चार वर्णों के जहरीले विष का निर्माण हुआ। इसी कारण दलित और शूद्रों का पूरा जीवन
मानसिक गुलामी तथा सामाजिक अस्पृश्यता में बीता।
‘मुनस्मृति की कर रचना मनु ने
किया
चातुवर्ण का विषैला निर्माण
उसकी
अनाचारी परम्परा हमेशा चुभती रही
स्त्री
और सारे शूद्र गुलामी की गुफा में हुए बंद
पशु
की भांति शूद्र बसते आए दड़बो में।’11
पौराणिक
ग्रन्थों के अनुसार हिन्दू द्वारा स्त्रियों के सन्दर्भ में एक और श्लोक इस प्रकार
है।
’‘पिता रक्षाति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
रक्षन्ति
स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्रययर्हति।।’12
अर्थात्
स्त्रिँया उनके परिवार के पुरूषों द्वारा दिन-रात अपने अधीन रखी जानी चाहिए और यदि
वे अपने को विषयों में आसक्त करें, तो उन्हे अपने नियंत्रण में करना
चाहिए। मनुस्मृति पर आधारित हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में स्त्री को हमेशा से गर्त में
ढ़केला गया है यह सर्वविदित है। इसी सन्दर्भ में मनुस्मृति का एक श्लोक-
‘बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत्पणिग्राहस्य यौवने।
पुत्राणां
भर्तरि पे्रते न भजेत्स्त्री स्वंतत्रताम।।’13
अर्थात्
नारी बचपन में पिता के अधीन, यौवनावस्था में पति के अधीन और पति के देहावसान
के बाद पुत्रों के अधीन रहे। स्त्री कभी भी स्वतंत्र न रहे।
भारतीय
स्त्री के संदर्भ में विभिन्न सूत्रकारों का मत:- मनुस्मृति का असर भारतीय हिन्दू वर्चस्ववादी
साहित्यकारों पर बखूबी देखने को मिलता है जिसमें सूर और तुलसी ने नारी को दयनीय स्थिति
में पहुचाने के लिए कोई भी कोर-कसर नहीं छोड़ी। डाॅ0 कुसुम मेघवाल की पुस्तक ‘भारतीय नारी के उद्धारक: डॉ बी0 आर0 अम्बेडकर’ में पृष्ठ सं0 55 पर स्पष्ट करती हुई लिखती है कि उस समय काल के वर्चस्ववादी लेखक तथा धार्मिक
ग्रंथ में स्त्री को विरोधी के रूप में दर्शाया गया है जिसके संदर्भ में कुछ मत इस
प्रकार से है-
भागवत
पुराण में लिखा गया है कि स्वार्थ वश स्त्री अपने पति, व भाई को
भी मार डालती है।
वेदान्त
के पारंगत विद्वान स्त्री को नरक का मूल मानते है।
शंकराचार्य
जी ने नरक का एक मात्र द्वारा नारी को बताया है।
कौटिल्य
ने लिखा है स्त्री के चरित्र और पुरूष के भाग्य को देवता भी नही जान सकते, फिर मनुष्य
कैसे जान सकता है।
मनु
का कहना है कि पुरूषों को दूषित करना ही नारियों का स्वभाव है।
कौटिल्य
ने अपने अर्थशास्त्र में स्त्रियों को अकेले घूमने की स्वतंत्रता नहीं दी।
पद्म
पुराण में लिखा है कि स्त्रियाँ केवल इसलिए साध्वी रहती है कि उन्हें गुप्त स्थान, अवसर नहीं
मिलता।
चाणक्य
नीति में कहा गया है कि स्त्री चाहे जितना दान करे, सैकड़ों व्रत उपवास रखे,
सभी तीर्थो की यात्रा करे, वह पवित्र नही
होती। केवल पति के चरण धोकर पीने से ही वह पवित्र होती है।
चाणक्य
नीति का ही कहना है कि कोई भी व्रत, उपवास पति की आज्ञा से ही करनी चाहिए,
अन्यथा इसका फल अच्छा नहीं होता है।
इसी
प्रकार भारतीय हिन्दू शास्त्रकारों ने धर्म के नाम पर स्त्रियों को युगों-युगों से
ठगा और शोषण किया है देश की 90 प्रतिशत स्त्रियाँ आज भी उसी त्रासदी का शिकार
