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सुमित चौधरी की नौ कविताएं

 

1. रोटी का दाम

 

कितना उपयोगितावादी हुआ जा रहा है

हमारा समाज

कि हर वस्तु को देखता है

बाज़ार की नजर से

 

यह तनिक भर याद नहीं रहता उसे

कि बाजार उसकी भूख मिटा नहीं सकती

खुश रखना, तो बहुत दूर की बात है

 

दोस्तों!

मेरे हिस्से में दो रोटियां आईं

कोई मुझसे इसका दाम पूछ रहा है

मैं शांत भाव से देखते हुए

उससे कहता हूं-

दोस्त!

रोटियों के दाम नहीं लगते

इसे बांटकर खाया जाता है...


 

2. शर्तों पर किया गया प्रेम

 

प्रेम करो

बेइंतहा प्रेम करो

और बिखर जाओ

खुशबू की तरह

उन सबके लिए

जो नहीं समझते हैं- प्रेम।

 

शर्तों पर किया गया प्रेम

सबसे पहले शरीर पर उतरता है

और अंत तक आते-आते

छोड़ जाता है-

आत्मा पर एक गहरा निशान

 

सुनो!

तुम पराजित नहीं हो सकते

तुम्हारा कद कभी बौना नहीं हो सकता

तुम घृणा के पात्र कभी नहीं बन सकते

तुम प्रेम करो और मुक्त रखो...

 

 

3. फूल

 

खिलोगे

मुरझाओगे,

सूखोगे

गिर जाओगे,

फिर भी-

तुम फूल हो

फूल ही कहलाओगे


 

4. बिन पानी सब सून

 

मेरे सामने पानी अनायास बह रहा है

और मैं शांत होकर निहार रहा हूं

जबकि मुझे रोकना चाहिए

ताकि मैं प्यासा न मर जाऊं किसी रोज

 

हम किसी चीज का मूल्य

तब तक नहीं समझते

जब तक वह हमारे पास होता है

 

जैसे ही वह दूर होता है- हमारे से

वैसे ही उसका मूल्य बढ़ जाता है- हमारे जीवन में

 

हम उस समय क्यों नहीं समझते- उसका मूल्य

जो हमारे पास बहुत सहजता से उपलब्ध है।

 

 

5. उधार का जीवन

 

सूरज से लिया उधार-ताप

चांद से लिया उधार-शीतलता

मिट्टी से लिया उधार थोड़ी सी-महक

हवा से लिया उधार थोड़ी सी-सांस

 

पेड़ से लिया थोड़ा सा उधार-छांह

पानी से लिया थोड़ा सा उधार-शांति

पहाड़ से लिया थोड़ा सा उधार-ऊंचाई

सागर से लिया थोड़ा सा उधार-गहराई

 

दोस्तों से लिया उधार-हौसला

प्रेमिका से लिया उधार-रूठना

 

जीवन में सब उधार ही लिया

जो भी लिया जीने के लिए लिया

उधार का जीवन, उधार में ही जिया

 

 

6. कठिन समय में

 

कठिन समय में

जीवन बहुत तरतीबी से नहीं गुजरती

प्रेम, मोहब्बत तो दूर की बात है

घर के लोग भी शांत हो जाते हैं

हमें कुछ कहने से

 

आसमान का रंग बदल जाता है- हमारी नज़रों में

हवा छूकर निकल जाती है- हमें आभास तक नहीं होता

संगीत की कोई धुन- हमें मधुर नहीं कर पाती

बार-बार पानी पीने से गला और सूखता चला जाता है

कमबख्त बीते हुए कल की याद- हमें मैडनेस की ओर ले जाती है

 

दोस्तो!

कठिन समय में

अगर आप किसी के साथ नहीं हैं तो

रूई के एक फाहा का दाब भी सहा नहीं जाता

 

 

7. क्या पिता जी का कोई किस्सा नहीं था

 

हम ने पिता जी से कभी ज़िद नहीं की बचपन में

कि वे कोई किस्सा सुनाएं

 

जब भी ज़िद किया किस्से के लिए

दादी, नानी और मां से किया

और उन्होंने किस्से सुनाएं

 

अब जब हम बड़े हो गए हैं तो

वह सारे के सारे किस्से याद आते हैं

वह किस्से नहीं थे, बल्कि

दादी, नानी और मां की जिंदगी का सच था

जिसे वह किस्से में कहती थीं

 

पर पिता जी के किस्से का पता नहीं चला आज तक

क्या पिता जी के जीवन का कोई किस्सा नहीं था?


 

8. बेरोजगारी के दिनों में

 

इधर बीच धीरे-धीरे सब कुछ भूलने लगा हूं

सब कुछ का मतलब, सब कुछ

कि कब सोया था पूरी नींद

और कब जगा समय से

याद नहीं

 

यहां तक की मेरे भीतर जो संगीत बजता है

वह कब अपनी धुन में आया

और कब चेहरे पर उतरी थी हंसी

याद नहीं

 

कब देखा था अपना चेहरा आईने में

और कब पढ़ा था कोई किताब

याद नहीं

 

कब खाया था मां के हाथ का बना हुआ खाना

और कब सुना था पिता की सलाह

याद नहीं

 

बेरोजगारी के दिनों में

कब आई किसकी याद

यह भी याद नहीं

 

यह भी याद नहीं कि

किन दोस्तो से कब मुलाकात हुई

कहां गए वे सारे दोस्त

जिनके पते पर एक चिट्ठी लिखी जा सके

 

अब तो धीरे-धीरे यह भी याद नहीं कि

रोजगार भी कोई चीज है क्या?

 

 

9. फूल का धर्म

 

तुम जब खिले थे

तब किसी के गुलदस्ते में सजे

किसी के टेबल पर लगे

किसी की दोस्ती में चढ़ा दिए गए

और किसी के जूडे में लगा दिए गए

 

तुम्हारा उपयोग

तुम्हारे खिले रहने तक सबने किया

तुम अपनी आत्मा से सुगंधित करते रहे सबको

किसी की नज़र नहीं गई तुम पर

और जब तुम मुरझा गए

तब सबने तुम्हें फेक दिया उसी कीचड़ में

जहां से तुम फिर फूल बनकर काम आ सको

इन सबके

 

यह लोग फिर आयेंगे तुम्हारे पास

फिर शामिल होंगे उसी प्रक्रिया में

और पूर्ण होते ही उनका कार्य भूल जाएंगे तुम्हें

पर तुम नहीं बदलते

क्योंकि तुम फूल हो

फूल होने का धर्म तुम्हें मालूम है।

 

 


        -सुमित चौधरी 


जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से पोस्ट डॉक्टोरल फेलो

मोबाइल- 9971707114

Email: sumitchaudhary825@gmail.com




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