होकर अपना जीवन जी रही है, चाहे गाँव हो या शहर, शिक्षित हो या अशिक्षित। शोषण के विरूद्ध अपनी मुक्ति के लिए जब भी कभी
स्त्रियाँ आवाज उठाती है तो उन्हे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि ’‘भारतीय नारी तो पूजनीय है।’‘ उसे तो पुरूषों से
उच्च स्थान प्राप्त है लेकिन स्थिति बिल्कुल इसके विपरीत है। धर्म और व्यवस्था के नाम
हो रहे जुल्म और अत्याचार को स्त्री चुपचाप केवल सहन करती आयी है। पता नहीं वह कब दिन
आयेगा, जब अपने आपकों बुद्धिजीवी विवेकवान, जागरूक तथा अपने आप को साहसी मानने वाली स्त्रियाँ मनुस्मृति की सामूहिक
होली जला कर उसका विरोध करते हुए ब्राह्यणवादी व्यवस्था को जड़ से उखाड फेक देगी और
तुलसीदास की जड़ता को चुनौती देगी तथा सावित्रीबाई फूले के स्वप्न को साकार करेगी।
सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन:- ऐतिहासिक कार्य ज्योतिबा फूले और सावित्रीबाई फूले के सामाजिक आन्दोलन ने शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन की नयी लहर दी जिससे स्त्रियों को भी समान शिक्षा व्यवस्था में हक और अधिकार मिलने लगा। 19वीं सदी में छुआछूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह तथा विधवा विवाह जैसे कुरीतियां जो समाज मे फैली हुई थी उसके खिलाफ लड़ाई लड़ी। फूले दम्पत्ति ने 1876 एवं 1879 ई0 के अकाल में अन्न इक्ट्ठा करके आश्रम में रहने वाले 2000 बच्चों को नियमित भोजन की व्यवस्था कराई। उस समय काल में पेशवाओं का इतना वर्चस्व था कि ओबीसी तथा अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों को पीने के लिए पानी भी नहीं दिया जाता था इसलिये ज्योतिबा फुले ने अपने घर के सामने जो कुआँ था वो सभी के लिए खुलवा दिये। उस समय काल में यह एक बड़ी सामाजिक क्रान्ति थी। फुले के ब्राह्मण धर्माधिकारियों का उस समय विरोध इतना प्रबल था कि सावित्रीबाई फुले के पिता को कहना पड़ा था कि ‘‘या तो अपना स्कूल चलाओं या मेरा घर छोड़ो’‘। फुले दम्पत्ति ने उस ब्राह्मणवादी व्यवस्था से लडने तथा संघर्ष करने के लिए घर को भी छोड़ दिया। इस परिस्थिती में फातिमा शेख ने फुले दम्पत्ति को अपने घर में जगह दी। तत्पश्चात् फातिमा शेख ने भी सावित्रीबाई फुले के साथ अध्यापिका का प्रशिक्षण लेकर लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया। इसी प्रकार से फातिमा शेख को भी प्रथम मुस्लिम शिक्षिका बनने का गौरव प्राप्त हुआ।
फुले दम्पत्ति ने आजीवन वंचित स्त्री, शूद्रो तथा आदिवासी समाज के लोगों को शिक्षित कर एक नये युग की नींव रखी। नारी उत्थान हेतु सावित्रीबाई फुले के द्वारा किये गये सराहनीय प्रयास अभूतपूर्ण एवं अद्वितीय है। भारत की ऐसी महान महिला को हमारी केन्द्र सरकार ने अपने देश की नारियों से अवगत कराने का कोई प्रयास नहीं किया है और न ही देश में चल रहे विभिन्न महिला संगठनों ने ऐसा कोई प्रयास किया है लेकिन महाराष्ट्र राज्य एवं महाराष्ट्र के महिला संगठन इसके अपवाद है किन्तु सावित्रीबाई तो हमारे देश के लिए गौरव है और भारत की प्रत्येक नारी का यह कर्तव्य बनता है कि वे भारतीय स्त्री शिक्षा की प्रथम हिमायती नारी से अपने देश की स्त्रियों को परिचित करायें।
इस प्रकार से फुले दम्पत्ति
ने उस कठिन समय काल में अपने अचल प्रयासों से पूना एवं उसके आस-पास के क्षेत्रों में
लगभग 18 विद्यालयों की स्थापना कर पूर्ण रूप में शिक्षा देने
का कार्य करने लगें। इसी तरह से सावित्रीबाई फुले का पूरा जीवन वंचित तबकों खासकर स्त्री
और दलित समाज के लोगों के हक और अधिकारों के लिए सहयोग और संघर्ष में बीता।
विधवा
पुनर्विवाह:- सावित्रीबाई फूले ने विधवा पुनर्विवाह में अपनी महती योगदान दी तथा समाज
में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष किया। सावित्रीबाई फुले 25 दिसम्बर
1873 को सर्वप्रथम पहला विधवा विवाह करवाया, जिसका वचस्र्ववादी ताकतों एवं हिन्दू धर्म के लोगों ने इनका कड़ा विरोध किया
लेकिन फुले ने पहले से ही पुलिस प्रशासन की उचित व्यवस्था कर ली थी इसलिए उन्हें कोई
बाधा नहीं पहुची। यह विवाह इस कारण से और भी क्रांतिकारी था कि इसमें ब्राह्मण पुरोहित
को शामिल नहीं किया गया था। ज्योतिबा फुले ने सत्य शोधक समाज की स्थापना कर उसी के
माध्यम से विवाह की नई खुद विधि तैयार की थी। उस कठिन समय काल में ब्राह्यणवादी परम्परा
को तोड़ना तथा विवाह की ऐसी विधि तैयार करना बहुत ही विद्रोही कदम था।
सत्य
शोधक समाज की स्थापना:- 24
सितम्बर 1873 को फुले दम्पत्ति ने सत्य शोधक
समाज की स्थापना की। इसकी स्थापना का उद्देश्य पितृसत्ता और ब्राह्यणवाद के चुंगल से
लोगों को मुक्त कराना। सावित्रीबाई, सत्य शोधक समाज की महिला
इकाई की प्रमुख थी। इस इकाई की बैठकों में दलित, आदिवासियों
और स्त्रियों के मुद्दों पर लगातार बहस होती थी। लड़कियों की सही उम्र में शादी,
विधवा पुनर्विवाह, अवैध सन्तानों का संरक्षण
इत्यादि इन बैठकों में उठाये जाने वाले प्रमुख मुद्दे होते थे। फुले दम्पत्ति का मानना
था कि अंतरजातीय विवाहों से जातिप्रथा का उन्मूलन संभव है। वे अंतरजातीय विवाह करने
वालों की मदद भी करते थे। ऐसे विवाह में जीवन-साथी के रूप में लड़का और लड़की केवल यह
वचन लेते थे कि हम एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहेंगे तथा सामाजिक कार्यों में अपनी
सहभागिता बढ़-चढ़ कर देगें।
धर्मगुरू कहा करते थे कि- ’‘नारी बिना पति के, भाई एवं बेटे के सहारे के बिना जीवन नही बिता सकती।’‘14 19वीं सदी में सावित्रीबाई तथा ज्योतिबा फुले के महत्वपूर्ण सामाजिक कार्यों में छुआछूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह, विधवा-विवाह इत्यादि जैसे कुरीतियों का विरोध किया तथा इसे दूर भी किया। इतिहास लिखने वाले ज्योतिबा फुले एवं माता सावित्रीबाई फुले के सराहनीय कार्यों को गर्त में दबा दिया तथा अधंविश्वास तथा पाखण्ड का केवल इतिहास लिखा।
शिक्षक
दिवस की असली हकदार सावित्रीबाई फुले:-
’‘किसी शायर का कथन है-
सीढ़िया
उनके लिए होती है।
जिन्हे
छत पर जाना है।
आसमान
पर हो नजर जिनकी
उन्हंे
तो रास्ता खुद ही बनाना है।’‘
भारत में महिलाओं और लड़कियों को शिक्षा प्रदान करने वाली प्रथम शिक्षित महिला और अध्यापिका थी सावित्रीबाई। लेकिन दुख का विषय यह है कि शिक्षक दिवस के अवसर पर हम सभी इनको याद नही करके बल्कि डाॅ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन तथा स्वरसती को भारत सरकार द्वारा पढ़ा एवं पढ़ाया जाना तथा इनका जन्मदिन मनाने का आदेश होता है। जबकि सावित्रीबाई को वह स्थान नहीं दिया जाता, जिनके अथक परिश्रम से देश में सबसे अधिक दबे-कुचले लोगों की बेटियों को काले अक्षरों को देखने-समझने का अवसर मिल सका था। सावित्रीबाई का शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य इस प्रकार से है-1. - ’‘सावित्रीबाई आधुनिक भारत की प्रथम साक्षर महिला थी। 2. वे देश की प्रथम शिक्षित महिला थी। 3. वे देश की प्रथम शिक्षिका थी। 4. वे देश की प्रथम महिला प्रधानाध्यापिका थी। 5. वे नारी-मुक्ति आन्दोलन की प्रथम नायिका थी। 6. सतीप्रथा के असली महानायक राजाराम मोहनराय नहीं अपितु सावित्रीबाई फुले ही वास्तविक सतीप्रथा के विरोध में ईमानदाराना नेतृत्व प्रदान करने वाली महानायिका थी।’‘15 लेकिन आज तक दुख का विषय यह है कि ऐसी महान महिला जो 19वीं सदीं में छुआछूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह तथा विधवा विवाह प्रतिबन्ध जैसी अमानवीय कुरीतियों के विरूद्ध अपने पति के साथ कदम से कदम मिलाकर काम किया, पर हमारे वर्चस्ववादी इतिहासकारों ने उन्हे पूरी तरह से भुला दिया। सबसे ज्यादा तो और दुख की बात है कि जिन स्त्रियों के लिए सावित्रीबाई ने आजीवन संघर्ष किया, वही स्त्रियाँ उनको नही जानती तथा भारत में नारी शिक्षा की नींव डालने वाली महिला को भी महिला सम्मेलनों मे ंमहिलाओं द्वारा भी याद नहीं किया जाता है इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है?
भारत देश में रह रही हर जागरूक
नारी का कर्तव्य है कि भारतीय नारी-शिक्षा की प्रथम हिमायती नारी सावित्रीबाई से परिचित
करायें तथा आज प्रत्येक भारतवासी की जुबान से केवल एक ही बात की भारत सरकार से माँग
करनी चाहिये कि सावित्रीबाई फुले को देश के सर्वोच्च सम्मान (भारत रत्न) से सम्मानित
किया जायंे। यही उनके सामाजिक न्याय तथा स्त्रियों के शैक्षिक अधिकार दिलाने के लिये
उचित सम्मान होगा।
सन् 1897 मे ंमहाराष्ट्र भर में ताऊन (प्लेग) की बीमारी बहुत ही भयंकर रूप में फैली,
जिसमें बहुत परिवार बर्बाद हो गया। बहुत से पशु मर गये। बहुत लोग
डर के कारण गाँव छोड दिये तथा जंगल में जाकर रहने लगे। इस दौरान सत्यशोधक समाज ने भी
अपना सेवा करने का दायित्व बढ़-चढ़ कर दिया। इसी समय 1890 में
महामना ज्योतिबा फुले की मृत्यु हो गयी तत्पश्चात् सेवा की पूरी जिम्मेदारी सावित्रीबाई
के कंधों पर आ गयी। सावित्रीबाई प्लेग पीडित रोगियांे को उठाकर लाती थी फिर उनके दत्तक
पुत्र चिरंजीव डा0 यशवत फुले के अस्पताल में लाकर उनके इलाज
का कार्य बड़ी ही तत्परता से करवाती थी। इसी दौरान सावित्रीबाई को पता चला कि एक अछूत
लड़का इसी बीमारी का शिकार हो जाने के कारण घर में तड़प रहा है इतना सुनते हो उसके घर
पहुँची और उसे अपने बांजुओं पर उठाकर सावित्रीबाई अस्पताल ले जा रही थी इसी सेवा कार्य
के दौरान खुुद भी प्लेग के संक्रमण में फँस गई। प्लेग ने बहुत ही मजबूती से उनके ऊपर
हाबी हो गया। तत्पश्चात 10 मार्च 1897 ई0 को उनका परिनिर्वाण हो गया। इस कारण उनका सामाजिक
कार्य के सुधार का कार्य थम गया। इस प्रकार उनका सामाजिक कार्य अतुलनीय है और इनकी
तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती है।
आधुनिक युग में शिक्षा, सभ्यता और स्वतंत्रता का विस्तार देने वाली नारी प्रेरणा के स्रोत, भारत के प्रथम अध्यापिका, प्रथम समाजसेवी, प्रथम क्रान्तिकारी महिला सावित्रीबाई फुले ने पूरे देश में स्त्री मुक्ति के आन्दोलन की नींव रखी, जिसके बदौलत आज महिलायें देश के लगभग सभी सरकारी एवं प्राईवेट नौकरियों में कार्यरत, उच्च पदों तक पहुँच सकीं हैं। लेकिन स्त्रियों को यह नही भूलना चाहिए कि भारतीय नारी चाहे वह उच्चवर्णीय हो या निम्नवर्गीय, उसे मुक्त कराने का श्रेय एक शूद्र नारी सावित्रीबाई फुले ने ही किया है। भारत की हर शिक्षित नारी सावित्रीबाई की ऋणी है तथा सावित्री बाई के इस योगदान को भारतीय महिलाओं को स्वीकार करना पड़ेगा। लेकिन दुखद आज वर्तमान समय में हो रहे स्त्री विमर्श पर कार्यक्रम जो कि स्त्रियों द्वारा ही संयोजित एवं संचालित होता है उसमें भी याद नहीं किया जाता है। प्रत्येक शिक्षित नारी का कर्तव्य है कि प्रत्येक शिक्षित नारी क्रान्तिज्योति सावित्रीबाई फुले के योगदान को जाने तथा देश के और अन्य सभी नारियों को भी परिचित करायें। यही हम सभी की तरफ से सावित्रीबाई फुले के लिए सच्ची बुद्धाजंलि होगी।
ऐसी बहुआयामी व्यक्तित्व वाली
एवं क्रान्तिकारी वीरांगना सावित्रीबाई फुले का हमारे तरफ से सादर नमन
वर्चस्ववादी व्यवस्था पर प्रहार
करते हुए किसी शायर ने क्या खूब कहा है- ’‘
फूल वही चुन पाते है,
जो काटों से टकराते है,
अधिकार न मागे मिले कभी,
अधिकार तो छीने जाते है।
आशीष कुमार ‘दीपांकर’
हिन्दी
विभाग
छत्रपति
शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर
मो0 नं0 9795508915
सन्दर्भ
ग्रन्थ सूची
1. 50 बहुजन नायक, लेखक-अशोक दास-डा0 पूजा राय, दास पब्लिकेशन दिल्ली, प्रथम संस्करण-2017,पृष्ठ-55
2. भारतीय नारी के उद्धारक बाबासाहेब
डा0 बी0आर0 अम्बेडकर, डा0 कुसुम मेघवाल,
सम्यक् प्रकाशन , नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-1994, पृष्ठ-75
3. दलित अस्मिता, संपादक-विमल थोराट, अंक-जनवरी-मार्च 2017 (सावित्रीबाई फुले विशेषांक),
नई दिल्ली, पृष्ठ-13
4. वही, पृष्ठ-14
5. वही, पृष्ठ-16
6. वही, पृष्ठ-20
7. वही, पृष्ठ-43
8. वही, पृष्ठ- 29
9. वही, पृष्ठ-33
10. वही, पृष्ठ-33-34
11. वही पृष्ठ-20
12. हिन्दू नारी का उत्थान और पतन,
बाबा साहेब डाॅ0 बी0आर0 अम्बेडकर, अनुवादक-शीलप्रिय
बौद्ध, सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2003, पृष्ठ -73
13. भारतीय नारी के उद्धारक बाबा
साहेब डा0 बी0आर0 अम्बेडकर, डा0 कुसुम मेघवाल,
सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-1994,
पृष्ठ-48
14. प्रहार (समाचर पत्र) मार्च/ अपै्रल
2016, राजापुर इलाहाबाद, पृष्ठ-5
15. क्रान्तिज्योति सावित्रीबाई फुले
की अमर कहानी, लेखक-शांतिस्वरूप बौद्ध, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2016, पृष्ठ-231
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